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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 109 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 109/ मन्त्र 7
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ भ॑रतं॒ शिक्ष॑तं वज्रबाहू अ॒स्माँ इ॑न्द्राग्नी अवतं॒ शची॑भिः। इ॒मे नु ते र॒श्मय॒: सूर्य॑स्य॒ येभि॑: सपि॒त्वं पि॒तरो॑ न॒ आस॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । भ॒र॒त॒म् । शिक्ष॑तम् । व॒ज्र॒बा॒हू॒ इति॑ वज्रऽबाहू । अ॒स्मान् । इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ । अ॒व॒त॒म् । शची॑भिः । इ॒मे । नु । ते । र॒श्मयः॑ । सूर्य॑स्य । येभिः॑ । स॒ऽपि॒त्वम् । पि॒तरः॑ । नः॒ । आस॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ भरतं शिक्षतं वज्रबाहू अस्माँ इन्द्राग्नी अवतं शचीभिः। इमे नु ते रश्मय: सूर्यस्य येभि: सपित्वं पितरो न आसन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। भरतम्। शिक्षतम्। वज्रबाहू इति वज्रऽबाहू। अस्मान्। इन्द्राग्नी। अवतम्। शचीभिः। इमे। नु। ते। रश्मयः। सूर्यस्य। येभिः। सऽपित्वम्। पितरः। नः। आसन् ॥ १.१०९.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 109; मन्त्र » 7
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथाध्यापकाध्येतारौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे वज्रबाहू इन्द्राग्नी युवां य इमे सूर्यस्य रश्मयः सन्ति ते रक्षणादिकं च कुर्वन्ति यथा च पितरो येभिर्यैः कर्मभिर्नोऽस्मभ्यं सपित्वं प्रदायोपकारका आसन् तथा शचीभिरस्मान्नाभरतं शिक्षतं सततं न्ववतं च ॥ ७ ॥

    पदार्थः

    (आ) (भरतम्) धारयतम् (शिक्षतम्) विद्योपादानं कारयतम् (वज्रबाहू) वज्रौ बलवीर्य्ये बाहू ययोस्तौ (अस्मान्) (इन्द्राग्नी) अध्येत्रध्यापकौ (अवतम्) रक्षणादिकं कुरुतम् (शचीभिः) कर्मभिः प्रज्ञाभिर्वा (इमे) प्रत्यक्षाः (नु) शीघ्रम् (ते) (रश्मयः) किरणाः (सूर्य्यस्य) मार्त्तण्डमण्डलस्य (येभिः) (सपित्वम्) समानं च तत् पित्वं प्रापणं वा विज्ञानं च तत्। अत्र पिगतावित्यस्माद्धातोरौणादिकस्त्वन् प्रत्ययः। (पितरः) यथा जनकाः (नः) अस्मभ्यम् (आसन्) भवन्ति ॥ ७ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यः सुशिक्षया मनुष्येषु सूर्यवद्विद्याप्रकाशको मातापितृवत्कृपया रक्षकोऽध्यापकस्तथा सूर्यवत् प्रकाशितप्रज्ञोऽध्येता चास्ति तौ नित्यं सत्कुरुत नह्येतेन कर्मणा विना कदाचिद्विद्योन्नतिः सम्भवति ॥ ७ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब पढ़ाने और पढ़नेवाले कैसे होते हैं, यह उपदेश अगले मन्त्र में इन्द्र और अग्नि नाम से किया है ।

