ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 116/ मन्त्र 12
तद्वां॑ नरा स॒नये॒ दंस॑ उ॒ग्रमा॒विष्कृ॑णोमि तन्य॒तुर्न वृ॒ष्टिम्। द॒ध्यङ्ह॒ यन्मध्वा॑थर्व॒णो वा॒मश्व॑स्य शी॒र्ष्णा प्र यदी॑मु॒वाच॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतत् । वा॒म् । न॒रा॒ । स॒नये॑ । दंसः॑ । उ॒ग्रम् । आ॒विः । कृ॒णो॒मि॒ । तन्य॒तुः । न । वृ॒ष्टिम् । द॒ध्यङ् । ह॒ । यत् । मधु॑ । आ॒थ॒र्व॒णः । वा॒म् । अश्व॑स्य । सी॒र्ष्णा । प्र । यत् । ई॒म् । उ॒वाच॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तद्वां नरा सनये दंस उग्रमाविष्कृणोमि तन्यतुर्न वृष्टिम्। दध्यङ्ह यन्मध्वाथर्वणो वामश्वस्य शीर्ष्णा प्र यदीमुवाच ॥
स्वर रहित पद पाठतत्। वाम्। नरा। सनये। दंसः। उग्रम्। आविः। कृणोमि। तन्यतुः। न। वृष्टिम्। दध्यङ्। ह। यत्। मधु। आथर्वणः। वाम्। अश्वस्य। शीर्ष्णा। प्र। यत्। ईम्। उवाच ॥ १.११६.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 116; मन्त्र » 12
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे नरा वां युवयोः सकाशाद्दध्यङ्ङाथर्वणोऽहं सनये तन्यतुर्वृष्टिं नेव यदुग्रं दंस आविष्कृणोमि यद्यो विद्वान् वां मह्यं चाश्वस्य शीर्ष्णा मध्वीं ह प्रोवाच तद्युवां लोके सततमाविष्कुर्य्याथाम् ॥ १२ ॥
पदार्थः
(तत्) (वाम्) (नरा) सुनीतिमन्तौ (सनये) सुखसेवनाय (दंसः) कर्म (उग्रम्) उत्कृष्टम् (आविः) प्रादुर्भावे (कृणोमि) (तन्यतुः) विद्युत् (न) इव (वृष्टिम्) (दध्यङ्) दधीन् विद्याधर्मधारकानञ्चति प्राप्नोति सः (ह) किल (यत्) (मधु) मधुरं विज्ञानम् (आथर्वणः) अथर्वणोऽहिंसकस्यापत्यम् (वाम्) युवाभ्याम् (अश्वस्य) आशुगमकस्य द्रव्यस्य (शीर्ष्णा) शिरोवत्कर्मणा (प्र) (यत्) (ईम्) शास्त्रबोधम्। ईमिति पदना०। निघं० ४। २। (उवाच) उच्यात् ॥ १२ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा वृष्ट्या विना कस्यचिदपि सुखं न जायते तथा विदुषोऽन्तरा विद्यामन्तरेण च सुखं बुद्धिवर्धनमेतेन विना धर्मादयः पदार्था न सिध्यन्ति तस्मादेतत्कर्म मनुष्यैः सदाऽनुष्ठेयम् ॥ १२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (नरा) अच्छी नीतियुक्त सभा सेना के पति जनो ! (याम्) तुम दोनों से (दध्यङ्) विद्या धर्म का धारण करनेवालों का आदर करनेवाला (आथर्वणः) रक्षा करते हुए का संतान मैं (सनये) सुख के भलीभाँति सेवन करने के लिये जैसे (तन्यतुः) बिजुली (वृष्टिम्) वर्षा को (न) वैसे जिस (उग्रम्) उत्कृष्ट (दंसः) कर्म को (आविष्कृणोमि) प्रकट करता हूँ, जो (यत्) विद्वान् (वाम्) तुम दोनों के लिये और मेरे लिये (अश्वस्य) शीघ्र गमन करानेहारे पदार्थ के (शीर्ष्णा) शिर के समान उत्तम काम से (मधु) मधुर (ईम्) शास्त्र के बोध को (ह) (प्रोवाच) कहे (तत्) उसे तुम दोनों लोक में निरन्तर प्रकट करो ॥ १२ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे वृष्टि के विना किसी को भी सुख नहीं होता है, वैसे विद्वानों और विद्या के विना सुख और बुद्धि बढ़ना और इसके विना धर्म आदि पदार्थ नहीं सिद्ध होते हैं, इससे इस कर्म का अनुष्ठान मनुष्यों को सदा करना चाहिये ॥ १२ ॥
विषय
दध्यङ् द्वारा मधुविद्या का उपदेश
पदार्थ
