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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 105 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 105/ मन्त्र 18
    ऋषिः - आप्त्यस्त्रित आङ्गिरसः कुत्सो वा देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अ॒रु॒णो मा॑ स॒कृद्वृक॑: प॒था यन्तं॑ द॒दर्श॒ हि। उज्जि॑हीते नि॒चाय्या॒ तष्टे॑व पृष्ट्याम॒यी वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒रु॒णः । मा॒ । स॒कृत् । वृकः॑ । प॒था । यन्त॑म् । द॒दर्श॑ । हि । उत् । जि॒ही॒ते॒ । नि॒ऽचाय्य॑ । तष्टा॑ऽइव । पृ॒ष्टि॒ऽआ॒म॒यी । वि॒त्तम् । मे॒ । अ॒स्य । रो॒द॒सी॒ इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अरुणो मा सकृद्वृक: पथा यन्तं ददर्श हि। उज्जिहीते निचाय्या तष्टेव पृष्ट्यामयी वित्तं मे अस्य रोदसी ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अरुणः। मा। सकृत्। वृकः। पथा। यन्तम्। ददर्श। हि। उत्। जिहीते। निऽचाय्य। तष्टाऽइव। पृष्टिऽआमयी। वित्तम्। मे। अस्य। रोदसी इति ॥ १.१०५.१८

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 105; मन्त्र » 18
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 23; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    योऽरुणो वृको मासकृत् पथा यन्तं ददर्श स निचाय्य पृष्ट्यामयी तष्टे वोज्जिहीते हि। अन्यत्पूर्ववत् ॥ १८ ॥

    पदार्थः

    (अरुणः) य ऋच्छति सर्वा विद्या स आरोचको वा। अत्र ऋधातोरौणादिक उनच् प्रत्ययः। (मा, सकृत्) मामेकवारम्। अथवैकपद्यम्, मासानां चार्द्धमासादीनां च कर्त्ता। अत्र मासकृदित्येकं पदं निरुक्तकारप्रामाण्यादनुमीयते। अथ शाकल्यस्तु (मा, सकृत्) इति पदद्वयमभिजानीते। (वृकः) यथा चन्द्रमाः शान्तगुणस्तथा (पथा) उत्तममार्गेण (यन्तम्) गच्छन्तं प्राप्नुवन्तं वा। इण् धातोः शतृ प्रत्ययः। (ददर्श) पश्यति (हि) खलु (उत्) उत्कृष्टे (जिहीते) विज्ञापयति (निचाय्य) समाधाय। अत्र निशामनार्थस्य चायृ धातोः प्रयोगः। अन्येषामपीति दीर्घश्च। (तष्टेव) यथा तक्षकः शिल्पी शिल्पविद्याव्यवहारान् विज्ञापयति तथा (पृष्ट्यामयी) पृष्टौ पृष्ठ आमयः क्लेशरूपो रोगो विद्यते यस्य सः। अन्यत्पूर्ववत् ॥ १८ ॥अत्र निरुक्तम्। वृकश्चन्द्रमा भवति विवृतज्योतिष्को वा, विकृतज्योतिष्को वा, विक्रान्तज्योतिष्को वा। अरुण आरोचनो मासकृन्मासानां चार्द्धमासानां च कर्त्ता भवति। चन्द्रमा वृकः पथा यन्तं ददर्श नक्षत्रगणमभिजिहीते निचाय्य येन येन योक्ष्यमाणो भवति चन्द्रमाः। तक्ष्णुवन्निव पृष्ठरोगी। जानीतं मेऽस्य द्यावापृथिव्याविति। निरु० ५। २०-२१। ॥ १८ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यो विद्वान् चन्द्रवच्छान्तस्वभावं सूर्य्यवत् विद्याप्रकाशकरणं स्वीकृत्य विश्वस्मिन् सर्वा विद्याः प्रसारयति स एवाप्तोऽस्ति ॥ १८ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जो (अरुणः) समस्त विद्याओं को प्राप्त होता वा प्रकाशित करता (वृकः) शान्ति आदि गुणयुक्त चन्द्रमा के समान विद्वान् (मा, सकृत्) मुझको एक बार (पथा, यन्तम्) अच्छे मार्ग से चलते हुए को (ददर्श) देखता वा उक्त गुणयुक्त महीना आदि काल विभागों को करनेवाले चन्द्रमा के तुल्य विद्वान् अच्छे मार्ग से चलते हुए को देखता है वह (निचाय्य) यथायोग्य समाधान देकर (पृष्ट्यामयी) पीठ में क्लेशरूप रोगवान् (तष्टेव) शिल्पी विद्वान् जैसे शिल्प व्यवहारों को समझाता वैसे (उज्जिहीते) उत्तमता से समझाता (हि) ही है। शेष मन्त्रार्थ प्रथम मन्त्र के तुल्य जानना चाहिये ॥ १८ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो विद्वान् चन्द्रमा के तुल्य शान्तस्वभाव और सूर्य्य के तुल्य विद्या के प्रकाश करने को स्वीकार करके संसार में समस्त विद्याओं को फैलाता है, वही आप्त अर्थात् अतिउत्तम विद्वान् है ॥ १८ ॥

