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ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 96/ मन्त्र 3
ऋषिः - कुत्सः आङ्गिरसः
देवता - द्रविणोदा अग्निः शुद्धोऽग्निर्वा
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तमी॑ळत प्रथ॒मं य॑ज्ञ॒साधं॒ विश॒ आरी॒राहु॑तमृञ्जसा॒नम्। ऊ॒र्जः पु॒त्रं भ॑र॒तं सृ॒प्रदा॑नुं दे॒वा अ॒ग्निं धा॑रयन्द्रविणो॒दाम् ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । इ॒ळ॒त॒ । प्र॒थ॒मम् । य॒ज्ञ॒ऽसाध॑म् । विशः॑ । आरीः॑ । आऽहु॑तम् । ऋ॒ञ्ज॒सा॒नम् । ऊ॒र्जः । पु॒त्रम् । भ॒र॒तम् । सृ॒प्रऽदा॑नुम् । दे॒वाः । अ॒ग्निम् । धा॒र॒य॒न् । द्र॒वि॒णः॒ऽदाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तमीळत प्रथमं यज्ञसाधं विश आरीराहुतमृञ्जसानम्। ऊर्जः पुत्रं भरतं सृप्रदानुं देवा अग्निं धारयन्द्रविणोदाम् ॥
स्वर रहित पद पाठतम्। इळत। प्रथमम्। यज्ञऽसाधम्। विशः। आरीः। आऽहुतम्। ऋञ्जसानम्। ऊर्जः। पुत्रम्। भरतम्। सृप्रऽदानुम्। देवाः। अग्निम्। धारयन्। द्रविणःऽदाम् ॥ १.९६.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 96; मन्त्र » 3
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
विषय - स्तुतिविषयः
व्याखान -
हे मनुष्यो! (तमीळत) उस अग्नि की स्तुति करो। कैसा है वह अग्नि ? जो (प्रथमम्) सब कार्यों से पहले वर्त्तमान और सबका आदिकारण है तथा (यज्ञसाधम्) सब संसार और विज्ञानादि यज्ञ का साधक [सिद्ध करनेवाला], सबका जनक है । हे (विशः) मनुष्यो ! उसी को स्वामी मानकर (आरी:) प्राप्त होओ, जिसको (आहुतम्) अपन दीनता से पुकारते, (ऋञ्जसानम्) विज्ञानादि से विद्वान् लोग सिद्ध करते और जानते हैं। (ऊर्ज: पुत्रं भरतम्) पृथिव्यादि जगद्रूप अन्न का पुत्र, अर्थात् पालन करनेवाला तथा 'भरत', अर्थात् उसी अन्न का पोषण और धारण करनेवाला है। (सृप्रदानुम्) सब जगत् को चलने की शक्ति देनेवाला और ज्ञान का दाता है। उसी को (देवाः, अग्निं, धारयन् द्रविणोदाम्) देव (विद्वान् लोग) अग्नि कहते और धारण करते हैं। वही सब जगत् को 'द्रविण', अर्थात् निर्वाह के लिए अन्न जलादि सब पदार्थ और विद्यादि पदार्थों का देनेवाला है । उस अग्नि परमात्मा को छोड़के अन्य किसी की भक्ति वा याचना कभी किसी को न करनी चाहिए ॥४०॥ -
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