१. हे (नरा) = आरोग्य के प्रणेता अश्विनीदेवो ! (सनये) = प्रभु - प्राप्ति के लिए किये जानेवाले (वाम्) = आपके (तत्) = उस (उग्रम्) = तेजस्वी व उत्कृष्ट (दंसः) = कर्म को (आविष्कृणोमि) = मैं उसी प्रकार प्रकट करता हूँ - जैसे (तन्यतुः) = मेघगर्जना (वृष्टिम्) = वृष्टि को प्रकट करती है । २. अश्विनीदेवों का वह उन कर्म यह है (यत्) = कि (दध्यङ्) = [ध्यानं प्रत्यक्तः] एक ध्यानशील पुरुष (आथर्वणः) = अथर्वा का पुत्र होता हुआ - (‘अ+थर्व) = चरति’ स्थिर वृत्तिवाला होता हुआ अथर्व ‘अथ अर्वाङ्’ - आत्मनिरीक्षण की वृत्तिवाला होता हुआ (ह) = निश्चय से (वाम्) = आप दोनों के , अर्थात् आपसे प्राप्त कराये हुए (अश्वस्य शीर्ष्णा) = ज्ञान में व्याप्त होनेवाले मस्तिष्क से (ईम्) = इस (मधु) = मधुविद्या को - ब्रह्मविद्या को - सब विद्याओं की सारभूत अध्यात्मविद्या को (यत्) = जब (प्र उवाच) = प्रकर्षेण - प्रतिपादित करता है । ३. प्राणसाधना से वह मस्तिष्क प्राप्त होता है जो सब विद्याओं का व्यापन करता हुआ - इन विद्याओं की चरम सीमारूप मधुविद्या व ब्रह्मविद्या को प्राप्त करता है और दूसरों के लिए इसका प्रवचन करनेवाला बनता है । प्राणसाधना ही वस्तुतः हमें ‘दध्यङ् आथर्वण’ बनाती है । चित्तवृत्ति का निरोध करके ही तो हम दध्यङ् बनेंगे । चित्तवृत्तिनिरोध का एकमात्र साधन प्राणायाम है । इससे हम अन्तर्दृष्टि बनते हैं और अन्तः स्थित प्रभु को देखते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना हमें वह मस्तिष्क प्राप्त कराती है जो ब्रह्म का प्रतिपादन करनेवाला होता है ।
विषय
missing
भावार्थ
हे ( नरा ) सन्मार्ग में लेजाने वाले उपदेशक और अध्यापक जनो ! ( तन्यतुः ) घोर शब्दकारी विद्युत् जिस प्रकार वृष्टि को प्रकट करती है उसी प्रकार मैं ( दध्वङ् आथर्वणः ) धारण करने योग्य ऐश्वर्यों को प्राप्त राजा किसी प्रकार की भी हिंसा न करने वाले शमादि युक्त मां बाप और प्रजापालक गुरुओं का शिष्य होकर ( वां ) आप दोनों स्त्री पुरुष वर्गों को ( सनये ) ज्ञान और ऐश्वर्य प्रदान करने के लिये ( अश्वस्य शीर्ष्णा ) अश्व सैन्य या भोक्ता राजा होने के प्रमुख अधिकार से ( उग्रम् दंसः ) अति उग्र, प्रबल अज्ञान और पाप के नाशक ज्ञान और दण्ड प्रयोग का भी ( आविष्कृणोमि ) प्रयोग करूं, ( यत् ) जैसे ( दध्यङ् ) ज्ञान का धारण करने वाला ( अथर्वणः ) अथर्ववेद का ज्ञाता विद्वान् ( वाम् ) तुम दोनों को ( अश्वस्य शीर्ष्णा ) सकल विज्ञानों में पारंगत आचार्य के ( शीर्ष्णा ) मुख्य पद से ( वाम् ) तुम दोनों को ( मधु ) मधुर आनन्दजनक ज्ञान का ( प्र उवाच ) प्रवचन करता है । अर्थात् प्रशान्त, वेदविद् विद्वान् जिस प्रकार प्रमुख होकर ज्ञान प्रदान करे उसी प्रकार राष्ट्र की ऐश्वर्य की वृद्धि के लिये राजा अपने दण्ड आदि उग्र कर्म को भी मेघ के समान निष्पक्षपात होकर ( अश्वस्य शीर्ष्णा ) अश्व बल तथा राष्ट्र में व्यापक, भोक्ता राजा होने के मुख्य बल से करे । राजा जब अपने मधु रूप पृथिवी राज्य को प्रजावर्गों को सौंप देता है तब भी उसका भोक्ता होने का मुख्य पद लुप्त हो जाता है और इसी प्रकार ब्रह्मज्ञानी शिष्य वर्गों को अपना पूर्ण ज्ञान देकर अपने बराबर बना देता है तब वह भी उनको स्नातक बना देने से उनके प्रति गुरु का कार्य नहीं करता । इसी को अलंकार से अश्वियों को अश्व के शिर से उपदेश करना और पुनः उसका छेदन करना कहा गया है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, १०, २२, २३ विराट् त्रिष्टुप्। २, ८, ९, १२, १३, १४, १५, १८, २०, २४, २५ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ४, ५, ७, २१ त्रिष्टुप् । ६, १६, १९ भुरिक् पंक्तिः। ११ पंक्तिः। १७ स्वराट् पंक्तिः॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे वृष्टीशिवाय कुणालाही सुख मिळू शकत नाही. तसे विद्वान व विद्या याखेरीज सुख मिळत नाही व बुद्धीची वाढ होऊ शकत नाही. त्याखेरीज धर्म इत्यादी गोष्टी सिद्ध होत नाहीत. त्यासाठी या कर्माचे अनुष्ठान माणसांनी सदैव करावे. