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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 568
ऋषिः - पर्वतनारदौ काण्वौ
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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स꣡खा꣢य꣣ आ꣡ नि षी꣢꣯दत पुना꣣ना꣢य꣣ प्र꣡ गा꣢यत । शि꣢शुं꣣ न꣢ य꣣ज्ञैः꣡ परि꣢꣯ भूषत श्रि꣣ये꣢ ॥५६८॥
स्वर सहित पद पाठस꣡खा꣢꣯यः । स । खा꣣यः । आ꣢ । नि । सी꣣दत । पुनाना꣡य꣢ । प्र । गा꣣यत । शि꣡शुम् । न । य꣣ज्ञैः꣢ । प꣡रि꣢꣯ । भू꣣षत । श्रिये꣢ ॥५६८॥
स्वर रहित मन्त्र
सखाय आ नि षीदत पुनानाय प्र गायत । शिशुं न यज्ञैः परि भूषत श्रिये ॥५६८॥
स्वर रहित पद पाठ
सखायः । स । खायः । आ । नि । सीदत । पुनानाय । प्र । गायत । शिशुम् । न । यज्ञैः । परि । भूषत । श्रिये ॥५६८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 568
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 10;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 10;
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विषय - "Missing"
भावार्थ -
भा० = है ( सखायः ) = मित्रगण ! ( आ निषीदत) = आओ बैठो। ( पुनानाय ) = योग साधन द्वारा अपने त्रिविध मलों का शोधन करनेहारे आत्मा के विषय में ( प्र गायत ) = उत्तम रूप से सत् स्तुति करो उसका वर्णन करो । और ( शिशुं न ) = जैसे बालक को ( श्रिये ) = मात्र शोभा के लिये सजाते हैं उसी प्रकार उस ( शिशुम् ) = सबके भीतर शयन करने हारे आत्मा को ( यज्ञैः ) = ज्ञान और कर्म दोनों प्रकार के यज्ञों द्वारा ( श्रिये ) = आत्म सम्पत्ति प्राप्त करने के लिये ( परि भूषत ) = सब प्रकार से अलंकृत करो, उसकी शोभा बढाओ ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
ऋषिः - पर्वतनारदौ काश्यप्यावप्सरसौ वा।
देवता - इन्द्र:।
छन्दः - उष्णिक्।
स्वरः - ऋषभः।
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