ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 50/ मन्त्र 1
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - बृहस्पतिः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यस्त॒स्तम्भ॒ सह॑सा॒ वि ज्मो अन्ता॒न्बृह॒स्पति॑स्त्रिषध॒स्थो रवे॑ण। तं प्र॒त्नास॒ ऋष॑यो॒ दीध्या॑नाः पु॒रो विप्रा॑ दधिरे म॒न्द्रजि॑ह्वम् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठयः । त॒स्तम्भ॑ । सह॑सा । वि । ज्मः । अन्ता॑न् । बृह॒स्पतिः॑ । त्रि॒ऽस॒ध॒स्थः । रवे॑ण । तम् । प्र॒त्नासः॑ । ऋष॑यः । दीध्या॑नाः । पु॒रः । विप्राः॑ । द॒धि॒रे॒ । म॒न्द्रऽजि॑ह्वम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्तस्तम्भ सहसा वि ज्मो अन्तान्बृहस्पतिस्त्रिषधस्थो रवेण। तं प्रत्नास ऋषयो दीध्यानाः पुरो विप्रा दधिरे मन्द्रजिह्वम् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठयः। तस्तम्भ। सहसा। वि। ज्मः। अन्तान्। बृहस्पतिः। त्रिऽसधस्थः। रवेण। तम्। प्रत्नासः। ऋषयः। दीध्यानाः। पुरः। विप्राः। दधिरे। मन्द्रऽजिह्वम् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 50; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
विषय - परमेश्वर आचार्य विद्वान पुरोहित का वर्णन ।
भावार्थ -
प्रथम परमेश्वर और आचार्य वा विद्वान् पुरोहित का वर्णन करते हैं । (यः) जो परमेश्वर (सहसा) बलपूर्वक (ज्मः अन्तान्) पृथिवी के पर्यन्त भागों को (रवेण) अपनी आज्ञा से (तस्तम्भ) वश करता है वही (त्रि-सधस्थः) तीनों लोकों में व्यापक (बृहस्पतिः) महान् पालक, परमेश्वर है । (तं) उस (मन्द्र-जिह्वम्) आनन्ददायक, वेदवाणी के स्वामी परमेश्वर को (प्रत्नासः) पूर्व के वेदार्थ-द्रष्टा (विप्राः ऋषयः) मेधावी ऋषिजन (दीध्यानाः) प्रकाशित करते वा ध्यान करते हुए (पुरः दधिरे) अपने समक्ष साक्षी रूप से स्थापित करते रहते हैं । (२) इसी प्रकार जो पुरुष बल से पृथिवी के सीमान्त भागों को भी वश करे वह (त्रि-सधस्थः) तीनों शक्तियों में समान रूप से स्थित होकर (बृहस्पतिः) बड़े राष्ट्र का पालक पुरुष ‘बृहस्पति’ है। (तं मन्द्र-जिह्वं) उस सबको सन्तुष्ट आनन्दित करने वाली वाणी के वक्ता राजा को (प्रत्नासः ऋषयः) वृद्ध विद्वान् जन (दीध्यानाः) अधिक तेजस्वी, उज्ज्वल रूप से प्रतिष्ठित करते हुए (पुरः दधिरे) सबसे आगे प्रमुख पद पर स्थापित करें । (३) इसी प्रकार जो वेदज्ञ विद्वान् अपने (रवेण) आदेश से भूमि के प्रान्तों तक का शासन करे वा (ज्मः अन्तान् तस्तम्भ) वाणी के ही सिद्धान्तों को स्थिर रूप से कहे उत्तम (ऋषयः) तर्क वितर्कशील (दीध्यानाः) अर्थ का प्रकाश करते हुए (विप्राः) मेधावी शिष्यजन, उस आनन्दप्रद, सुखद वाणी के वक्ता विद्वान् को (पुरः दधिरे) समक्ष गुरु पद पर वा पुरोहित रूप से स्थापित करें ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव ऋषिः॥ १-९ बृहस्पतिः। १०, ११ इन्द्राबृहस्पती देवते॥ छन्द:-१—३, ६, ७, ९ निचृत्त्रिष्टुप् । ५, ४, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ८, १० त्रिष्टुप ॥ धैवतः स्वरः ॥
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