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    विषय

    विषयों से ऊपर

    पदार्थ

    १. (अरुणः) = वह आरोचमान , (मासकृत्) = महीने आदि के रूप में प्रकट होनेवाले काल को करनेवाला (वृकः) = [विवृतज्योतिष्कः] सृष्टि के आरम्भ में वेदज्ञान को विवृत - प्रकट करनेवाला प्रभु (पथा यन्तम्) = मार्ग से चलनेवाले को (हि) = निश्चय से (ददर्श) = देखता है - उसका ध्यान रखता है । मार्ग पर चलनेवाला व्यक्ति प्रभु से रक्षणीय होता ही है । 

    २. (निचाय्या) = तत्त्वज्ञान के द्वारा संसार के तत्त्व को निश्चित करके , संसार के ठीक रूप को जानकर यह तत्त्वज्ञानी (उज्जहीते) = इस संसार से ऊपर उठता है [उत् - out] | अब वह प्रकृति के इन विषयों में फँसता नहीं । उसी प्रकार इनसे ऊपर उठता है (इव) = जैसे कि (पृष्ठ्यामयी) = पीठ में दर्द अनुभव करनेवाला (तष्टा) = बढ़ई ऊपर की ओर मुखवाला होता है । पीठ का दर्द उसे झुके रहने से रोकता है और उसे सीधा ऊपर खड़ा होने के लिए प्रेरित करता है । इसी प्रकार विषयों से पीड़ा अनुभव करनेवाला यह व्यक्ति विषयों से ऊपर उठता है और ठीक मार्ग पर चलनेवाला होकर प्रभु का रक्षणीय होता है । प्रभु कहते हैं कि (मे) = मेरी (अस्य) = इस बात को (रोदसी वित्तम्) = द्यावापृथिवी समझ लें । सब मनुष्य इस बात को जान लें कि मार्ग पर चलनेवाला ही कल्याणभागी होता है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - मार्ग पर चलनेवाला प्रभु से रक्षणीय और कल्याणभागी होता है । 
     

