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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 210
ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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धा꣣ना꣡व꣢न्तं कर꣣म्भि꣡ण꣢मपू꣣प꣡व꣢न्तमु꣣क्थि꣡न꣢म् । इ꣡न्द्र꣢ प्रा꣣त꣡र्जु꣢षस्व नः ॥२१०॥

स्वर सहित पद पाठ

धा꣣ना꣡व꣢न्तम् । क꣣रम्भि꣡ण꣢म् । अ꣣पूप꣡व꣢न्तम् । उ꣣क्थि꣡न꣢म् । इ꣡न्द्र꣢꣯ । प्रा꣣तः꣢ । जु꣣षस्व । नः ॥२१०॥


स्वर रहित मन्त्र

धानावन्तं करम्भिणमपूपवन्तमुक्थिनम् । इन्द्र प्रातर्जुषस्व नः ॥२१०॥


स्वर रहित पद पाठ

धानावन्तम् । करम्भिणम् । अपूपवन्तम् । उक्थिनम् । इन्द्र । प्रातः । जुषस्व । नः ॥२१०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 210
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 10;
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भावार्थ -

भा० = हे ( इन्द्र ) = आत्मन् ! ( नः ) = हमारे ( प्रातः ) = प्रातःकाल के अवसर में ( धानावन्तं ) = ध्यान धारणा से सम्पन्न, ( करम्भिणम् ) = सुख को प्रारम्भ करने वाले, ( अषूपवन्तम् ) = अति समीपता दिलाने वाले अथवा दूर और निकट सर्वत्र विद्यमान ( उक्थिनं ) = ज्ञानसम्पन्न सोम, आत्मा को ( ज़ुषस्व ) = ग्रहण करो, स्वीकार करो । 

भुंने जौ  'धाना' कहाते हैं, दही से मिले सत्तू 'करम्भ' कहाते हैं ।  पके पुरोडाश को 'अपूप ' कहा जाता है । प्रतिनिधिवाद से, सूक्ष्मतत्व जब स्पष्ट हो जायं तो वे ही 'धाना' हैं। ध्यानयोग से विवेक द्वारा पवित्र किया सत्य ज्ञान 'सक्तु' है। उसका विशेष रस अनुभव 'दधि' है, जिसका मथन करने पर या विशेष परिपाक होने पर प्राप्त ब्रह्मज्ञान 'अपूप ' है जिसमें आत्मा उस ब्रह्म के समीपतम होजाता है। अथवा [अप-उप-वत् = अपूपवात्  ] वह दूर और निकट के सब पदार्थों को प्राप्त है। उस समय अपूर्व ब्रह्मास्वाद 'उक्थ' है, तद्वान् आत्मा 'उक्थी' है । उसको स्वीकार करने की प्रार्थना है ।

ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

ऋषिः - विश्वामित्र:।

देवता - इन्द्रः।

छन्दः - गायत्री।

स्वरः - षड्जः। 

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