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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 18/ मन्त्र 2
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - ककुम्मतीगायत्री स्वरः - षड्जः

    त्वं विप्र॒स्त्वं क॒विर्मधु॒ प्र जा॒तमन्ध॑सः । मदे॑षु सर्व॒धा अ॑सि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । विप्रः॑ । त्वम् । क॒विः । मधु॑ । प्र । जा॒तम् । अन्ध॑सः । मदे॑षु । स॒र्व॒ऽधाः । अ॒सि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं विप्रस्त्वं कविर्मधु प्र जातमन्धसः । मदेषु सर्वधा असि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । विप्रः । त्वम् । कविः । मधु । प्र । जातम् । अन्धसः । मदेषु । सर्वऽधाः । असि ॥ ९.१८.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 18; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    हे परमेश्वर (त्वं विप्रः) तू सब को पूर्ण करने हारा है। (त्वं कविः) तू क्रान्तदर्शी, तह तोड़ कर हृदय तक को देखने और जानने हारा है। तू (अन्धसः प्रजातम् मधु) अन्न से उत्पन्न होने वाले आनन्द-दायक, तृप्तिकारक अन्न के समान हृदय की भूख को तृप्त करने वाला है। तू (मदेषु) आनन्द रसों के आश्रय पर (सर्वधाः असि) समस्त संसार के प्राणियों का धारक पोषक है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - असितः काश्यपो देवलो वा ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः– १, ४ निचृद् गायत्री। २ ककुम्मती गायत्री। ३, ५, ६ गायत्री। ७ विराड् गायत्री॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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