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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 65
ऋषिः - बृहदुक्थो वामदेव्यः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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इ꣣दं꣢ त꣣ ए꣡कं꣢ प꣣र꣡ उ꣢ त꣣ ए꣡कं꣢ तृ꣣ती꣡ये꣢न꣣ ज्यो꣡ति꣢षा꣣ सं꣡ वि꣢शस्व । सं꣣वे꣡श꣢नस्त꣣न्वे꣢३꣱चा꣡रु꣢रेधि प्रि꣣यो꣢ दे꣣वा꣡नां꣢ पर꣣मे꣢ ज꣣नि꣡त्रे꣢ ॥६५॥

स्वर सहित पद पाठ

इ꣣द꣢म् । ते꣣ । ए꣡क꣢꣯म् । प꣣रः꣢ । उ꣣ । ते । ए꣡क꣢꣯म् । तृ꣣ती꣡ये꣢न । ज्यो꣡ति꣢꣯षा । सम् । वि꣣शस्व । संवे꣡श꣢नः । स꣣म् । वे꣡श꣢꣯नः । त꣡न्वे꣢꣯ । चा꣡रुः꣢꣯ । ए꣣धि । प्रियः꣢ । दे꣣वा꣡ना꣢म् । प꣣रमे꣢ । ज꣣नि꣡त्रे꣢ ॥६५॥


स्वर रहित मन्त्र

इदं त एकं पर उ त एकं तृतीयेन ज्योतिषा सं विशस्व । संवेशनस्तन्वे३चारुरेधि प्रियो देवानां परमे जनित्रे ॥६५॥


स्वर रहित पद पाठ

इदम् । ते । एकम् । परः । उ । ते । एकम् । तृतीयेन । ज्योतिषा । सम् । विशस्व । संवेशनः । सम् । वेशनः । तन्वे । चारुः । एधि । प्रियः । देवानाम् । परमे । जनित्रे ॥६५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 65
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 7;
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भावार्थ -

भा० = हे आत्मस्वरूप अग्ने ! ( इदम् ) = यह प्रत्यक्ष संसार और यह लोक ( ते ) = तेरा ( एकम् ) = एक रूप है । ( पर:उँ ) = और परलोक का स्वरूप ( ते ) = तेरा ( एकम् ) = एक दूसरा स्वरूप है ।  तू इन दोनों को अतिक्रमण करके ( तृतीयेन ) = तीसरे उत्कृष्ट ( ज्योतिषा ) = ज्योति, ब्रह्मज्ञान से ( संविशस्व ) = लीन हो । वहां ( संवेशन: ) = सुख के प्रवेश करने योग्य होकर ( तन्वे ) = पुनः शरीर ग्रहण के लिये ( चारुः ) = भली प्रकार गमनशील ( एधि ) = रह, ( परमे ) = उत्कृष्ट ( जनित्रे ) = उत्पत्तिस्थान में ( देवानाम् ) = दिव्य गुण वाले अपने इन्द्रियगण के सामथ्यौं  का ( प्रियः ) = प्रेमपात्र होकर रह । 

ईश्वरपक्ष में - यह प्रत्यक्ष लोक तेरा एक रूप है। पर सूर्य आदि तेरा दूसरा रूप है । तू ही तीर्णतम, तृतीय, सर्वोत्कृष्ट ज्योतिरूप सर्वत्र व्यापक है । तू व्यापक होकर ( तन्वे ) = जगत् के विस्तार करने के लिये भी ( चारु: एधि ) = सर्वत्र व्याप्त होता है ।  तू ( देवानां ) = देव, पञ्चभूतों या मुक्तात्माओं के परम  उत्पादक रूप में भी उनका ( प्रियः ) = प्रिय अर्थात् उनमें सबसे अधिक श्रेष्ठ है ।

सायण ने इस मन्त्र को बृहदुक्थ ऋषि के मुख से अपने मृत, पुत्र के प्रति कहाया है ।  "तेरा यह एक अंश शरीर इस श्मशानाग्नि में जाय, दूसरा अंश प्राणवायु में मिल जाय, तीसरा अंश सूर्यज्योति में लीन हो जाय और पुनः शरीर धारण के लिये तैयार होकर सूर्यलोक में प्रसन्न होकर रह ।”
 

ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

ऋषिः - बृहदुक्थो वामदेव्यः।

छन्दः - त्रिष्टुभ ।

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