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  • यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 24
    ऋषिः - भार्गवो जमदग्निर्ऋषिः देवता - मनुष्यो देवता छन्दः - निचृत त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    उप॒ प्रागा॑त् पर॒मं यत्स॒धस्थ॒मर्वाँ॒२ऽअच्छा॑ पि॒तरं॑ मा॒तरं॑ च। अ॒द्या दे॒वाञ्जुष्ट॑तमो॒ हि ग॒म्या॑ऽअथाशा॑स्ते दा॒शुषे॒ वार्य॑णि॥२४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑। प्र। अ॒गा॒त्। प॒र॒मम्। यत्। स॒धस्थ॒मिति॑ स॒धऽस्थ॑म्। अर्वा॑न्। अच्छ॑। पि॒त॑रम्। मा॒तर॑म्। च॒। अ॒द्य। दे॒वान्। जुष्ट॑तम॒ इति॒ जुष्ट॑ऽतमः। हि। गम्याः। अथ॑। आ। शा॒स्ते॒। दा॒शुषे॑। वार्या॑णि ॥२४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपप्रागात्परमँयत्सधस्थमर्वाँऽअच्छा पितरम्मातरञ्च । अद्या देवान्जुष्टतमो हि गम्याऽअथा शास्ते दाशुषे वार्याणि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उप। प्र। अगात्। परमम्। यत्। सधस्थमिति सधऽस्थम्। अर्वान्। अच्छ। पितरम्। मातरम्। च। अद्य। देवान्। जुष्टतम इति जुष्टऽतमः। हि। गम्याः। अथ। आ। शास्ते। दाशुषे। वार्याणि॥२४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 24
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - हे विद्वान, (यत्) जो (अर्वान्) ज्ञानी मनुष्य, (जुष्टतमः) अनेकांच्या सह उत्तम कार्य करीत (परमम्) श्रेष्ठ (सधस्थम्) सहकार्‍यांसह वा मित्रांसह (पितरम्) पिता (मातरम्) माता (च) आणि (देवान्) विद्वानांची (अद्य) या प्रसंगी वा या जन्मी (आ, शास्ते) इच्छा करतो (मला चांगले मित्र, उत्तम माता-पिता आणि विद्वान शिक्षक मिळावेत, अशी कामना करतो) (तो इच्छित पळ प्राप्त करतो) (अथ) त्यांनतर (दाशूषे) दाता मनुष्य (वार्याणि) भोज्य पदार्थ व अन्य आवश्यक पदार्थ (उप, प्र, अगात्) प्रकर्षत्वाने प्राप्त करतो त्या तशा भाग्यवंत विद्वानाला (हि) च आपणदेखील (अच्छ, गम्याः) प्राप्त व्हा. ॥24॥

    भावार्थ - भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. जे लोक न्यायाने, आणि विनयाने कार्य करीत परोपकार करतात, ते उत्तमोत्तम जन्म करीत असतात. त्यांना उत्तम पदार्थ प्राप्त होतात, पुढील जन्मात आदर्श आईवडिलांच्या पोटी त्यांचा जन्म मिळतो. ते लोक विद्वज्जनांचे सेवक होऊन महान सुख प्राप्त करतात. अशी माणसेच राज्यशासन करण्यात समर्थ होतात. ॥24॥

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