अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 15/ मन्त्र 4
इ॒मे त॑ इन्द्र॒ ते व॒यं पु॑रुष्टुत॒ ये त्वा॒रभ्य॒ चरा॑मसि प्रभूवसो। न॒हि त्वद॒न्यो गि॑र्वणो॒ गिरः॒ सघ॑त्क्षो॒णीरि॑व॒ प्रति॑ नो हर्य॒ तद्वचः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मे । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । ते । व॒यम् । पु॒रु॒ऽस्तु॒त॒ । ये । त्वा॒ । आ॒रभ्य॑ । चरा॑मसि । प्र॒भु॒व॒सो॒ इति॑ प्रभुऽवसो ॥ न॒हि । त्वत् । अ॒न्य: । गि॒र्व॒ण॒: । गिर॑: । सघ॑त् । क्षो॒णी:ऽइ॑व । प्रति॑ । न॒: । ह॒र्य॒ । तत् । वच॑: ॥१५.४॥
स्वर रहित मन्त्र
इमे त इन्द्र ते वयं पुरुष्टुत ये त्वारभ्य चरामसि प्रभूवसो। नहि त्वदन्यो गिर्वणो गिरः सघत्क्षोणीरिव प्रति नो हर्य तद्वचः ॥
स्वर रहित पद पाठइमे । ते । इन्द्र । ते । वयम् । पुरुऽस्तुत । ये । त्वा । आरभ्य । चरामसि । प्रभुवसो इति प्रभुऽवसो ॥ नहि । त्वत् । अन्य: । गिर्वण: । गिर: । सघत् । क्षोणी:ऽइव । प्रति । न: । हर्य । तत् । वच: ॥१५.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 15; मन्त्र » 4
विषय - विद्युत् राजा और परमेश्वर
भावार्थ -
हे (इन्द्र) इन्दं ! परम ऐश्वर्यवन् ! हे (पुरुष्टुत) बहुतों से स्तुति किये गये या बहुत प्रकारों से वर्णित ! हे (प्रभूवसो) अति सामर्थ्यवान् वसो ! अति ऐश्वर्यवान् ! या अति सामर्थ्य रूप धन वाले ! (ये) जो लोग (त्वा आरभ्य चरामसि) जो तुझको प्रारम्भ करके, तुझको प्राप्त करके, तुझको मुखिया बनाकर विचरते हैं (ते) वे (इमे) ये (वयम्) हम (ते) तेरे ही उपासक तेरे सेवक हैं। हे (गिर्वणः) समस्त वाणियों के सेवन करने वाले ! (त्वत अन्यः) तुझ से दूसरा कोई और (गिरः नहि सघत्) हमारी वाणियों को नहीं सहन करता, कोई नहीं प्राप्त करता। तू (क्षोणीः इव) पृथिवी निवासी प्रजाओं के समान या (क्षोणीः इव) पृथिवी के समान सहिष्णु होकर ही (नः) हमारे (तद्) उन उन नाना मधुर और कटु (वचः) वचनों को (प्रति हर्य) श्रवण कर। प्रजाएं राजा का आश्रय लेकर सब कार्य करें वह प्रजा के सब बुरी भली आलोचनाओं को सहे। ईश्वर को आश्रय लेकर हम सब कार्य करें। वह सबकी सुनने में समर्थ है। वह आश्रय रूप भूमि माता के समान, हमारे वचन सुने।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गोतमः ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। षडृचं सूक्तम्।
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