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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 103 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 103/ मन्त्र 5
    ऋषिः - द्वितः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    परि॒ दैवी॒रनु॑ स्व॒धा इन्द्रे॑ण याहि स॒रथ॑म् । पु॒ना॒नो वा॒घद्वा॒घद्भि॒रम॑र्त्यः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परि॑ । दैवीः॑ । अनु॑ । स्व॒धाः । इन्द्रे॑ण । या॒हि॒ । स॒ऽरथ॑म् । पु॒ना॒नः । वा॒घत् । वा॒घत्ऽभिः । अम॑र्त्यः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परि दैवीरनु स्वधा इन्द्रेण याहि सरथम् । पुनानो वाघद्वाघद्भिरमर्त्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परि । दैवीः । अनु । स्वधाः । इन्द्रेण । याहि । सऽरथम् । पुनानः । वाघत् । वाघत्ऽभिः । अमर्त्यः ॥ ९.१०३.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 103; मन्त्र » 5
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 5

    भावार्थ -
    हे (सोम) सर्वोत्पादक प्रभो ! तू (अमर्त्यः) कभी न मरने वाला, अमृतस्वरूप, स्वयं (वाघत्) विद्वान् और (वाघद्भिः पुनानः) विद्वानों द्वारा हृदय में परिष्कृत किया जाता हुआ, (इन्द्रेण) सूर्यवत् तेजस्वी कान्तियुक्त स्वप्रकाश आत्मा के साथ (दैवीः स्वधाः अनु) देवों, इन्द्रियों, प्राणों, और विद्वानों की अपनी शक्तियों के अनुसार (सरथम्) एक समान रस को (परि याहि) प्राप्त हो।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - द्वित आप्त्य ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १ ३ उष्णिक्। २, ५ निचृदुष्णिक्। ४ पादनिचृदुष्णिक्। ६ विराडुष्णिक्॥ षडृचं सूक्तम्॥

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