    पदार्थ

    (वज्रबाहू) जिनके वज्र के तुल्य बल और वीर्य हैं वे (इन्द्राग्नी) हे पढ़ने और पढ़ानेवालो ! तुम दोनों जैसे (इमे) ये (सूर्यस्य) सूर्य की (रश्मयः) किरणे हैं और (ते) रक्षा आदि करते हैं और जैसे (पितरः) पितृजन (येभिः) जिन कामों से (नः) हम लोगों के लिये (सपित्वम्) समान व्यवहारों की प्राप्ति करने वा विज्ञान को देकर उपकार के करनेवाले (आसन्) होते हैं वैसे (शचीभिः) अच्छे काम वा उत्तम बुद्धियों से (अस्मान्) हम लोगों को (आ, भरतम्) स्वीकार करो, (शिक्षतम्) शिक्षा देओ और (नु) शीघ्र (अवतम्) पालो ॥ ७ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो अच्छी शिक्षा से मनुष्यों में सूर्य के समान विद्या का प्रकाशकर्त्ता और माता-पिता के तुल्य कृपा से रक्षा करने वा पढ़ानेवाला तथा सूर्य के तुल्य प्रकाशित बुद्धि को प्राप्त और दूसरा पढ़नेवाला है, उन दोनों का नित्य सत्कार करो, इस काम के विना कभी विद्या की उन्नति होने का संभव नहीं हैं ॥ ७ ॥

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    विषय

    सूर्यरश्मियों के द्वारा ब्रह्मलोक को

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्राग्नी) = शक्ति व प्रकाश के अधिष्ठातृदेवो ! आप (वज्रबाहू) = वज्रयुक्त हाथोंवाले होते हुए , अर्थात् हमें क्रियामय जीवनवाला बनाते हुए (आभरतम्) = सर्वथा शक्ति व प्रकाश से भर दो , (शिक्षतम्) = शक्तिशाली बनाने की कामनावाले होओ । (अस्मान्) = हमें (शचीभिः) = कर्मों व विज्ञानों के द्वारा (अवतम्) = रक्षित करो । 

    २. हे प्रभो ! (इमे) = ये (नु) = निश्चय से (ते) = आपकी (सूर्यस्य रश्मयः) = सूर्य की किरणें हैं , (येभिः) = जिन सूर्यकिरणों के द्वारा (नः) = हमारे (पितरः) =पितर लोग रक्षात्मक कार्यों में लगे रहनेवाले लोग (सपित्वम्) = सह प्राप्तव्य स्थान , अर्थात् ब्रह्मलोक को जहाँ जीव ब्रह्म के साथ विचरता है (आसन्) = प्राप्त हुए हैं । “सूर्यद्वारेण ते विरजाः प्रयान्ति यत्रामृतः स पुरुषो ह्यव्ययात्मा” रजोगुण से ऊपर उठे हुए लोग सूर्यद्वार से उस ब्रह्मलोक में पहुँचते हैं । हम भी इन्द्र व अग्नि - तत्त्व का उपासन करके - अपने को शक्ति व प्रकाश से भरके रक्षात्मक कार्यों में व्याप्त हों । इन रक्षणात्मक कर्मों में लगे हुए हम मोक्ष के अधिकारी बनें । मोक्षक्रम यही होता है - [क] पृथिवीलोक से ऊपर उठकर अन्तरिक्षलोक में पहुँचना , [ख] अन्तरिक्षलोक से ऊपर उठकर द्युलोक में पहुँचना , [ग] द्युलोकस्थ सूर्य से भी ऊपर उठते हुए स्वयं देदीप्यमान ज्योति ब्रह्म को प्राप्त करना । पृथिवीलोक का विजय करके हम वैश्वानर बनते हैं - सब लोकों के हित में प्रवृत्त होते हैं । अन्तरिक्षलोक का विजय हमें (“तैजस्”) = तेजस्वी बनाता है और द्युलोक का विजय हमें सूर्यसम प्रकाशवाला (“प्राज्ञ”) = ज्ञानी बनाता है । हम वैश्वानर , तैजस् च प्राज्ञ बनकर उस तुरीय “शान्त , शिव , अद्वैत” स्थिति को प्राप्त करनेवाले होते हैं । 
     

    भावार्थ


    भावार्थ - इन्द्र व अग्नि की आराधना से कर्म व प्रज्ञान के द्वारा अपना रक्षण करते हुए हम परमात्मा के साथ सह प्राप्तव्य स्थान - मोक्षलोक को प्राप्त हों । 
     

