ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 15/ मन्त्र 1
अ॒ग्निर्होता॑ नो अध्व॒रे वा॒जी सन्परि॑ णीयते। दे॒वो दे॒वेषु॑ य॒ज्ञियः॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निः । होता॑ । नः॒ । अ॒ध्व॒रे । वा॒जी । सन् । परि॑ । नी॒य॒ते॒ । दे॒वः । दे॒वेषु॑ । य॒ज्ञियः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निर्होता नो अध्वरे वाजी सन्परि णीयते। देवो देवेषु यज्ञियः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठअग्निः। होता। नः। अध्वरे। वाजी। सन्। परि। नीयते। देवः। देवेषु। यज्ञियः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 15; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
विषय - तेजस्वी पुरुष के योग्य पद ।
भावार्थ -
(अध्वरे अग्निः) यज्ञ में अग्नि के समान (अध्वरे) न नाश करने योग्य परस्पर सख्य आदि उत्तम कार्य में (अग्निः) विद्वान् पुरुष, नायक (होता) सब कार्यों का स्वीकार करने वाला (वाजी) ज्ञान, अन्न, जल आदि से युक्त (देवः) तेजस्वी दानशील, विजिगीषु (यज्ञियः) सत्संग, मैत्री आदि के योग्य वा यज्ञ, परमपूज्य प्रजापति पद के योग्य (सन्) सज्जन पुरुष प्राप्त हो तो (देवेषु) वह विद्वान् पुरुषों के बीच (परिणीयते) ऊपर के पद तक प्राप्त कराया जावे । आदरपूर्वक घर आदि में बुलाया और लाया जावे ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव ऋषिः॥ १–६ अग्निः । ७, ८ सोमकः साहदेव्यः । ९,१० अश्विनौ देवते ॥ छन्द:– १, ४ गायत्री । २, ५, ६ विराड् गायत्री । ३, ७, ८, ९, १० निचृद्गायत्री ॥ षडजः स्वरः ॥ दशर्चं सूक्तम् ॥
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