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    विषय

    वृक और तक्षा के दृष्टान्त से चन्द्र विज्ञान । गुरु शिष्य के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    ( अरुणः मासकृत् वृकः पथा यन्तं ददर्श ) जिस प्रकार लाल रंग का मांसखोर वाघ मार्ग से जाते पुरुष को देखे और (पृष्ट्यामयी तष्टाइव निचाय्य उत् जिहीते) पीठ में थकान अनुभव करने वाले बढ़ई के समान दब करके उस पर जा पड़ता है और जिस प्रकार ( मासकृत् ) मासों को विभाग करने वाला ( अरुणः ) आकाश मार्ग से जाने वाला ( वृकः ) चन्द्र (पथायन्तं ) विशाल आकशस्थ क्रान्ति मार्ग से जाते हुए सूर्य को ( ददर्श हि ) देखता है । ( तष्टा इव पृष्ट्यामयी ) बढ़ई जिस प्रकार झुक कर काम करता करता २ पीठ में पीड़ा अनुभव करने लगता है और वह ( निचाय्य इत् जिहीति) वार वार बैठ बैठ कर पुनः उठता है उसी प्रकार चन्द्र भी ( पृष्ट्यामयी ) चार चार कलाकार या धनुषाकार कुबड़े के समान हो हो कर (निचाय्य) और आमावास्या काल में लुप्त २ होकर वार वार ( उत् जिहीते ) उदित होता है । ( ३ ) ( अरुणः ) तेजस्वी, समस्त विद्याओं को प्राप्त करने वाला, शिष्य जन ( मासकृत् ) ज्ञानों का संग्रह करता हुआ, (वृकः) सूर्य या चन्द्र के समान तेज, ज्ञानोपदेश, शील, सदाचार आदि को अपने में धारण करने हारा होकर ( पथा यन्तम् ) सन्मार्ग से जाते हुए अपने से बड़े गुरु आदि को ( हि ) अवश्य ( ददर्श ) देखे और उसका अनुकरण करे । ( पृष्ट्यामयी तष्टा इव ) पीठ में पीड़ा को अनुभव करने वाला बढ़ई जैसे वार वार उठता है उसी प्रकार शिष्य जन भी ( पृष्टि-आमयी ) वार वार पूछने या प्रश्न करने के कार्य में खूब आनन्द लेने वाला, खूब प्रश्नाभ्यासी होकर ( निचाय्य ) समस्त संदेहों को समाधान कर कर के और गुरु के उपदेशों को सुन सुन कर और गुरु की वार वार पूजा सत्कार और विनय कर कर के ( उत् जिहीते ) ऊपर उठे, उन्नत पद को प्राप्त करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-९ आप्त्यस्त्रित ऋषिः आंङ्गिरसः कुत्सा वा ॥ विश्वे देवा देवता ॥ छन्दः- १, २,१६, १७ निचृतपङ्क्तिः । ३, ४, ६, ९, १५, १८ विराट्पंक्तिः। ८, १० स्वराट् पंक्तिः । ११, १४ पंक्तिः । ५ निचृद्बृहती। ७ भुरिग्बृहती । १३ महाबृहती । १६ निचृत्त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो विद्वान चंद्राप्रमाणे शांत स्वभाव व सूर्याप्रमाणे विद्येचा प्रकाश करण्याचे ठरवितो व संपूर्ण जगात संपूर्ण विद्येचा फैलाव करतो तोच आप्त अर्थात् अति उत्तम विद्वान असतो. ॥ १८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The Lord of golden majesty, creator and measurer of the months of time, giver of vision and bliss like the moon, watches the wayfarer going on the path of life created for humanity. And the person so observed, even a hunchback suffering the worst pains, is reshaped into form and, thanking the Lord, leaps and bounds on way to freedom in a state of perfect health. May the heaven and earth know that path and reveal the vision divine for me.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is he is taught further in the 18th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    A teacher who is a great scholar and is of peaceful and calm nature like the bright moon that is the maker of months and days etc. sees me going by the right path. He hears and clears all my doubts and gives me instruction like a carpenter who although suffering from backache, instructs his apprentices regarding the arts and industries.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अरुणः) यः ऋच्छति सर्वाविद्याः सः आरोचकोवा = A learned person who attains the knowledge of all sciences or bright in the case of the moon. (वृकः) यथा चन्द्रमा: शीतगुणस्तथा A = Men of peaceful nature like the moon. (जिहीते) विज्ञापयति = Teaches or instructs. वृकश्चन्द्रमाभवति विवृतज्योतिष्को वा विकृतज्योतिष्को वा विक्रान्तज्योतिष्कोवा-निरुक्ते ५.२० । अरुण: रोचन: = Bright.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    That Scholar is called an Apt [an ideal truthful person] who having accepted the peaceful disposition of the moon and the giving of the light of wisdom or knowledge spreads it through out the world.

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