ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 102/ मन्त्र 1
इ॒मां ते॒ धियं॒ प्र भ॑रे म॒हो म॒हीम॒स्य स्तो॒त्रे धि॒षणा॒ यत्त॑ आन॒जे। तमु॑त्स॒वे च॑ प्रस॒वे च॑ सास॒हिमिन्द्रं॑ दे॒वास॒: शव॑सामद॒न्ननु॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒माम् । ते॒ । धिय॑म् । प्र । भ॒रे॒ । म॒हः । म॒हीम् । अ॒स्य । स्तो॒त्रे । धि॒षणा॑ । यत् । ते॒ । आ॒न॒जे । तम् । उ॒त्ऽस॒वे । च॒ । प्र॒ऽस॒वे । च॒ । स॒स॒हिम् । इन्द्र॑म् । दे॒वासः॑ । शव॑सा । अ॒म॒द॒न् । अनु॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इमां ते धियं प्र भरे महो महीमस्य स्तोत्रे धिषणा यत्त आनजे। तमुत्सवे च प्रसवे च सासहिमिन्द्रं देवास: शवसामदन्ननु ॥
स्वर रहित पद पाठइमाम्। ते। धियम्। प्र। भरे। महः। महीम्। अस्य। स्तोत्रे। धिषणा। यत्। ते। आनजे। तम्। उत्ऽसवे। च। प्रऽसवे। च। ससहिम्। इन्द्रम्। देवासः। शवसा। अमदन्। अनु ॥ १.१०२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 102; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ शालाद्यध्यक्षेण किं किं स्वीकृत्य कथं भवितव्यमित्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे सर्वविद्याप्रद शालाद्यधिपतो यद्या ते तवास्य धिषणा सर्वैरानजे तस्य ते तव यामिमां महोमहीं धियमहं स्तोत्रे प्रभरे। उत्सवेऽनुत्सवे च प्रसवे मरणे च यं त्वां सासहिमिन्द्रं देवासः शवसाऽन्वमदन् तं त्वामहमप्यनुमदेयम् ॥ १ ॥
पदार्थः
(इमाम्) प्रत्यक्षाम् (ते) तव विद्याशालाधिपतेः (धियम्) प्रज्ञां कर्म वा (प्र) (भरे) धरे (महः) महतीम् (महीम्) पूज्यतमाम् (अस्य) (स्तोत्रे) स्तोतव्ये व्यवहारे (धिषणा) विद्यासुशिक्षिता वाक् (यत्) या यस्य वा (ते) तव (आनजे) सर्वैः काम्यते प्रकट्यते विज्ञायते। अत्राञ्जूधातोः कर्मणि लिट्। (तम्) (उत्सवे) हर्षनिमित्ते व्यवहारे (च) दुःखनिमित्ते वा (प्रसवे) उत्पत्तौ (च) मरणे वा (सासहिम्) अतिषोढारम् (इन्द्रम्) विद्यैश्वर्यप्रापकम् (देवासः) विद्वांसः (शवसा) बलेन (अमदन्) हृष्येयुर्हर्षयेयुर्वा (अनु) ॥ १ ॥
भावार्थः
सर्वैर्मनुष्यैः सर्वेषां धार्मिकाणां विदुषां विद्यां प्रज्ञाः कर्माणि च धृत्वा स्तुत्या च व्यवहाराः सेवनीयाः। येभ्यो विद्यासुखे प्राप्येते ते सर्वान् सुखदुःखव्यवहारयोर्मध्ये सत्कृत्यैव सर्वदानन्दयेयुरिति ॥ १ ॥
हिन्दी (2)
विषय
अब शाला आदि के अध्यक्ष को क्या-क्या स्वीकार कर कैसा होना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे सर्व विद्या देनेवाले शाला आदि के अधिपति ! (यत्) जो (ते) (अस्य) इन आपकी (धिषणा) विद्या और उत्तम शिक्षा की हुई वाणी (आनजे) सब लोगों ने चाही प्रकट की और समझी है, जिन (ते) आपके (इमाम्) इस (महः) बड़ी (महीम्) सत्कार करने योग्य (धियम्) बुद्धि को (स्तोत्रे) प्रशंसनीय व्यवहार में (प्रभरे) अतीव धरे अर्थात् स्वीकार करे वा (उत्सवे) उत्सव (च) और साधारण काम में वा (प्रसवे) पुत्र आदि के उत्पन्न होने और (च) गमी होने में जिन (सासहिम्) अति क्षमापन करने (इन्द्रम्) विद्या और ऐश्वर्य्य की प्राप्ति करानेवाले आपको (देवासः) विद्वान् जन (शवसा) बल से (अनु, अमदन्) आनन्द दिलाते वा आनन्दित होते हैं (तम्) उन आपको मैं भी अनुमोदित करूँ ॥ १ ॥
