ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 113/ मन्त्र 18
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - उषाः द्वितीयस्यार्द्धर्चस्य रात्रिरपि
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
या गोम॑तीरु॒षस॒: सर्व॑वीरा व्यु॒च्छन्ति॑ दा॒शुषे॒ मर्त्या॑य। वा॒योरि॑व सू॒नृता॑नामुद॒र्के ता अ॑श्व॒दा अ॑श्नवत्सोम॒सुत्वा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयाः । गोऽम॑तीः । उ॒षसः॑ । सर्व॑ऽवीराः । वि॒ऽउ॒च्छन्ति॑ । दा॒शुषे॑ । मर्त्या॑य । वा॒योःऽइ॑व । सू॒नृता॑नाम् । उ॒त्ऽअ॒र्के । ताः । अ॒श्व॒ऽदाः । अ॒श्न॒व॒त् । सो॒म॒ऽसुत्वा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
या गोमतीरुषस: सर्ववीरा व्युच्छन्ति दाशुषे मर्त्याय। वायोरिव सूनृतानामुदर्के ता अश्वदा अश्नवत्सोमसुत्वा ॥
स्वर रहित पद पाठयाः। गोऽमतीः। उषसः। सर्वऽवीराः। विऽउच्छन्ति। दाशुषे। मर्त्याय। वायोःऽइव। सूनृतानाम्। उत्ऽअर्के। ताः। अश्वऽदाः। अश्नवत्। सोमऽसुत्वा ॥ १.११३.१८
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 113; मन्त्र » 18
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनरुषःप्रसङ्गेन स्त्रीपुरुषविषयमाह ।
अन्वयः
हे मनुष्या यूयं या सूनृतानामुदर्के वायोरिव वर्त्तमाना गोमतीरुषसो विदुष्यः स्त्रियो दाशुषे मर्त्याय व्युच्छन्ति। अश्वदाः सर्ववीराः प्राप्नुत यथा सोमसुत्वाश्नवत् तथैता प्राप्नुत ॥ १८ ॥
पदार्थः
(या) (गोमतीः) बह्व्यो गावो धेनवः किरणा वा विद्यन्ते यासां ताः (उषसः) (सर्ववीराः) सर्वे वीराः भवन्ति यासु सतीषु ताः (व्युच्छन्ति) दुःखं विवासयन्ति (दाशुषे) सुखं दात्रे (मर्त्याय) (वायोरिव) यथा पवनात् (सूनृतानाम्) वाचामन्नादिपदार्थानाम् (उदर्के) उत्कृष्टतयाप्तौ (ताः) विदुष्यः (अश्वदाः) या अश्वादीन् पशून् प्रददति (अश्नवत्) अश्नुते (सोमसुत्वा) यः सोममैश्वर्यं सवति सः ॥ १८ ॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ब्रह्मचारिणां योग्यमस्ति समावर्त्तनानन्तरं स्वसदृशीर्विद्यासुशीलतारूपलावण्यसंपन्ना हृद्याः प्रभातवेला इव प्रशंसायुक्ता ब्रह्मचारिणीरुद्वाह्य गृहाश्रमे सुखमलंकुर्य्युः ॥ १८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उषःकाल के प्रसङ्ग से स्त्री-पुरुष के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! तुम लोग (याः) जो (सूनृतानाम्) श्रेष्ठ वाणी और अन्नादि को (उदर्के) उत्कृष्टता से प्राप्ति में (वायोरिव) जैसे वायु से (गोमतीः) बहुत गौ वा किरणोंवाली (उषसः) प्रभात वेला वर्त्तमान हैं, वैसे विदुषी स्त्री (दाशुषे) सुख देनेवाले (मर्त्याय) मनुष्य के लिये (व्युच्छन्ति) दुःख दूर करती और (अश्वदाः) अश्व आदि पशुओं को देनेवाली (सर्ववीराः) जिनके होते समस्त वीरजन होते हैं (ताः) उन विदुषी स्त्रियों को (सोमसुत्वा) ऐश्वर्य की सिद्धि करनेहारा जन (अश्नवत्) प्राप्त होता है, वैसे ही इनको प्राप्त होओ ॥ १८ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। ब्रह्मचारी लोगों को योग्य है कि समावर्त्तन के पश्चात् अपने सदृश विद्या, उत्तम शीलता, रूप और सुन्दरता से सम्पन्न हृदय को प्रिय, प्रभात वेला के समान, प्रशंसित, ब्रह्मचारिणी कन्याओं से विवाह करके गृहाश्रम में पूर्ण सुख करें ॥ १८ ॥
विषय
‘गोमती सर्ववीरा’ उषा
पदार्थ
१. (दाशुषे मर्त्याय) = दाश्वान् मनुष्य के लिए - त्याग की वृत्तिवाले और परिणामतः प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाले के लिए (उषसः) = उषाएँ (व्युच्छन्ति) = सब प्रकार के अन्धकार को दूर करती हैं । (याः) = वे उषाएँ जोकि (गोमतीः) = प्रशस्त ज्ञानेन्द्रियोंवाली हैं और (सर्ववीराः) = सब अङ्गों में वीरता का सञ्चार करनेवाली हैं । उषा आती है , अपने प्रकाश से यह ज्ञान की प्रेरणा देती है और अपनी दोषों के दहन की शक्ति से यह सब अङ्ग - प्रत्यङ्गों में शक्ति का सञ्चार करती है । इस प्रकार यह उषा ज्ञान की प्रेरणा देती हुई गोमती है और शक्ति का सञ्चार करती हुई ‘सर्ववीरा’ है । २. (वायोः) = इव वायु की भाँति - वायु क्रियाशीलता का प्रतीक है (सूनृतानाम्) = स्तुतिरूप वाणियों के (उदर्के) = उत्तरफल के रूप में [उदर्कः फलमुत्तरम्] (ताः) = वे उषाएँ (अश्वदाः) = उत्तम इन्द्रियरूप अश्वों को देनेवाली हैं । हम उषा का स्तवन करें । उषा की प्रेरणा को मूर्तरूप देने के लिए क्रियाशील हों । परिणामतः हमारी इन्द्रियाँ निर्दोष व दीप्त होंगी । ऐसी उत्तम इन्द्रियाश्वों को देनेवाली उषाओं को सोमसुत्वा अपने शरीर में सोम का अभिषव करनेवाला , सोमशक्ति का रक्षण करनेवाला (अश्नवत्) = व्याप्त करता है , प्राप्त होता है , एवं , इन्द्रियों की उत्तमता के लिए उषा से प्रेरणा तो प्राप्त करता ही है , साथ ही क्रियाशील बनता है और सोम को शरीर में सुरक्षित करता है ।
