ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 48/ मन्त्र 2
नि॒र्यु॒वा॒णो अश॑स्तीर्नि॒युत्वाँ॒ इन्द्र॑सारथिः। वाय॒वा च॒न्द्रेण॒ रथे॑न या॒हि सु॒तस्य॑ पी॒तये॑ ॥२॥
स्वर सहित पद पाठनिः॒ऽयु॒वा॒नः । अश॑स्तीः । नि॒युत्वा॑न् । इन्द्र॑ऽसारथिः । वायो॒ इति॑ । आ । च॒न्द्रेणे॑ । रथे॑न । या॒हि । सु॒तस्य॑ । पी॒तये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
निर्युवाणो अशस्तीर्नियुत्वाँ इन्द्रसारथिः। वायवा चन्द्रेण रथेन याहि सुतस्य पीतये ॥२॥
स्वर रहित पद पाठनिःऽयुवानः। अशस्तीः। नियुत्वान्। इन्द्रऽसारथिः। वायो इति। आ। चन्द्रेण। रथेन। याहि। सुतस्य। पीतये ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 48; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
विषय - उसके कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
हे (वायो) वायु के समान शत्रुओं को उखाड़ देने में समर्थ बलवान् ! तू (इन्द्र-सारथिः) ऐश्वर्यवान् राजा को सहायक बना कर (चन्द्रेण रथेन) सुवर्ण के बने रथ एवं सर्वाह्लादक, सर्वप्रिय व्यवहार से (नियुत्वान्) अपने अधीन नाना नियुक्त सैन्यों, अश्वों और भृत्यादि का स्वामी होकर (अशस्तीः) परस्पर हिंसा न करने वाली सौम्य स्वभाव, (निर्युवाणः) बलवान् पुरुषों से रहित वा नाना युवकों से युक्त प्रजाओं को (सुतस्य पीतये) ऐश्वर्य के उपभोग और रक्षा के लिये (आ याहि) प्राप्त कर ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव ऋषिः॥ वायुदेवता॥ छन्दः- १ निचृदनुष्टुप्। २ अनुष्टुप। ३, ४, ५ भुरिगनुष्टुप। पञ्चर्चं सूक्तम्॥
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