भावार्थ
सब मनुष्यों को चाहिये कि सब धार्मिक विद्वानों की विद्या, बुद्धियों और कामों को धारण और उनकी स्तुति कर उत्तम-उत्तम व्यवहारों का सेवन करें, जिनसे विद्या और सुख मिलते हैं, वे विद्वान् जन सबको सुख और दुःख के व्यवहारों में सत्कारयुक्त करके ही सदा आनन्दित करावें ॥ १ ॥
विषय
बुद्धि व तेज का भरण
पदार्थ
१. हे प्रभो ! (इमाम्) = इस ते आपकी (महीम्) = आदरणीय (धियम्) = बुद्धि को (प्रभरे) = खूब ही धारण व पुष्ट करता हूँ । प्रभु ने बुद्धि दी है । हमारा यह कर्तव्य है कि हम इस बुद्धि का ठीक से भरण करें । यह बुद्धि ही हमें जीवन - यात्रा में मार्ग - दर्शन कराती है । मैं अपने में (महः) = तेजस्विता को भी (प्रभरे) = प्रकर्षेण भरता हँर । तेजस्विता से ही तो मार्ग का आक्रमण सम्भव होगा । बुद्धि मार्ग दिखाएगी और तेजस्विता उस मार्ग पर चलने के योग्य बनाएगी ।
२. मैं आपकी बुद्धि का भरण इसलिए करता हूँ (यत्) = कि (अस्य ते) = इन आपकी (धिषणा) = बुद्धि (स्तोत्रे) = स्तोता के लिए (आनजे) = [अञ्ज् to decorate] जीवन को अलंकृत करनेवाली होती है । बुद्धि के द्वारा जीवन सद्गुणों से मण्डित हो जाता है , अन्ततः उस बुद्धि के द्वारा ही प्रभु - दर्शन होता है ।
३. (तम्) = उस (सासहिम्) = सब शत्रुओं का पराभव करनेवाले (इन्द्रम्) = सर्वशक्तिमान् प्रभु को (उत्सवे) = प्रसन्नता के अवसर पर (च) = तथा (प्रसवे च) = निर्माण के कार्यों के अवसर पर भी (देवाः) = देववृत्ति के लोग (शवसा) = क्रियाशीलता के द्वारा अनु (अमदन्) = क्रियाशीलता के अनुपात में ही प्रीणित करते हैं । हमारे कर्म ही प्रभु को प्रीणित करते हैं । आलसी मनुष्य कभी प्रभु का प्रिय नहीं होता । “न ऋते भ्रान्तस्य सख्याय देवाः” - देव श्रमशील के ही सखा होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - हम अपने जीवन में बुद्धि तेज व कर्मशीलता का भरण करें । यही सच्ची प्रभुपूजा है ।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात शाला इत्यादीचा अधिपती ईश्वर, अध्यापक व सेनापतीच्या गुणांच्या वर्णनाने या सूक्ताच्या अर्थाचे पूर्वसूक्तार्थाबरोबर साम्य आहे, हे जाणले पाहिजे. ॥
भावार्थ
सर्व माणसांनी सर्व धार्मिक विद्वानांची विद्या, बुद्धी व कार्ये धारण करून त्यांची स्तुती करून उत्तम उत्तम व्यवहारांचे ग्रहण करावे. ज्यांच्याकडून विद्या व सुख मिळते त्या विद्वान लोकांनी सर्वांना सुख व दुःखाच्या व्यवहारात सत्कार्य करून सदैव आनंदित करावे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
I hold on to this great and adorable knowledge and wisdom of yours, Indra, which, loud and bold, is revealed in this divine song of yours in praise. That mighty lord Indra of valour and courage, the noblest leaders and teachers of humanity celebrate with all their might and wisdom in all yajnic projects for the expansion and elevation of human life and culture. In consequence, they too enjoy themselves and feel blest.
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