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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 808
ऋषिः - उपमन्युर्वासिष्ठः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
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ए꣣वा꣡ प꣢वस्व मदि꣣रो꣡ मदा꣢꣯योदग्रा꣣भ꣡स्य꣢ न꣣म꣡य꣢न्वध꣣स्नु꣢म् । प꣢रि꣣ व꣢र्णं꣣ भ꣡र꣢माणो꣣ रु꣡श꣢न्तं ग꣣व्यु꣡र्नो꣢ अर्ष꣣ प꣡रि꣢ सोम सि꣣क्तः꣢ ॥८०८॥

स्वर सहित पद पाठ

ए꣣व꣢ । प꣣वस्व । मदिरः꣢ । म꣡दा꣢꣯य । उ꣣दग्राभ꣡स्य꣢ । उ꣣द । ग्राभ꣡स्य꣢ । न꣣म꣡य꣢न् । व꣣धस्नु꣢म् । व꣣ध । स्नु꣢म् । प꣡रि꣢꣯ । व꣡र्ण꣢꣯म् । भ꣡र꣢꣯माणः । रु꣡श꣢꣯न्तम् । ग꣣व्युः꣢ । नः꣣ । अर्ध । प꣡रि꣢꣯ । सो꣣म । सिक्तः꣢ ॥८०८॥


स्वर रहित मन्त्र

एवा पवस्व मदिरो मदायोदग्राभस्य नमयन्वधस्नुम् । परि वर्णं भरमाणो रुशन्तं गव्युर्नो अर्ष परि सोम सिक्तः ॥८०८॥


स्वर रहित पद पाठ

एव । पवस्व । मदिरः । मदाय । उदग्राभस्य । उद । ग्राभस्य । नमयन् । वधस्नुम् । वध । स्नुम् । परि । वर्णम् । भरमाणः । रुशन्तम् । गव्युः । नः । अर्ध । परि । सोम । सिक्तः ॥८०८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 808
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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भावार्थ -
हे (सोम) आनन्दमय ! रसस्वरूप ! (मदिरः) हर्ष को जागृत करने हारा (उद्-ग्राभस्य) सत्य ज्ञान के ग्रहण करने हारे आत्मा के (वधस्नुं) विद्युत् द्वारा ताड़ना करने पर स्रवण करने वाले मेघ के समान, प्राणों के वश करने पर धर्ममेघ द्वारा आनन्द रसको वर्षा देनेहारे, चित्त या आत्मा को (नमयन्) अपने अधीन करता हुआ (पवस्व एव) अवश्य प्रकट हो। और (रुशन्तं) कान्ति से सम्पन्न (वर्णं) वरण करने योग्य स्वरूप को (परि भरमाणः) सब ओर से धारणा करता हुआ (सिक्तः) सर्वत्र व्याप्त या आनन्द से पूर्ण होकर (गव्युः) समस्त इन्द्रियों को प्रेरणा करता हुआ (अर्ष) स्रवित हो, प्रकट हो।

ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - missing

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