ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 100/ मन्त्र 19
ऋषिः - वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेवभयमानसुराधसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
वि॒श्वाहेन्द्रो॑ अधिव॒क्ता नो॑ अ॒स्त्वप॑रिह्वृताः सनुयाम॒ वाज॑म्। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑ति॒: सिन्धु॑: पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒श्वाहा॑ । इन्द्रः॑ । अ॒धि॒ऽव॒क्ता । नः॒ । अ॒स्तु॒ । अप॑रिऽह्वृताः । स॒नु॒या॒म॒ । वाज॑म् । तत् । नः॒ । मि॒त्रः । वरु॑णः । म॒म॒ह॒न्ता॒म् । अदि॑तिः । सिन्धुः॑ । पृ॒थि॒वी । उ॒त । द्यौः ॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वाहेन्द्रो अधिवक्ता नो अस्त्वपरिह्वृताः सनुयाम वाजम्। तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदिति: सिन्धु: पृथिवी उत द्यौः ॥
स्वर रहित पद पाठविश्वाहा। इन्द्रः। अधिऽवक्ता। नः। अस्तु। अपरिऽह्वृताः। सनुयाम। वाजम्। तत्। नः। मित्रः। वरुणः। ममहन्ताम्। अदितिः। सिन्धुः। पृथिवी। उत। द्यौः ॥ १.१००.१९
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 100; मन्त्र » 19
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृशस्तत्सहायेन किं प्राप्नुयामेत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
य इन्द्रो नोऽस्मभ्यं विश्वाहाधिवक्तास्तु तस्मादपरिह्वृता वयं यं वाजं सनुयाम तन्नो मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौर्मामहन्ताम् ॥ १९ ॥
पदार्थः
(विश्वाहा) विश्वानि सर्वाण्यहानि (इन्द्रः) प्रशस्तविद्यैश्वर्य्यो विद्वान् (अधिवक्ता) अधिकं वक्तीति (नः) अस्मभ्यम् (अस्तु) भवतु (अपरिह्वृताः) सर्वतो कुटिला ऋजवो भूत्वा। अपरिह्वृताश्च। अ० ७। २। ३२। इत्यनेन निपातनाच्छन्दसि प्राप्तो ह्रुभावो निषिध्यते। (अनुयाम) दद्याम संभजेम। अत्र पक्षे विकरणव्यत्ययः। (वाजम्) विज्ञानम् (तत्) विज्ञानम् (नः) अस्माकम् (मित्रः) सुहृत् (वरुणः) श्रेष्ठः (मामहन्ताम्) सत्कारेण वर्धयन्ताम् (अदितिः) अन्तरिक्षम् (सिन्धुः) समुद्रो नदी वा (पृथिवी) भूमिः (उत) अपि (द्यौः) सूर्यादिप्रकाशः ॥ १९ ॥
भावार्थः
मनुष्यैर्यो नित्यं विद्याप्रदाताऽस्ति तमृजुभावेन सेवित्वा विद्याः प्राप्य मित्राच्छ्रेष्ठादाकाशान्नदीभ्यो भूमेर्दिवश्चोपकारं गृहीत्वा सर्वेषु मनुष्येषु सत्कारेण भवितव्यम्। नैव कदाचिद्विद्या गोपनीया किन्तु सर्वैरियं प्रसिद्धीकार्य्येति ॥ १९ ॥अत्र सभाद्यध्यक्षेश्वराध्यापकगुणानां वर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोद्ध्यम् ॥इति शततमं सूक्तमेकादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह कैसा है और उसके सहाय से हम लोग क्या पावें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ।
पदार्थ
जो (इन्द्रः) प्रशंसित विद्या और ऐश्वर्य्ययुक्त विद्वान् (नः) हम लोगों के लिये (विश्वाहा) सब दिनों (अधिवक्ता) अधिक-अधिक उपदेश करनेवाला (अस्तु) हो, उससे (अपरिह्वृताः) सब प्रकार कुटिलता को छोड़े हुए हमलोग जिस (वाजम्) विशेष ज्ञान को (सनुयाम) दूसरे को देवें और आप सेवन करे (नः) हमारे (तत्) उस विज्ञान को (मित्रः) मित्र (वरुणः) श्रेष्ठ सज्जन (अदितिः) अन्तरिक्ष (सिन्धुः) समुद्र नदी (पृथिवी) भूमि (उत) और (द्यौः) सूर्य्य आदि प्रकाशयुक्त लोकों का प्रकाश (मामहन्ताम्) मान से बढ़ावें ॥ १९ ॥
भावार्थ
मनुष्यों को उचित है कि जो नित्य विद्या का देनेवाला है, उसकी सीधेपन से सेवा करके विद्याओं को पाकर मित्र, श्रेष्ठ, आकाश, नदियों, भूमि और सूर्य्य आदि लोकों से उपकारों को ग्रहण करके सब मनुष्यों में सत्कार के साथ होना चाहिये, कभी विद्या छिपानी नहीं चाहिये किन्तु सबको यह प्रकट करनी चाहिये ॥ १९ ॥इस सूक्त में सभा आदि के अधिपति, ईश्वर और पढ़ानेवालों के गुणों के वर्णन से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ एकता समझनी चाहिये ॥यह १०० सौवाँ सूक्त और ११ ग्यारहवाँ वर्ग पूरा हुआ ॥
विषय
शक्ति व सरलता
पदार्थ
१. (इन्द्रः) = ज्ञानरूप परमैश्वर्यवाला प्रभु (विश्वाहा) = सदा (नः) = हमारा अधिवक्ता (अस्तु) = अधिष्ठातृरूपेण उपदेष्टा हो । प्रभु हमारे हृदयों में स्थित हैं ही । जिस समय हम इन हृदयों को निर्मल कर लेते हैं , उस समय उस अन्तः स्थित प्रभु की प्रेरणा हमें सदा होती रहती है ।
२. इस उपदेश को सुनकर (अपरिह्वृताः) = कुटिलता से रहित हुए - हुए हम (वाजम्) = शक्ति को (सनुयाम) = प्राप्त करें । हम शक्तिशाली हों , परन्तु उस शक्ति के साथ हममें कुटिलता न हो । वस्तुतः जीवन का सौन्दर्य इसी में है कि शक्ति हो और शक्ति के साथ सरलता हो ।