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    विषय

    पक्षान्तर में बलवान् सेनापति और प्रमुख नायकों के कर्तव्य । (

    भावार्थ

    ये ( सूर्यस्य रश्मयः ) सूर्य की रश्मियां ही हैं ( येभिः ) जिन से ( पितरः सपित्वं आसन् ) समस्त जीवों के पालक ओषधिगण,तथा कृषक गण समान रूप से अन्नादि खाद्य फल उत्पन्न करते हैं उसी प्रकार ( ते ) वे ही ( इमे नु ) ये ( सूर्यस्य रश्मयः ) सूर्य की रश्मियों के समान ज्ञान के प्रकाश हैं ( येभिः ) जिनके साथ मिल कर ( नः ) हमारे ( पितरः ) पालक गुरुजन ( सपित्वम् आसन् ) समान पद, स्थान, मान, आदर, सत्कार प्राप्त करते हैं । (तेभिः) उनके आश्रय पर ही रहे । हे ( इन्द्राग्नी ) सूर्य के समान तेजस्विन् अग्नि के प्रकाशक आप दोनों भद्र पुरुपो ! ( बज्रबाहू ) बल, वीर्य तथा शस्त्र शक्ति को अपने वश में रखते हुए आप दोनों ( अस्मान् आ भरतम् ) हमें खूब समृद्ध करो । ( नः शिक्षतम् ) हमें सब प्रकार से शिक्षा दो और ( शचीभिः ) उत्तम कर्मों और ज्ञानों से ( अवतम् ) रक्षा करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–८ कुत्स आंङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्राग्नी देवते ॥ छन्दः– १, ३, ४, ६, ८ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ५ त्रिष्टुप् । ७ विराट् त्रिष्टुप् । धैवतः स्वरः ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! उत्तम शिक्षणाने माणसात सूर्याप्रमाणे विद्येचा प्रकाशक, मात्यापित्याप्रमाणे कृपाळू, रक्षक व अध्यापक आणि सूर्याप्रमाणे तेजस्वी प्रज्ञायुक्त अध्यापक व विद्यार्थी या दोघांचा नित्य सत्कार करावा. या कर्माशिवाय विद्येची कधी वाढ होणार नाही. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra and Agni, of strong arms as adamant, come, sustain us, teach us and protect us with your knowledge and actions. And these and those far off are your rays of the sun, both knowledge and nourishment, by which our forefathers blest us with science, knowledge and sustenance.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are teachers and the taught is instructed in the seventh Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra and Agni (Teacher and the taught) you have force and vitality as your arms, teach us and protect us by your deeds and intellects like the rays of the sun and like fathers who were benevolent to us by giving education and useful things.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (इन्द्राग्नी) अध्येत्रध्यापकौ = The teacher and the taught. (सपित्वम्) समानं च तत् पित्वं प्रापणं विज्ञानं च तत् । अत्र पि गतौ इत्यस्माद् धातोः औणादिकः त्वम् प्रत्ययः = Education given together to all pupils.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! You should always honor that teacher who among you is illumine of knowledge like the sun, guardian with kindness like the parents and a student who has enlightened intellect like the sun. Without this (showing due respect to the teacher and the taught) there can be no progress in the spread of knowledge.

    Translator's Notes

    Rishi Dayananda Sarasvati has interpreted इन्द्राग्नी here as अध्येत्रध्यापकौ By Indra is meant a teacher full of the great wealth of wisdom विद्यारूप परमैश्वर्ययुक्तौऽध्यापक: = as Rishi Dayananda has stated specifically in his commentary on Rig. 1. 106. 6 इन्द्रम्-परमैश्वर्यवन्तंशालाध्यक्षम् अथवा इन्द्रम्-अविद्याविदारकम् आप्तं विद्वांसम् Rig. 7. 81. 12 By Agni is here meant a student desirous of getting knowledge as stated by the Rishi in his commentary on Rig. 5. 11. 6. अग्ने विद्यां जिघृक्षो अगि-गतौ अत्र गतेर्ज्ञानार्थग्रहणम्

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