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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1163
ऋषिः - भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्भार्गवो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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ये꣡ सोमा꣢꣯सः परा꣣व꣢ति꣣ ये꣡ अ꣢र्वा꣣व꣡ति꣢ सुन्वि꣣रे꣢ । ये꣢ वा꣣दः꣡ श꣢र्य꣣णा꣡व꣢ति ॥११६३॥

स्वर सहित पद पाठ

ये꣢ । सो꣡मा꣢꣯सः । प꣣राव꣡ति꣢ । ये । अ꣣र्वाव꣡ति꣢ । सु꣣न्विरे꣢ । ये । वा꣣ । अदः꣢ । श꣣र्यणा꣡व꣢ति ॥११६३॥


स्वर रहित मन्त्र

ये सोमासः परावति ये अर्वावति सुन्विरे । ये वादः शर्यणावति ॥११६३॥


स्वर रहित पद पाठ

ये । सोमासः । परावति । ये । अर्वावति । सुन्विरे । ये । वा । अदः । शर्यणावति ॥११६३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1163
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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भावार्थ -
(ये) जो (सोमासः) सोम, विद्वान् लोग (परावति) दूर देश में और (ये) जो (अर्वावति) समीप-देश में और (ये वा) जो (शर्यणावति) विषम अरण्यभूमि में और जो (अर्जीकेषु) ऋजु और सरल, सम देशों में और जो (पस्त्यानां) गृहमेघी, गृहस्थियों के (मध्ये) बीच में (कृत्वसु) बनाये हुए गृहों में, (ये वा) और जो (पञ्चसु) पांचों प्रकार के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र और पांचवें निषाद जो चारों वर्णों के भी धर्म पालन न कर सकने के कारण देश या नगर की सीमा से बाहर कर दिये जाते हैं उनमें भी (सोमासः) ज्ञानसम्पन्न विद्वान् लोग हैं (ते) वे (नः) हमें (दिवः) आकाश या प्रकाश और शुभ पदार्थों की ज्ञान प्रकाश से उत्तम हितोपदेशों की (वृष्टिं) वर्षा अर्थात् अति अधिक राशि को (परिपवन्तां) दें और (सुवीर्यं) हमें उत्तम बल भी प्राप्त करावें। क्योंकि (देवासः) विद्या आदि शुभ दिव्य गुणों से युक्त विद्वान् (स्वानाः) ज्ञानी पुरुष ही (इन्दवः) सोम या ‘इन्दु’ कहाते हैं।

ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः—१ वृषगणो वासिष्ठः। २ असितः काश्यपो देवलो वा। ११ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निः। ८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ४ यजत आत्रेयः। ५ मधुच्छन्दो वैश्वामित्रः। ७ सिकता निवावरी। ८ पुरुहन्मा। ९ पर्वतानारदौ शिखण्डिन्यौ काश्यप्यावप्सरसौ। १० अग्नयो धिष्ण्याः। २२ वत्सः काण्वः। नृमेधः। १४ अत्रिः॥ देवता—१, २, ७, ९, १० पवमानः सोमः। ४ मित्रावरुणौ। ५, ८, १३, १४ इन्द्रः। ६ इन्द्राग्नी। १२ अग्निः॥ छन्द:—१, ३ त्रिष्टुप्। २, ४, ५, ६, ११, १२ गायत्री। ७ जगती। ८ प्रागाथः। ९ उष्णिक्। १० द्विपदा विराट्। १३ ककुप्, पुर उष्णिक्। १४ अनुष्टुप्। स्वरः—१-३ धैवतः। २, ४, ५, ६, १२ षड्ज:। ७ निषादः। १० मध्यमः। ११ ऋषभः। १४ गान्धारः॥

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