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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 128

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 128/ मन्त्र 5
    सूक्त - देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा छन्दः - आर्ष्यनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    ये च॑ दे॒वा अय॑ज॒न्ताथो॒ ये च॑ पराद॒दिः। सूर्यो॒ दिव॑मिव ग॒त्वाय॑ म॒घवा॑ नो॒ वि र॑प्शते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । च॑ । दे॒वा: । अय॑ज॒न्त । अथो॒ इति॑ । ये । च॑ । पराद॒दि: ॥ सूर्य॒: । दिव॑म्ऽइव । ग॒त्वाय॑ । म॒घवा॑ । न॒: । वि । र॒प्श॒ते॒ ॥१२८.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये च देवा अयजन्ताथो ये च पराददिः। सूर्यो दिवमिव गत्वाय मघवा नो वि रप्शते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । च । देवा: । अयजन्त । अथो इति । ये । च । पराददि: ॥ सूर्य: । दिवम्ऽइव । गत्वाय । मघवा । न: । वि । रप्शते ॥१२८.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 128; मन्त्र » 5

    भावार्थ -
    (ये च) और जो (देवान्) विद्वान् पुरुषों का आदर सत्कार करते हैं (अथो) और (ये च) जो (परा ददुः) दान करते हैं, (दिवम् गत्वाय सूर्य इव) आकाश को प्राप्त हुए सूर्य के समान (दिवम्) मोक्ष या परलोक को प्राप्त या दिव्यतेज या ज्ञान प्रकाश या उन्नत पद को (गत्वाय) प्राप्त होकर (मघवानः) धनवान्, ऐश्वर्यवान् पुरुष (वि रप्शन्ते) विविध प्रकारों से शोभा को प्राप्त होते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथ पञ्च क्लृप्तयः॥

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