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, leaders of men in knowledge and action, that marvellous work of yours in the interest of social good, I explain and proclaim in detail like thunder and lightning raining showers from the cloud, work and knowledge sweet as honey which the man of love and reverence, Dadhyang, child and disciple of the sober sage of non-violence, Atharvan, taught you from his mind inspired with wisdom and passion for superfast action in the form of a full treatise on the subject.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O leaders (teachers and preachers) pursuing a good and wise policy, having acquired knowledge from you, I who am the son of a man of non-violent nature and one who approaches the upholders of Dharma (righteousness) and Vidya (wisdom) reveal for the enjoyment of happiness, as the lightning manifests or produces rain, your sublime and mighty deed. You should also manifest or bring before the public that great scholar who has taught you and me the sweet knowledge of the Shastras, with the noble action like that of the Acharya who pervades (is expert in ) all sciences.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(दंसः) कर्म = Deed. (तन्यतुः ) विद्युत् = Lightning. (दध्यङ ) दधीन विद्याधर्मधारकान् अंचति प्राप्नोति सः = Who approaches the upholders of Vidya (wisdom) and Dharma (righteousness) (शीर्ष्णा) शिरोवत् कर्मणा = By the sublime deed that is like the head in the body.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As no one can get happiness without the rain, so none can get delight and increase his intellectual power, without the help of knowledge and great scholars. Without them knowledge and happiness, Dharma and other objects of life cannot be accomplished. Therefore this act of acquiring knowledge and association with great scholars must be done by all.
Translator's Notes
(आथर्वणः) अहिंसकस्यापत्यं दंस इति कर्मनाम (निघ० २.१ ) The word दध्यङ् is derived from डु धाञ-धारणपोषणयो and अञ्चुगति पूजनयो: hence the above meaning given by Rishi Dayananda Sarasvati. It is wrong on the part of Sayanacharya and others to take it as the name of a particular sage and to associate absurd myth with it. आथर्वण is from अथर्व हिंसायाम् (काशकृत्स्न धातु पाठे) अथर्वण: अपत्यम् आथर्वणः । Therefore the above meaning has been given by Rishi Dayananda.
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