ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 40/ मन्त्र 5
हं॒सः शु॑चि॒षद्वसु॑रन्तरिक्ष॒सद्धोता॑ वेदि॒षदति॑थिर्दुरोण॒सत्। नृ॒षद्व॑र॒सदृ॑त॒सद्व्यो॑म॒सद॒ब्जा गो॒जा ऋ॑त॒जा अ॑द्रि॒जा ऋ॒तम् ॥५॥
स्वर सहित पद पाठहं॒सः । शु॒चि॒ऽसत् । वसुः॑ । अ॒न्त॒रि॒क्ष॒ऽसत् । होता॑ । वे॒दि॒ऽसत् । अति॑थिः । दु॒रो॒ण॒ऽसत् । नृ॒ऽसत् । व॒र॒ऽसत् । ऋ॒त॒ऽसत् । व्यो॒म॒ऽसत् । अ॒प्ऽजाः । गो॒ऽजाः । ऋ॒त॒ऽजाः । अ॒द्रि॒ऽजाः । ऋ॒तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
हंसः शुचिषद्वसुरन्तरिक्षसद्धोता वेदिषदतिथिर्दुरोणसत्। नृषद्वरसदृतसद्व्योमसदब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतम् ॥५॥
स्वर रहित पद पाठहंसः। शुचिऽसत्। वसुः। अन्तरिक्षऽसत्। होता। वेदिऽसत्। अतिथिः। दुरोणऽसत्। नृऽसत्। वरऽसत्। ऋतऽसत्। व्योमऽसत्। अप्ऽजाः। गोऽजाः। ऋतऽजाः। अद्रिऽजाः। ऋतम् ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 40; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
विषय - आत्मा का वर्णन ।
भावार्थ -
वह आत्मा कैसा है । (हंसः) हंस के समान नीर क्षीरवत् सत्यासत्य का विवेकी और स्वयं बन्धनों का नाशक, (शुचि-सद्) शुद्धस्वरूप में विद्यमान, (अन्तरिक्ष-सत्) वायु के तुल्य अन्तरिक्ष या अन्तरात्मा चित्त के भी भीतर विद्यमान, (होता) सुख दुःखों का भोक्ता, (वेदिषद्) वेदि में होता के तुल्य सुख दुःख प्राप्त कराने वाली देह भूमि में विराजमान, (अतिथिः) अतिथि के समान घर से घर में घूमने वाले परिव्राजकवत्, (दुरोण-सद्) गृह में गृहपति के तुल्य विराजने वाला, (नृ-सद्) नायकों में मुख्याध्यक्ष के तुल्य देह के नेता प्राणगण में विराजमान, (वर-सद्) वरण करने योग्य अन्न के तुल्य परम श्रेष्ठ ब्रह्म में विराजमान, (व्योम-सद्) आकाश में स्थित सूर्य वा वायु के तुल्य, विविध रक्षा से युक्त परमेश्वर की शरण में विद्यमान, (अब्जाः) जलों में अनायास प्रकट कमलवत् प्राणों में शक्ति रूप से प्रकट, (गोजाः) गौओं में गो-रस और किरणों में प्रकाश के तुल्य ज्ञानेन्द्रियों में ज्ञान रूप से प्रकट, (ऋतजाः) सत्य में स्थित, (अद्रिजाः) मेघों में जलवत् अखण्ड ब्रह्म में स्थित, स्वयं (ऋतम्) अन्न के तुल्य ज्ञानमय ब्रह्म का लाभ करे । इति चतुर्दशो वर्गः ॥
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव ऋषिः॥ १-४ दधिक्रावा। ५ सूर्यश्च देवता॥ छन्दः– १ निचृत् त्रिष्टुप्। २ त्रिष्टुप्। ३ स्वराट् त्रिष्टुप्। ४ भुरिक् त्रिष्टुप्। ५ निचृज्जगती ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
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