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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 106 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 106/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    इन्द्रं॑ मि॒त्रं वरु॑णम॒ग्निमू॒तये॒ मारु॑तं॒ शर्धो॒ अदि॑तिं हवामहे। रथं॒ न दु॒र्गाद्व॑सवः सुदानवो॒ विश्व॑स्मान्नो॒ अंह॑सो॒ निष्पि॑पर्तन ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑म् । मि॒त्रम् । वरु॑णम् । अ॒ग्निम् । ऊ॒तये॑ । मारु॑तम् । शर्धः॑ । अदि॑तिम् । ह॒वा॒म॒हे॒ । रथ॑म् । न । दुः॒ऽगात् । व॒स॒वः॒ । सु॒ऽदा॒नवः॒ । विश्व॑स्मात् । नः॒ । अंह॑सः । निः । पि॒प॒र्त॒न॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमूतये मारुतं शर्धो अदितिं हवामहे। रथं न दुर्गाद्वसवः सुदानवो विश्वस्मान्नो अंहसो निष्पिपर्तन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रम्। मित्रम्। वरुणम्। अग्निम्। ऊतये। मारुतम्। शर्धः। अदितिम्। हवामहे। रथम्। न। दुःऽगात्। वसवः। सुऽदानवः। विश्वस्मात्। नः। अंहसः। निः। पिपर्तन ॥ १.१०६.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 106; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विश्वस्थानां देवानां गुणकर्माण्युपदिश्यन्ते ।

    अन्वयः

    हे सुदानवो वसवो विद्वांसो यूयं रथं न दुर्गान्नोऽस्मान् विश्वस्मादंहसो निष्पिपर्तन वयमूतय इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमदितिं मारुतं शर्द्धश्च हवामहे ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (इन्द्रम्) विद्युतं परमैश्वर्यवन्तं सभाध्यक्षं वा (मित्रम्) सर्वप्राणं सर्वसुहृदं वा (वरुणम्) क्रियाहेतुमुदानं वरगुणयुक्तं विद्वांसं वा (अग्निम्) सूर्यादिरूपं ज्ञानवन्तं वा (ऊतये) रक्षणाद्यर्थाय (मारुतम्) मरुतां वायूनां मनुष्याणामिदं वा (शर्द्धः) बलम् (अदितिम्) मातरं पितरं पुत्रं जातं सकलं जगत् तत्कारणं जनित्वं वा (हवामहे) कार्यसिद्ध्यर्थं गृह्णीमः स्वीकुर्मः (रथम्) विमानादिकं यानम् (न) इव (दुर्गात्) कठिनाद्भूजलान्तरिक्षस्थमार्गात् (वसवः) विद्यादिशुभगुणेषु ये वसन्ति तत्सम्बुद्धौ (सुदानवः) शोभना दानवो दानानि येषां तत्सम्बुद्धौ (विश्वस्मात्) अखिलात् (नः) अस्मान् (अंहसः) पापाचरणात् तत्फलाद्दुःखाद्वा (निः) नितराम् (पिपर्तन) पालयन्तु ॥ १ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा मनुष्याः सम्यङ्निष्पादितेन विमानादियानेनातिकठिनेषु मार्गेष्वपि सुखेन गमनागमने कृत्वा कार्याणि संसाध्य सर्वस्माद्दारिद्र्यादिदुःखान्मुक्त्वा जीवन्ति तथैवेश्वरसृष्टिस्थान् पृथिव्यादिपदार्थान् विदुषो वा विदित्वोपकृत्य संसेव्यातुलं सुखं प्राप्तुं शक्नुवन्ति ॥ १ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब एकसौ छः वें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में संसार में ठहरनेवाले विद्वानों के गुण और कामों का वर्णन किया है ।

    पदार्थ

    (सुदानवः) जिनके उत्तम-उत्तम दान आदि काम वा (वसवः) जो विद्यादि शुभगुणों में वस रहे हों वे हे विद्वानो ! तुम लोग (रथम्) विमान आदि यान को (न) जैसे (दुर्गात्) भूमि, जल वा अन्तरिक्ष के कठिन मार्ग से बचा लाते हो वैसे (नः) हम लोगों को (विश्वस्मात्) समस्त (अंहसः) पाप के आचरण से (निष्पिपर्तन) बचाओ, हम लोग (ऊतये) रक्षा आदि प्रयोजन के लिये (इन्द्रम्) बिजुली वा परम ऐश्वर्य्यवाले सभाध्यक्ष (मित्रम्) सबके प्राणरूपी पवन वा सर्वमित्र (वरुणम्) काम करानेवाले उदान वायु वा श्रेष्ठगुणयुक्त विद्वान् (अग्निम्) सूर्य्य आदि रूप अग्नि वा ज्ञानवान् जन (अदितिम्) माता, पिता, पुत्र उत्पन्न हुए समस्त जगत् के कारण वा जगत् की उत्पत्ति (मारुतम्) पवनों वा मनुष्यों के समूह और (शर्द्धः) बलको (हवामहे) अपने कार्य की सिद्धि के लिये स्वीकार करते हैं ॥ १ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे मनुष्य अच्छी प्रकार सिद्ध किये हुए विमान आदि यान से अति कठिन मार्गों में भी सुख से जाना-आना करके कामों को सिद्धकर समस्त दरिद्रता आदि दुःख से छूटते हैं, वैसे ही ईश्वर की सृष्टि के पृथिवी आदि पदार्थों वा विद्वानों को जान उपकार में लाकर उनका अच्छे प्रकार सेवनकर बहुत सुख को प्राप्त हो सकते हैं ॥ १ ॥

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    विषय

    पापों से पार

    पदार्थ

    १. हम (ऊतये) = अपने रक्षण के लिए (इन्द्रम्) = इन्द्र को (मित्रम्) = मित्र को (वरुणम्) = वरुण को (अग्निम्) = अग्नि को (मारुतं शर्धः) = मरुतों के बल को तथा (अदितिम्) = अदिति को (हवामहे) = पुकारते हैं । ''इन्द्र'' जितेन्द्रियता का प्रतीक है । इन्द्रियों का अधिष्ठाता ही इन्द्र है । ''मित्र'' स्नेह का देवता है , ''वरुण’ निर्द्वेषता का । ''अग्नि'' अग्रणी है , यह उन्नति - पथ पर आगे बढ़ने का संकेत कर रहा है । ''अदिति'' स्वास्थ्य का सूचक है । इस प्रकार 'जितेन्द्रियता , स्नेह , अद्वेष , उन्नति , प्राणशक्ति व स्वास्थ्य' - ये सब गुण हमारा रक्षण करनेवाले होते हैं । २. हे (सुदानवः) = उत्तमता से बुराइयों का खण्डन करनेवाले [दाप् लवने] , (वसवः) = उत्तम निवासवाले ज्ञानी पुरुष (नः) = हमें (विश्वस्मात् अंहसः) = सब पापों से (निष्पिपर्तन) = पार करनेवाले हों । धार्मिक ज्ञानियों का सम्पर्क हमें पापों से ऊपर उठाए । ये वसु हमें उसी प्रकार पापों से पार करें (न) = जैसे कि उत्तम सारथि (रथम्) = रथ को (दुर्गात्) = दुर्गम मार्ग से पार करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - जितेन्द्रियता आदि वृत्तियाँ ही हमारा रक्षण करेंगी और धार्मिक ज्ञानियों का सम्पर्क हमें पापों से बचाएगा ।

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    विषय

    ऐश्वर्य और ज्ञान के दानी धनाढ्यों और विद्वानों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हम लोग ( इन्द्रं ) ऐश्वर्यवान् राजा, उपदेश प्रद आचार्य, विद्युत्, सूर्य ( मित्रं ) मरण भय से बचाने वाले प्राण, मित्रजन ( वरुणम् ) सर्वश्रेष्ठ, दुःखों के वारक, तथा समुद्र ( अग्निम् ) अग्नि, विद्युत् आदि तत्वज्ञानी, ज्ञानप्रकाशक विद्वान् तथा अग्रणी नायक जन और ( मारुतं शर्धः ) विद्वानों, वीरभटों तथा अन्यान्य वायुओं और प्राणों के ( शर्धः ) बल, शत्रुघातक सैन्य को ( अदितिम् ) पिता, माता, आचार्य तथा मूल उत्पादक कारण, शत्रुघातक सैन्य, तथा परब्रह्म आदि अन्य अखण्ड शक्ति वाले तत्वों और पूज्य पुरुषों को ( ऊतये ) अपनी रक्षा और ज्ञान प्राप्ति के लिये ( हवामहे ) स्वीकार करें। और ( सुदानवः ) उत्तम दानशील या रक्षाकारी, पुरुष जिस प्रकार ( दुर्गात् रथं न ) दुर्ग, अर्थात् विषम, स्थानों से रथ का बचा ले जाते हैं उसी प्रकार ( वसवः ) प्रजाओं को सुख से बसाने वाले और विद्यादि उत्तम गुणों में रहने वाले पुरुष ( नः ) हमें ( विश्वस्मात् ) सब प्रकार के ( अंहसः ) पाप से ( निः पिपर्त्तन ) सब प्रकार से पालन करें, बचावें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–७ कुत्स ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवता ॥ छन्दः-१-६ जगती। ७ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ स्वरः-१-६ निषादः । ७ धैवतः ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात संपूर्ण विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन आहे. त्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशी माणसे चांगल्या प्रकारे सिद्ध केलेले विमान इत्यादी यानाने अति कठिण मार्गातही सुखाने जाणे-येणे करतात व काम सिद्ध करतात आणि संपूर्ण दारिद्र्य इत्यादी दुःखांपासून दूर होतात तसेच ईश्वरच्या सृष्टीतील पृथ्वी इत्यादी पदार्थांना किंवा विद्वानांना जाणून त्यांचा उपयोग करून घेऊन त्यांचे चांगल्या प्रकारे ग्रहण करून पुष्कळ सुख प्राप्त करता येऊ शकते. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    For energy, power and protection, we invoke Indra, lord of power and natural energy, Mitra, pranic energy and universal friend, Varuna, noble scholar and power of will, Agni, fire, solar energy and lord of knowledge, troop and force of Maruts, power of the winds, Aditi, children of the earth, powers of nature and knowledge of the original cause of the physical world. May the Vasus, sustainers of life, generous and giving, save us from all sin and evil of the world and take us forward as a chariot over the difficult paths of earth, sea and sky.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes and actions of the Devas (divine things and beings in the Universe) are taught in this hymn.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O liberal learned persons, we invoke and use for our preservation and protection Indra (Electricity or the President of the Assembly) Mitra (Prana or one who is friendly to all) Varun (Udaan or a noble learned person) Agni ( in the form of fire and sun or a highly educated leader, the strength of the Martu's (winds or mighty heroes) Aditi (Mother, father and sun etc.) As a chariot ( in the form of aero plane etc.) is used to pass through a difficult path on earth, water and middle regions, in the same manner, let them extricate us from all sin and its resultant misery.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (इन्द्रम्) विद्युतं परमैश्वर्यवन्तं सभाध्यक्षं वा = Electricity or the President of the Assembly who is lord of wealth. (मित्रम्) सर्वप्राणं सर्वसुहृदं वा = Prana or the friend of all. (वरुणम्) क्रियाहेतुम् उदानं वरगुण युक्तं विद्वांसं वा = Udana or a noble, virtuous learned person. (अग्निम्) सूर्यादिरूपं ज्ञानवन्तं वा = Agni in the form of the fire and sun etc. or a wise leader. (शर्ध:) बलम् = Strength. (अदितिम) मातरं पितरं पुत्रम् = Mother, father and sun. (दुर्गात्) कठिनाद् भूजलान्तरिक्षस्थमार्गात् = From a difficult path on land, water and middle regions. - (वसवः) विद्यादिशुभगुणेषु ये वसन्ति तत् सम्बुद्धौ = Who live in knowledge and other good virtues.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is Upamalankara (Simile ) used in the Mantra. As men can easily travel by well-manufactured vehicles like air-crafts even in the most difficult paths and having accomplished their tasks, they get rid of all misery born of poverty etc. living happily, in the same manner, men can enjoy much happiness by knowing and utilizing properly the objects of the world and learned persons, taking benefits from them.

    Translator's Notes

    Rishi Dayananda Sarsvati's interpretation of Indra, Mitra, Varuna, Agni, Maruts and other words used in this Mantra is well-authenticated being based mnow the authority of the Brahmanas etc. The following passages from the Brahmanas may be quoted in this connection. यदशनिरिन्द्रस्तेन (कौषीतकी ६.९) स्तनयित्नुरेवेन्द्र: (शत० ११. ६. ३.९) । = Lightening or electricity. The President of the Assembly is also called Indra as the word is derived from इदि परमैश्वर्ये प्राणो मित्रम् (जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मणे ३. ३. ६ ) प्रारणोदानौ वै मित्रावरुणौ ( शत० १.८.३.१२) प्राणोदानी मित्रावरुणौ (शत० ३.२.२.१३ ) प्रदितिद्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता स पिता स पुत्रः । (ऋग्वेदे १. ६. १६. १० ), On the authority of this Mantra, the word Aditi. has been interpreted by Rishi Dayananda Sarasvati as मातरं, पितरं, पुत्रम् इ० Father, Mother and son etc. ,

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