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  • यजुर्वेद - अध्याय 37/ मन्त्र 3
    ऋषिः - दध्यङ्ङाथर्वण ऋषिः देवता - द्यावापृथिव्यौ देवते छन्दः - ब्राह्मी गायत्री स्वरः - षड्जः
    3

    देवी॑ द्यावापृथिवी म॒खस्य॑ वाम॒द्य शिरो॑ राध्यासं देव॒यज॑ने पृथिव्याः।म॒खाय॑ त्वा म॒खस्य॑ त्वा शी॒र्ष्णे॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    देवी॒ऽइति॒ देवी॑। द्या॒वा॒पृ॒थि॒वी॒ऽइति॑ द्यावापृथिवी। मखस्य॑। वा॒म्। अ॒द्य। शि॒रः॑। रा॒ध्या॒स॒म्। दे॒व॒यज॑न॒ इति॑ देव॒ऽयज॑ने। पृ॒थि॒व्याः ॥ मखाय॑। त्वा॒। म॒खस्य॑। त्वा॒। शी॒र्ष्णे ॥३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवी द्यावापृथिवी मखस्य वामद्य शिरो राध्यासन्देवयजने पृथिव्याः । मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्णे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवीऽइति देवी। द्यावापृथिवीऽइति द्यावापृथिवी। मखस्य। वाम्। अद्य। शिरः। राध्यासम्। देवयजन इति देवऽयजने। पृथिव्याः॥ मखाय। त्वा। मखस्य। त्वा। शीर्ष्णे॥३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 37; मन्त्र » 3
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - हे (देवी) उत्तम गुणवत्ती (द्यावापृथिवी) प्रकाश व भूमीप्रमाणे असलेल्या (कीर्तिमान व सहनशील असलेल्या) अध्यापिका आणि उपदेशिका स्त्रियांनो, (अद्य) यावेळी (पृथिव्याः) पृथ्वीमधे आयोजित (देवयजने) विद्वानांतर्फे आयोजित यज्ञात व यज्ञस्थानात मी (एक श्रेष्ठ उपासक) (वायू) तुम्हा दोघींना (मखस्य) यज्ञाचे (शिरः) उत्तम अंग (यज्ञापासून) प्राप्त होणारे सर्वोच्च लाभ) (राध्यासम्) प्राप्त करून देत आहे. (मखस्य) यज्ञाच्या त्या (शीर्ष्णे) उत्तम लाभाच्या प्राप्तीकरता मी (त्वा) तुला आणि (मखाय) यज्ञासाठी (त्वा) तुला अर्थात दोघींना सम्यकप्रकारे तत्पर करतो (यज्ञरीती सांगत आहे) ॥3॥

    भावार्थ - भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. हे मनुष्यानो जसे या जगात सूर्य आणि पृथ्वी उत्तम अवयव वा शिराप्रमाणे आहेत, त्याप्रमाणे तुम्ही देखील उत्कृष्टपणे वागणूक करा की ज्यायोगे सर्वांच्या संगतीचे कारण हा यज्ञ पूर्ण होईल. ॥3॥

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