३. (नः) = हमारे (तत्) = उस “शक्ति और सरलता” के संकल्प को (मित्रः) = मित्र , (वरुणः) = वरुण , (अदितिः) = स्वास्थ्य , (सिन्धुः) = शरीरस्थ रेतः कण , (पृथिवी) = शरीर (उत) = और (द्यौः) = मस्तिष्क - ये सब (मामहन्ताम्) = आदृत करें । स्नेह की भावना , निर्द्वेषता , स्वास्थ्य , रेतः कण , दृढ़ शरीर व दीप्त मस्तिष्क - ये सब हमें शक्तिसम्पन्न व सरल बनानेवाले हों ।
भावार्थ
भावार्थ - हम प्रभु के उपदेश को सुनें और जीवन में शक्तिसम्पन्न व सरल बनें ।
विशेष / सूचना
विशेष - “वे प्रभु इस ब्रह्माण्ड के शक्तिशाली सम्राट् हैं” - इन शब्दों से सूक्त का आरम्भ है [१] और “शक्तिशाली व सरल” बनने की प्रार्थना के साथ सूक्त की समाप्ति है [१९] एवं आदि व अन्त शक्ति के महत्व को सुव्यक्त कर रहे हैं । शक्तिशाली प्रभु की मित्रता के लिए प्रार्थना से अग्रिम सूक्त का आरम्भ होता है -
विषय
उसके कर्तव्य ।
भावार्थ
( विश्वाहा ) सब दिनों, ( इन्द्रः ) विद्याओं को साक्षात् देखनेहारा और ऐश्वर्यवान्, शत्रुओं का नाशक, विद्वान् आचार्य और सभाध्यक्ष, ( नः ) हम पर ( अधिवक्ता ) अध्यक्ष होकर उपदेश करने और आदेश देनेवाला ( अस्तु ) हो। हम लोग ( अपरिहृताः ) सब प्रकार से कुटिल विचारों और चेष्टाओं से रहित होकर सौम्यभाव से ( वाजम् ) उत्तम अन्न, ऐश्वर्य, धन आदि ( सनुयाम ) प्रदान करें । और उससे उत्तम ज्ञान और ऐश्वर्य प्राप्त करें । ( तत् ) उसको ( मित्रः वरुणः अदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः मामहन्ताम् ) मित्रगण, श्रेष्ठजन, माता, समुद्र, भूमि और आकाश ये सब बढ़ावें । इत्येकादशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेव भयमानसुराघस ऋषयः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५ पङ्क्तिः ॥ २, १३, १७ स्वराट् पङ्क्तिः । ३, ४, ११, १८ विराट् त्रिष्टुप् । ६, १०, १६ भुरिक पङ्क्तिः । ७,८,९,१२,१४, १५, १९ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकोन विंशत्यृचसूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जो सदैव विद्या देणारा आहे, त्याची सहजतेने सेवा करून विद्या प्राप्त केली पाहिजे. मित्र, श्रेष्ठ लोक, आकाश, नद्या, भूमी व सूर्य इत्यादींचा माणसांनी उपयोग करून घेतला पाहिजे. सर्व माणसांत (विद्वानांचा) सत्कार झाला पाहिजे. कधी विद्या लपविता कामा नये तर प्रकट केली पाहिजे. ॥ १९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
May Indra, lord of power, justice and knowledge be the supreme speaker and adviser for us. Let us too, simple, straight and honest in thought, action and material support, cooperate with him. And we pray: May Mitra, the sun and human powers of friendship, Varuna, powers of justice worthiest of choice, the sky, the seas, the earth and the heavens bless and promote this union of ours with success.$May this union last for all time!
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Indra and what can be gained by his help is taught in the 19th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
May Indra (a great scholar endowed with the wealth of good knowledge) be the preacher of truth to us for ever. May we acquire and diffuse knowledge to all, being free from crookedness and many friends, noble persons, earth, firmament, river and ocean, the light of sun etc. help us in advancement.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(इन्द्रः) प्रशस्तविद्धैश्वर्यो विद्वान् A learned person endowed with the wealth of good knowledge. (अपरिह्वृताः) सर्वोअकुटिलाः ऋजवः (ह्खृ-कौटिल्ये) = Upright, free from crookedness. (अदितिः) अन्तरिक्षम् = Firmament. अदितिद्यौरदितिरन्तरिक्षम् (ऋ० १.८६,१० )
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should serve uprightly a learned person who is giver of knowledge and having acquired knowledge, they should take benefit from noble friends, sky, rivers, earth and the light of the sun and should be respectful to all good people. None should conceal knowledge, but it should be manifested by all.
Translator's Notes
This hymn is connected with the previous hymn, as there is mention of the attributes of the President of the Assembly, teacher and God as in that hymn. Here ends the hundredth hymn of the first Mandala of the Rigveda.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal