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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 109 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 109/ मन्त्र 4
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यु॒वाभ्यां॑ दे॒वी धि॒षणा॒ मदा॒येन्द्रा॑ग्नी॒ सोम॑मुश॒ती सु॑नोति। ताव॑श्विना भद्रहस्ता सुपाणी॒ आ धा॑वतं॒ मधु॑ना पृ॒ङ्क्तम॒प्सु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒वाभ्या॑म् । दे॒वी । धि॒षणा॑ । मदा॑य । इन्द्रा॑ग्नी॒ इति॑ । सोम॑म् । उ॒श॒ती । सु॒नो॒ति॒ । तौ । अ॒श्वि॒ना॒ । भ॒द्र॒ऽह॒स्ता॒ । सु॒पा॒णी॒ इति॑ सुऽपाणी । आ । धा॒व॒त॒म् । मधु॑ना । पृ॒ङ्क्तम् । अ॒प्ऽसु ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युवाभ्यां देवी धिषणा मदायेन्द्राग्नी सोममुशती सुनोति। तावश्विना भद्रहस्ता सुपाणी आ धावतं मधुना पृङ्क्तमप्सु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युवाभ्याम्। देवी। धिषणा। मदाय। इन्द्राग्नी इति। सोमम्। उशती। सुनोति। तौ। अश्विना। भद्रऽहस्ता। सुपाणी इति सुऽपाणी। आ। धावतम्। मधुना। पृङ्क्तम्। अप्ऽसु ॥ १.१०९.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 109; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    या सोममुशती देवी धिषणा मदाय युवाभ्यां कार्य्याणि सुनोति तया याविन्द्राग्नी अप्सु मधुना पृङ्क्तं भद्रहस्ता सुपाणी अश्विना स्तस्ताविन्द्राग्नी यानेषु संप्रयुक्तौ सन्तावाधावतं समन्तात् यानानि धावयतम् ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (युवाभ्याम्) (देवी) दिव्यशिक्षाशास्त्रविद्याभिर्देदीप्यमाना (धिषणा) प्रज्ञा (मदाय) हर्षाय (इन्द्राग्नी) पूर्वोक्तौ (सोमम्) ऐश्वर्यम् (उशती) कामयमाना (सुनोति) निष्पादयति (तौ) (अश्विना) व्याप्तिशीलौ (भद्रहस्ता) भद्रकरणहस्ताविव गुणा ययोस्तौ (सुपाणी) शोभनाः पाणयो व्यवहारा ययोस्तौ (आ) समन्तात् (धावतम्) धावयतः (मधुना) जलेन (पृङ्क्तम्) संपृङ्क्तः (अप्सु) कलास्थेषु जलाशयेषु वर्त्तमानौ ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    मनुष्या यावत् सुशिक्षासुविद्याक्रियाकौशलयुक्ता धियो न संपादयन्ति तावद्विद्युदादिभ्यः पदार्थेभ्य उपकारं ग्रहीतुं न शक्नुवन्ति तस्मादेतत् प्रयत्नेन साधनीयम् ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जो (सोमम्) ऐश्वर्य्य की (उशती) कान्ति करानेवाली (देवी) अच्छी-अच्छी शिक्षा और शास्त्रविद्या आदि से प्रकाशमान (धिषणा) बुद्धि (मदाय) आनन्द के लिये (युवाभ्याम्) जिनसे कामों को (सुनोति) सिद्ध करती है उस बुद्धि से जो (इन्द्राग्नी) बिजुली और भौतिक अग्नि (अप्सु) कलाघरों के जलके स्थानों में (मधुना) जल से (पृङ्क्तम्) संपर्क अर्थात् संबन्ध करते हैं वा (भद्रहस्ता) जिनके उत्तम सुख के करनेवाले हाथों के तुल्य गुण (सुपाणी) और अच्छे-अच्छे व्यवहार वा (अश्विना) जो सब में व्याप्त होनेवाले हैं (तौ) वे बिजुली और भौतिक अग्नि रथों में अच्छी प्रकार लगाये हुए उनको (आ, धावतम्) चलाते हैं ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    मनुष्य जब-तक अच्छी शिक्षा, उत्तम विद्या और क्रियाकौशलयुक्त बुद्धियों को न सिद्ध करते हैं, तब-तक बिजुली आदि पदार्थों से उपकार को नहीं ले सकते। इससे इस काम को अच्छे यत्न से सिद्ध करना चाहिये ॥ ४ ॥

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    विषय

    शोधन व माधुर्ययुक्त कर्म

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्राग्नी) = शक्ति व प्रकाश के अधिष्ठातृदेवो ! (युवाभ्याम्) = तुम दोनों की प्राप्ति के लिए तथा (मदाय) = तुम दोनों की प्राप्ति के द्वारा हर्ष की प्राप्ति के लिए (उशती) = कामना करती हुई यह (धिषणा देवी) = प्रकाशमय बुद्धि (सोमं सुनोति) = सोम को इस शरीर में अभिषुत करती है । सोम के सवन - शक्ति के रक्षण से ही हमें शक्ति व प्रकाश प्राप्त होते हैं और जीवन उल्लासमय होता है । 

    २. (तौ) = वे इन्द्र और अग्नि (अश्विना) = [अश्विनौ देवानां भिषजौ - एक १/१८] देवभिषक् हैं । ये हमें सब दिव्यगुणों को प्राप्त करानेवाले हैं - दिव्यगुणों में आ जानेवाली कमियों को दूर करनेवाले हैं । (भद्रहस्ता) = ये हमारे हाथों को कल्याण का साधक बनाते हैं । जीवन में इन्द्र और अग्नि के प्रतिष्ठित होने पर हमारे हाथों से कोई भी अभद्र कार्य नहीं होता । (सुपाणी) = हम उत्तम हाथोंवाले होते हैं , प्रत्येक कार्य को दक्षता से सम्पन्न करते हैं । 

    ३. हे इन्द्राग्नी ! आप दोनों (आधावतम्) = हमारे जीवन को सर्वतः शुद्ध बना दो । हमारे जीवन में किसी प्रकार की मलिनता न आ जाए । ये शक्ति और प्रकाश हमें (मधुना) = अत्यन्त माधुर्य के साथ (अप्सु) = कर्मों में (पृंक्तम्) = सम्पृक्त रक्खें । हम सदा कार्यों में लगे रहें । यह कार्यों में लगे रहना माधुर्य को लिये हुए हो । किसी प्रकार की कड़वाहट हमारे जीवनों में न हो । ईर्ष्या , द्वेष व क्रोध से हम दूर ही रहें । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - बुद्धि हमें इन्द्र व अग्नि का उपासक बनाती है । इस उपासना के लिए हम सोम - वीर्य को शरीर में सुरक्षित करते हैं । इन्द्र और अग्नि से हमारा जीवन शुद्ध बनता है , हम माधुर्य के साथ सतत कर्मों में लगे रहते हैं । 
     

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    विषय

    पक्षान्तर में बलवान् सेनापति और प्रमुख नायकों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्राग्री ) इन्द्र और विद्युत् या विद्युत् जौर अग्नि या वायु अग्नि के समान सर्वोपकारी जीवन और ज्ञान के देने वाले तेजस्वी गुरुजनो ! ( देवी ) दिव्य आदि गुणों से प्रकाशमान ( धिषणा ) प्रज्ञा बुद्धि ही ( उशती ) अति अभिलाषा युक्त प्रियतमा स्त्री के समान ( युवाभ्याम् ) आप दोनों के ( मदाय ) अति हर्ष सुख के लिये ( सोमम् ) सब प्रकार के आनन्द रस तथा ऐश्वर्यों और योग्य विद्यार्थी को ( सुनोति ) उत्पन्न करती है । अथवा ( ता ) वे आप दोनों ( अश्विना ) सूर्य चन्द्र, दिन रात, तथा स्त्री पुरुषों के समान परस्पर मिल कर ( भद्रहस्ता ) सर्व दुःखकारी शत्रु और दुराचारी और कष्टों के नाशक उपायों और ( सुपाणी ) उत्तम व्यवहारों से युक्त होकर ( आधावतम् ) प्राप्त होओ । और (अप्सु) समस्त प्रजाओं में, जलों में जल के समान ( मधुना ) अपने मधुर स्वभाव तथा ज्ञान और आनन्द से ( आ पृङ्क्तम् ) खूब मिल जाओ। वे तुम्हारे और तुम उनके हो जाओ । ( देवी उशती ) कामनायुक्त स्त्री, पिता और आचार्य के सुख और हर्ष के लिये ही पुत्र को उत्पन्न करती है । उसी प्रकार ( देवी धिषणा ) उत्तम विद्या भी “सोम” अर्थात् शिष्य को उत्पन्न करती है । ततोऽस्य माता सावित्री पिता त्वाचार्य उच्यते । (मनु) स्त्री पुरुष जिस प्रकार दानादि से कल्पहस्त हैं और कोमलता आदि गुणों और शुभ आभूषणादि से उत्तम कर कमल वाले होकर ( आधावतम् ) अग्नि के चारों ओर प्रदक्षिणा करते और जलों में जल के समान मिल कर एक हो जाते हैं ।

    टिप्पणी

    ‘समापो हृदयानि नौ’ ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–८ कुत्स आंङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्राग्नी देवते ॥ छन्दः– १, ३, ४, ६, ८ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ५ त्रिष्टुप् । ७ विराट् त्रिष्टुप् । धैवतः स्वरः ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसे जोपर्यंत चांगले शिक्षण, उत्तम विद्या व क्रिया कौशल्ययुक्त बुद्धी सिद्ध करीत नाहीत. तोपर्यंत विद्युत इत्यादी पदार्थांपासून उपकार घेऊ शकत नाहीत. त्यासाठी हे कार्य प्रयत्नपूर्वक सिद्ध केले पाहिजे. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra and Agni, fire and power, with you and for you and for the pleasure and dignity of living does divine intelligence, inspired with love and passion for life, create beauty and power alongwith joy. Come generous handed Ashvins, complementary currents of nature’s energy, with honey sweets and join the two, fire and power, with waters in the sky.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are Indra and Agni is taught further in the fourth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The intellect bright or shining with divine education and Shastri Knowledge, desiring prosperity accomplishes for delight many works with the help of Indra and Agni (electricity and fire). Those two which are pervasive of auspicious attributes like hands of noble dealings when mixed with water and used methodically in various, vehicles, enable them to run swiftly.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (देवी) दिव्य शिक्षाशास्त्रविद्याभिर्देदीप्यमाना = Shining with divine education and Shastrie Knowledge. (अश्विना) व्याप्तिशीलौ अशूङ्-व्याप्तौ (सुपाणी) शोभनाः पाणयो व्यवहारा ययोस्तौ । (पण-व्यवहारे) स्तुतौ च धातुपाठे |

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men can not take benefits out of electricity and other objects unless they receive good education. good knowledge of various arts and industries with their intellects. Therefore they must accomplish this with Laboure.

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