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  • यजुर्वेद - अध्याय 28/ मन्त्र 23
    ऋषिः - अश्विनावृषी देवता - अग्निर्देवता छन्दः - कृतिः स्वरः - निषादः
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    अ॒ग्निम॒द्य होता॑रमवृणीता॒यं यज॑मानः॒ पच॒न् पक्तीः॒ पच॑न् पुरो॒डाशं॑ ब॒ध्नन्निन्द्रा॑य॒ च्छाग॑म्। सू॒प॒स्थाऽ अ॒द्य दे॒वो वन॒स्पति॑रभव॒दिन्द्रा॑य॒ च्छागे॑न।अद्य॒त्तं मे॑द॒स्तः प्रति॑ पच॒ताग्र॑भी॒दवी॑वृधत् पुरो॒डाशे॑न त्वाम॒द्य ऋ॑षे॥२३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निम्। अ॒द्य। होता॑रम्। अ॒वृ॒णी॒त॒। अ॒यम्। यज॑मानः। पच॑न्। पक्तीः॑। पच॑न्। पु॒रोडाश॑म्। ब॒ध्नन्। इन्द्रा॑य। छाग॑म्। सू॒प॒स्था इति॑ सुऽउप॒स्थाः। अ॒द्य। दे॒वः। वन॒स्पतिः॑। अ॒भ॒व॒त्। इन्द्रा॑य। छागे॑न। अद्य॑त्। तम्। मे॒द॒स्तः। प्रति॑। प॒च॒ता। अग्र॑भीत्। अवी॑वृधत्। पु॒रो॒डाशे॑न। त्वाम्। अ॒द्य। ऋ॒षे॒ ॥२३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निमद्य होतारमवृणीतायँयजमानः पचन्पक्तीः पचन्पुरोडाशम्बध्नन्निन्द्राय च्छागम् । सूपस्थाऽअद्य देवो वनस्पतिरभवदिन्द्राय च्छागेन । अघत्तम्मेदस्तः प्रति पचताग्रभीदवीवृधत्पुरोडाशेन । त्वामद्यऽऋषे॥ गलितमन्त्रः त्वामद्यऽऋषऽआर्षेयऽऋषीणान्नपादवृणीतायँयजमानो बहुभ्यऽआ सङ्गतेभ्यऽएष मे देवेषु वसु वार्यायक्ष्यत इति ता या देवा देव दानान्यदुस्तान्यस्माऽआ च शास्स्वा च गुरस्वेषितश्च होतरसि भद्रवाच्याय प्रेषितो मानुषः सूक्तवाकाय सूक्ता ब्रूहि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निम्। अद्य। होतारम्। अवृणीत। अयम्। यजमानः। पचन्। पक्तीः। पचन्। पुरोडाशम्। बध्नन्। इन्द्राय। छागम्। सूपस्था इति सुऽउपस्थाः। अद्य। देवः। वनस्पतिः। अभवत्। इन्द्राय। छागेन। अद्यत्। तम्। मेदस्तः। प्रति। पचता। अग्रभीत्। अवीवृधत्। पुरोडाशेन। त्वाम्। अद्य। ऋषे॥२३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 28; मन्त्र » 23
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - हे (ऋषे) मंत्रार्थ जाणणारे विद्वान, (अयम्) वह (यजमानः) यज्ञ करणारा मनुष्य (अद्य) आज (इन्द्राय) ऐश्‍वर्य प्राप्त्यर्थ (पक्तीः) भाज्य पदार्थ (पचन्) व शिजवीत (पुरोडाशम्) हवनासाठी खास तयार केलेला पाक विशेष (शिरा, साखरभात सारखे पदार्थ) (पचन्) शिजवितो वा तयार करतो. तसेच (छागम्) रोग नष्ट करणारी शेली (बध्नन्) बांधून (होतारम्) यज्ञ करण्यात निपूण अशा (अग्निम्) तेजस्वी विद्वानाला (अवृणीत) आमंत्रित करतो (वा त्याला पुरोहित म्हणून निवडतो) तसेच (वनस्पतिः) किरणांचा रक्षक (देवः) प्रकाशमय सूर्यमंडळ (इन्द्राय) ऐश्‍वर्यासाठी (छागेन) छेदन करण्यासाठी (अद्य) यावेळी (अभवत्) प्राप्त होवो. (मेदस्तः) स्विग्ध वा ओलसर (तम्) अशा त्या पदार्थाला होमात टाकल्यानंतर अग्नीने तो पदार्थ खावा आणि स्थान देणारा होऊन (प्रात, अग्रभीत्) ग्रहण करणारा होतो तसेच अग्नी (पुरोडाशेन) होमाकरिता तयार केलेल्या विशेष पदार्थाने (अवीवृधत) आणखी अधिकच वृद्धिगत होतो, तसेच (त्वाम्) हे विद्वान, आपणाला मी (आबला शिष्य) आपणास वृद्धिंगत करतो. आपणही कृपया मला त्याच प्रमाणे प्रगत वा उन्नत करा ॥23॥

    भावार्थ - भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. जसे पाचकगण भाजी आदी पदार्थ चिरून कापून अग्नीपासून भाज्य अन्न कढी आदी पदार्थ शिजवितात, तसा सूर्यही सर्व पदार्थ पिकवितो जसा सूर्य वृष्टीद्वारा सर्व पदार्थांना वाढवितो, तसेच सर्व मनुष्यांचे कर्तव्य आहे की त्यांनी सेवा आदी कार्याद्वारे मंत्रार्थज्ञाता विद्वानांना श्रेष्ठ अधिक विद्या संपन्न बनवावे. ॥23॥

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