ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 9/ मन्त्र 8
परि॑ ते दू॒ळभो॒ रथो॒ऽस्माँ अ॑श्नोतु वि॒श्वतः॑। येन॒ रक्ष॑सि दा॒शुषः॑ ॥८॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । ते॒ । दुः॒ऽदभः॑ । रथः॑ । अ॒स्मान् । अ॒श्नो॒तु॒ । वि॒श्वतः॑ । येन॑ । रक्ष॑सि । दा॒शुषः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
परि ते दूळभो रथोऽस्माँ अश्नोतु विश्वतः। येन रक्षसि दाशुषः ॥८॥
स्वर रहित पद पाठपरि। ते। दुःऽदभः। रथः। अस्मान्। अश्नोतु। विश्वतः। येन। रक्षसि। दाशुषः॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 9; मन्त्र » 8
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 8
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 8
विषय - राजा, विद्वान् अग्रणी नायक, और ज्ञानमय प्रभु की उपासना और स्तुति ।
भावार्थ -
हे राजन् ! विद्वन् ! (ते) तेरा (दूळभः) न नाश होने वाला, दृढ़ वह (रथः) रथ (अस्मान्) हमें (विश्वतः) सब तरफ से (परि अश्नोतु) प्राप्त हो (येन) जिससे तू (दाशुषः) दानशील प्रजा पुरुषों को (रक्षसि) रक्षा करता है । (२) परमेश्वर पक्ष में—उसका वह अविनश्वर (रथः) रस, आनन्द हमें सब प्रकार से मिले जिससे वह आत्मसमर्पक भक्तों की रक्षा करता है । इति नवमो वर्गः ॥
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव। ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १, ३, ४, गायत्री २, ६ विराड्- गायत्री । ५ त्रिपादगायत्री । ७,८ निचृद्गायत्री ॥ षड्जः स्वरः ॥ अष्टरर्चं सूक्तम् ॥
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