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  • यजुर्वेद - अध्याय 36/ मन्त्र 22
    ऋषिः - दध्यङ्ङाथर्वण ऋषिः देवता - ईश्वरो देवता छन्दः - भुरिगुष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    यतो॑यतः स॒मीह॑से॒ ततो॑ नो॒ऽअभ॑यं कुरु।शं नः॑ कुरु प्र॒जाभ्योऽभ॑यं नः प॒शुभ्यः॑॥२२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यतो॑यत॒ इति॒ यतः॑ऽयतः। स॒मीह॑स॒ इति॑ स॒म्ऽईह॑से। ततः॑। नः॒। अभ॑यम्। कु॒रु॒ ॥ शम्। नः॒। कु॒रु॒। प्र॒जाभ्य॒ इति॑ प्र॒ऽजाभ्यः॑। अभ॑यम्। नः॒। प॒शुभ्य॒ इति॑ प॒शुऽभ्यः॑ ॥२२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यतोयतः समीहसे ततो नोऽअभयङ्कुरु । शन्नः कुरु प्रजाभ्यो भयन्नः पशुभ्यः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यतोयत इति यतःऽयतः। समीहस इति सम्ऽईहसे। ततः। नः। अभयम्। कुरु॥ शम्। नः। कुरु। प्रजाभ्य इति प्रऽजाभ्यः। अभयम्। नः। पशुभ्य इति पशुऽभ्यः॥२२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 36; मन्त्र » 22
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - हे भगवान् ईश्‍वर, आपण आपल्या कृपाकटाक्षाने (यतोयतः) ज्या ज्या ठिकाणी (समीक्षसे) सम्यकप्रकारे पहात आहात, अर्थात जेथे जेथे म्हणजेच सर्वत्र आपण व्याप्त आहात, (तत्) त्या त्या ठिकाणी (नः) आम्हाला (अभयम्) निर्भय (कुरु) करा (आपल्या कृपेने आम्हाला कुठेही भीती वाटू नये. सर्व स्थानें आमच्यासाठी भयरहित असावीत) तसेच (नः) आमच्या (प्रजाभ्यः) प्रजा-संतानादीपासून आणि (नः) आमच्या गौ आदी पशूंपासून आम्हांस (शम्) सुख मिळो. आणि त्या सर्वांसाठी आपण (अभयम्) निर्भय करा. ॥22॥

    भावार्थ - भावार्थ - हे परमेश्‍वर, आपण सर्व पदार्थादी मधे व सर्वत्र व्याप्त आहात. आपणास पार्थना की आम्हाला आणि इतरांना सर्वकाळ सर्वत्र, सर्व प्राण्यांना निर्भय वा भयरहित ठेवा. ॥22॥

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