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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 15
    ऋषिः - त्रित ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराट त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    सीद॒ त्वं मा॒तुर॒स्याऽउ॒पस्थे॒ विश्वा॑न्यग्ने व॒युना॑नि वि॒द्वान्। मैनां॒ तप॑सा॒ मार्चिषा॒ऽभिशों॑चीर॒न्तर॑स्या शु॒क्रज्यो॑ति॒र्विभा॑हि॥१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सीद॑। त्वम्। मा॒तुः। अ॒स्याः। उ॒पस्थे॒ इत्यु॒पऽस्थे॑। विश्वा॑नि। अ॒ग्ने॒। व॒युना॑नि। वि॒द्वान्। मा। ए॒ना॒म्। तप॑सा। मा। अ॒र्चिषा॑। अ॒भि। शो॒चीः॒। अ॒न्तः। अ॒स्या॒म्। शु॒क्रज्यो॑ति॒रिति॑ शु॒क्रऽज्यो॑तिः। वि। भा॒हि॒ ॥१५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सीद त्वम्मातुरस्या उपस्थे विश्वान्यग्ने वयुनानि विद्वान् । मैनान्तपसा मार्चिषाभिशोचीरन्तरस्याँ शुक्रज्योतिर्वि भाहि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सीद। त्वम्। मातुः। अस्याः। उपस्थे इत्युपऽस्थे। विश्वानि। अग्ने। वयुनानि। विद्वान्। मा। एनाम्। तपसा। मा। अर्चिषा। अभि। शोचीः। अन्तः। अस्याम्। शुक्रज्योतिरिति शुक्रऽज्योतिः। वि। भाहि॥१५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 15
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - हे (अग्ने) विद्याभ्यासी पुरुष (त्वम्‌) आपण (अस्याम्‌) या मातेच्या आश्रयात वा तिच्या उपस्थितीमुळे (विभाहि) प्रकाशित व्हा (आईच्या आशीर्वादामुळे कीर्तिमंत व्हा) (शुक्रज्योति:) आपण शुद्धाचरणी असल्यामुळे यशवंत (विद्वान) विद्वान आहात, म्हणून आपण (मातु:) या मातेच्या (उपस्थे) जवळ वा कुशीत (सीद) बसा या मातेकडून (विश्‍वानि) सर्वप्रकारचे उत्कृष्ट विचार प्राप्त करा. या मातेच्या (अन्त:) अंत: करणाला (तपसा) अधिक संतापाद्वारे आणि (अर्चिषा तेजाद्वारे (मा) अभिशोची:) कधीही संतप्त वा दु:खी करूं नका. उलट या मातेकडून चांगले शिक्षण व संस्कार घेऊन अधिकाधिक यशवंत व्हा.

    भावार्थ - भावार्थ - विदुषी मातेद्वारा उत्तम विद्या आणि सुशिक्षा देऊन व सुसंस्कारित झालेला एक सेवक प्रजेचे पालन कशा प्रकारे करतो? जशी एक माता आल्या पुत्रांचे लालन पालन करते. असा राजाच ऐश्‍वर्यशाली होतो ॥15॥

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