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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 8/ मन्त्र 1
    ऋषिः - सध्वंशः काण्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    आ नो॒ विश्वा॑भिरू॒तिभि॒रश्वि॑ना॒ गच्छ॑तं यु॒वम् । दस्रा॒ हिर॑ण्यवर्तनी॒ पिब॑तं सो॒म्यं मधु॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । नः॒ । विश्वा॑भिः । ऊ॒तिऽभिः॑ । अश्वि॑ना । गच्छ॑तम् । यु॒वम् । दस्रा॑ । हिर॑ण्यऽवर्तनी॒ इति॒ हिर॑ण्यऽवर्तनी । पिब॑तम् । सो॒म्यम् । मधु॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नो विश्वाभिरूतिभिरश्विना गच्छतं युवम् । दस्रा हिरण्यवर्तनी पिबतं सोम्यं मधु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । नः । विश्वाभिः । ऊतिऽभिः । अश्विना । गच्छतम् । युवम् । दस्रा । हिरण्यऽवर्तनी इति हिरण्यऽवर्तनी । पिबतम् । सोम्यम् । मधु ॥ ८.८.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 25; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    हे ( अश्विना ) दिन रात्रिवत्, चन्द्र सूर्यवत् सब के हृदयों में व्यापने वाले वा 'अश्व' अर्थात् शीघ्रगामी घोड़ों के समान तीव्र वेग से विषय मार्गों में दौड़ने वाले इन्द्रियों के स्वामी जितेन्द्रिय पुरुषो ! ( युवम् ) आप दोनों ( विश्वाभिः ) समस्त ( ऊतिभिः ) रक्षा और ज्ञानों तथा तृप्तिदायक उपायों, अन्नादि के सहित ( नः ) हमें ( आगच्छतम् ) प्राप्त होओ। आप दोनों ( दस्रा ) दुःखों और पापों का नाश करने वाले ( हिरण्य-वर्त्तनी ) सुसज्जित, स्वर्णादि मण्डित रथ पर आरूड़, एवं हितकारी रमणीय, उत्तम मार्ग से जाने वाले, सदाचारी होकर ( सोम्यं मधु ) ओषधि रस और उत्तम मधुर अन्न और जल का ( पिबतम् ) उपभोग करो । 'सोम' पुत्र, शिष्य, सन्तान लाभ आदि का मधुर सुख उपभोग करो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सध्वंसः काण्व ऋषिः। अश्विनौ देवते ॥ छन्द:– १, २, ३, ५, ९, १२, १४, १५, १८—२०, २२ निचुदनुष्टुप्। ४, ७, ८, १०, ११, १३, १७, २१, २३ आर्षी विराडनुष्टुप्। ६, १६ अनुष्टुप् ॥ त्रयोविंशर्चं सूक्तम्॥

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