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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 58 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 58/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः सूर्यो वाऽपो वा गावो वा घृतं वा छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स॒मु॒द्रादू॒र्मिर्मधु॑माँ॒ उदा॑र॒दुपां॒शुना॒ सम॑मृत॒त्वमा॑नट्। घृ॒तस्य॒ नाम॒ गुह्यं॒ यदस्ति॑ जि॒ह्वा दे॒वाना॑म॒मृत॑स्य॒ नाभिः॑ ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒मु॒द्रात् । ऊ॒र्मिः । मधु॑ऽमान् । उत् । आ॒र॒त् । उप॑ । अं॒शुना॑ । सम् । अ॒मृ॒त॒ऽत्वम् । आ॒न॒ट् । घृ॒तस्य॑ । नाम॑ । गुह्य॑म् । यत् । अस्ति॑ । जि॒ह्वा । दे॒वाना॑म् । अ॒मृत॑स्य । नाभिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समुद्रादूर्मिर्मधुमाँ उदारदुपांशुना सममृतत्वमानट्। घृतस्य नाम गुह्यं यदस्ति जिह्वा देवानाममृतस्य नाभिः ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    समुद्रात्। ऊर्मिः। मधुऽमान्। उत्। आरत्। उप। अंशुना। सम्। अमृतऽत्वम्। आनट्। घृतस्य। नाम। गुह्यम्। यत्। अस्ति। जिह्वा। देवानाम्। अमृतस्य। नाभिः ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 58; मन्त्र » 1
    अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 10; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    जिस प्रकार (समुद्रात् मधुमान् ऊर्मिः उत् आरत्) समुद्र से जलमय तरंग ऊपर आता है उसी प्रकार (समुद्रात्) समुद्र के तुल्य अति विशाल महान् आकाश से (मधुमान् ऊर्मिः) तेजोमय, शक्तिमय, ऊपर गति करने वाला सूर्य (उत् आरत्) उदय को प्राप्त होता है। उसी प्रकार (समुद्रात्) जलमय समुद्र से (मधुमान् ऊर्मिः) जल से भरा तरंगवत् मेघ भी (उत् आरत्) ऊपर उठता है। प्रजागण के समुद्र से (मधुमान्) शत्रुकंपन और शत्रु-संतापक बल से युक्त (ऊर्मिः) सर्वोपरि उनको उन्मूलन करने वाला वीर पुरुष (उत् आरत्) उदय को प्राप्त होता है। जिस प्रकार समुद्र से उठा जल (अंशुना) सूर्य के किरणसमूह से (अमृतत्वं) अमृत रूप जलभाव वा अन्नभाव को (समआनट्) प्राप्त कर लेता है उसी प्रकार मेघ भी बरसकर अमृत अन्न वा जल में परिणत होता है। सूर्य भी अपने किरण से ‘अमृत’ अर्थात् जीवन रूप में बदल जाता है। (यत्) जो (घृतस्य) जल, घृत वा तेज का (गुह्यं नाम अस्ति) गुप्त, अप्रकट स्वरूप है, अग्नि में पड़ा घी जिस प्रकार प्रकाशयुक्त अग्नि आदि की ज्वाला बन जाता है आकाश का जल जिस प्रकार विद्युत् की ज्वाला रूप से प्रकट होता है उसी प्रकार (घृतस्य) तेज का (गुह्यं नाम) गुप्त, व्यापक रूप (यत् अस्ति) जो है वह (देवानाम्) सूर्य आदि प्रकाशवान् पदार्थों की (जिह्वा) रसादि ग्रहण करने की शक्ति रूप है। (अमृतस्य नाभिः) जिस प्रकार जल प्राण वा जीवन को बांधने वाला है उसी प्रकार वह तेज भी जीवन को बांधने वाला है। घृतादि के पक्ष में—वे पदार्थ (अमृतस्य नाभिः) दीर्घ जीवन के मूल आश्रय हैं। परमेश्वर, गृहपति, जीवन, मेघ आदि पक्षों की स्पष्टता के लिये देखो (यजुर्वेद अ० १७। मं० ८९)(२) ज्ञानपक्ष में—समुद्र के समान गंभीर गुरु विद्वान् से (मधुमान् ऊर्मिः) ज्ञानमय या ऋग्वेदमय उत्तम ज्ञान वा शब्दमय शास्त्र प्रकट होता है वह (अंशुना) शिष्य के साथ मिलकर अमृत, चिरस्थायी हो जाता है। वा वह व्यापक ब्रह्म के साथ मिलकर मोक्ष का सा सुख देता है। (घृतस्य) प्रकाशमय ज्ञान का (गुह्यं) बुद्धि में स्थित जो रूप है वह (देवानां जिह्वा) इन्द्रिय गण के बीच वा विद्वानों की वाणी से प्रकट होता है और वही ज्ञान (अमृतस्य नाभिः) मोक्ष का आश्रय है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव ऋषिः। अग्निः सूयों वाऽपो वा गावो वा घृतं वा देवताः॥ छन्द:-निचृत्त्रिष्टुप २, ८, ९, १० त्रिष्टुप। ३ भुरिक् पंक्तिः। ४ अनुष्टुप्। ६, ७ निचृदनुष्टुप। ११ स्वराट् त्रिष्टुप्। ५ निचृदुष्णिक्। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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