भावार्थ
भावार्थ - उषा हमें ज्ञान के प्रकाश व वीरता का सन्देश देती है । यह हमारे इन्द्रियरूप अश्वों को बड़ा उत्तम बनाती है ।
विषय
उषा के दृष्टान्त से नववधू, गृहपत्नी, और विदुषी स्त्री के कर्तव्यों का उपदेश ।
भावार्थ
( दाशुषे मर्त्याय ) अपने को उपासना में भगवान् के प्रति सर्वात्मना अर्पण कर देने वाले पुरुष के हित के लिये ( याः ) जो (गोमतीः उषसः ) किरणों से युक्त उषाएं ( सर्ववीराः ) सब प्राणों से युक्त या सबों को प्रेरित करने हारी होकर ( वि उच्छन्ति ) प्रकट होती हैं और उसके दुःखों को दूर करती हैं । ( ताः ) उन ( अश्वदाः ) व्यापक सूर्य या प्राण को देने वाली, उसको प्रकट करने वाली उषाओं को ( वायोः इव ) वायु या प्राण के समान ( सूनृतानाम् ) उत्तम स्तुति वाणियों के (उदर्के) उच्चारण करते करते सूर्य के उदय होजाने पर ( सोम-सुत्वा ) परमेश्वर का उपासक ( अश्नवत् ) भोग करे । अर्थात् प्राणायाम और स्तुत भजन कीर्त्ति तथा मन्त्रोच्चारण करते करते ध्यानी पुरुष को प्रभातवेला में सूर्योदय हो जावे और इस प्रकार वह उषाओं का सुख प्राप्त करे । ( २ ) इसी प्रकार ( दाशुषे मर्त्याय ) सुख देने वाले पति पुरुष को ( उषसः ) कमनीय कन्याएं भी ( सर्ववीराः ) सब वीर पुत्रों से युक्त ( गोमतीः ) पशु आदि सम्पदा से युक्त होकर ( वि उच्छन्ति ) विविध सुखों को प्रकट करती और दुःखों को दूर करती हैं । और ( सोमसुत्वा ) वीर्य का पालन करने वाला ब्रह्मचारी या ऐश्वर्यवान् पुरुष ही ( वायोः इव ) ज्ञानवान् गुरु के समान ( सूनृतानाम् उदर्के ) वेद वाणियों को उत्तम रीति से प्राप्त करके स्नातक हो जाने पर ( ताः अश्वदाः अश्नवत् ) उन अश्वादि पशुओं को देने और पालने वाली स्त्रियों को पति रूप में प्राप्त हो । एकवचन और बहुवचन का प्रयोग जात्याख्या में है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ १-२० उषा देवता । द्वितीयस्यार्द्धर्चस्य रात्रिरपि॥ छन्दः– १, ३, ९, १२, १७ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ त्रिष्टुप् । ७, १८—२० विराट् त्रिष्टुप्। २, ५ स्वराट् पंक्तिः। ४, ८, १०, ११, १५, १६ भुरिक् पंक्तिः। १३, १४ निचृत्पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. ब्रह्मचाऱ्यांनी समावर्तनानंतर आपल्यासारख्या विद्या, उत्तम शील, रूप व सौंदर्यसंपन्न, हृदयाला प्रिय, प्रभातवेळेप्रमाणे प्रशंसित, ब्रह्मचारिणी कन्यांबरोबर विवाह करून गृहस्थाश्रम पूर्ण सुखी करावा. ॥ १८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Bright are the dawns, rich in sunbeams and wealth of cows, creators and inspirers of all the brave on earth. Generous are they for the man who gives and sacrifices, giver of horses fast as sunbeams. And when men of truth and law meditate on them, then, flying as the wind, they come and bless the man who performs the soma-yajna of creative joy for life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Then again the duties of men and women are taught by the illustration or context of the Ushas (dawn).
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men as a man who performs Yajna with Soma (nourishing herb) or tries to earn riches, achieves health and wealth, in the same manner, learned women who have cows and rays of knowledge give them to men of charitable disposition and alleviate all sufferings, get for marriage such women who give happiness to all who have true and sweet speech and who take only pure food, give horses and other animals in charity and beget heroic children mighty like the wind, being full of vitality themselves.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(दाशुषे) सुखं दात्रे = For giver of happiness. (सूनृतानाम् ) वाचाम् अन्नादिपदार्थानाम् = Of the speech (true and sweet) and food etc, (उदर्के) उत्कृष्टतया औप्तौ = On good achievement.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of the Brahmacharis to marry after Samavartana (return to home after the completion of education at the Gurukula) such suitable Brahmacharinies as are endowed with Vidya (knowledge) good manners, good character and beauty and who are lovely and charming like the admirable dawns, Let them then enjoy happiness in the married life.
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