ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 118/ मन्त्र 8
यु॒वं धे॒नुं श॒यवे॑ नाधि॒तायापि॑न्वतमश्विना पू॒र्व्याय॑। अमु॑ञ्चतं॒ वर्ति॑का॒मंह॑सो॒ निः प्रति॒ जङ्घां॑ वि॒श्पला॑या अधत्तम् ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒वम् । धे॒नुम् । श॒यवे॑ । ना॒धि॒ताय॑ । अपि॑न्वतम् । अ॒श्वि॒ना॒ । पू॒र्व्याय॑ । अमु॑ञ्चतम् । वर्ति॑काम् । अंह॑सः । निः । प्रति॑ । जङ्घा॑म् । वि॒श्पला॑याः । अ॒ध॒त्त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
युवं धेनुं शयवे नाधितायापिन्वतमश्विना पूर्व्याय। अमुञ्चतं वर्तिकामंहसो निः प्रति जङ्घां विश्पलाया अधत्तम् ॥
स्वर रहित पद पाठयुवम्। धेनुम्। शयवे। नाधिताय। अपिन्वतम्। अश्विना। पूर्व्याय। अमुञ्चतम्। वर्तिकाम्। अंहसः। निः। प्रति। जङ्घाम्। विश्पलायाः। अधत्तम् ॥ १.११८.८
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 118; मन्त्र » 8
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे अश्विना सकलविद्याव्यापिनौ स्त्रीपुरुषौ युवं युवां नाधिताय पूर्व्याय शयवे धेनुमपिन्वतं यमंहसो निरमुञ्चतं तस्माद्विश्पलाया पालनाय जङ्घां वर्त्तिकां प्रत्यधत्तम् ॥ ८ ॥
पदार्थः
(युवम्) (धेनुम्) सुशिक्षितां वाचम् (शयवे) सुखेन शयानाय (नाधिताय) ऐश्वर्ययुक्ताय (अपिन्वतम्) (अश्विना) सुशिक्षितौ स्त्रीपुरुषौ (पूर्व्याय) पूर्वैर्विद्वद्भिः कृताय निष्पादिताय विदुषे (अमुञ्चतम्) मुञ्चेताम् (वर्त्तिकाम्) विनयादिसहितां नीतिम् (अंहसः) अधर्मानुष्ठानात् (निः) निर्गते (प्रति) (जङ्घाम्) सर्वसुखजनिकाम्। अच् तस्य जङ्घ च। उ० ५। ३१। इति जन धातोरच् प्रत्ययो जङ्घादेशश्च। (विश्पलायाः) प्रजायाः (अधत्तम्) दध्यातम् ॥ ८ ॥
भावार्थः
राजपुरुषाः सर्वानैश्वर्ययुक्तान् परस्परं धनाढ्यकुलोद्गतान् प्रजास्थान् सत्यन्यायेन सन्तोष्य ब्रह्मचर्येण विद्याग्रहणाय प्रवर्त्तयध्वम्। यतः कस्यापि पुत्रः पुत्री च विद्यासुशिक्षे अन्तरा नावशिष्येत् ॥ ८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (अश्विना) अच्छी सीख पाये हुए समस्त विद्याओं में रमते हुए स्त्री-पुरुषो ! (युवम्) तुम दोनों (नाधिताय) ऐश्वर्य्ययुक्त (पूर्व्याय) अगले विद्वानों ने किये हुए (शयवे) जो कि सुख से सोता है उस विद्वान् के लिये (धेनुम्) अच्छी सीख दी हुई वाणी को (अपिन्वतम्) सेवन करो, जिसको (अंहसः) अधर्म के आचरण से (निरमुञ्चतम्) निरन्तर छुड़ाओ उससे (विश्पलायाः) प्रजाजनों की पालना के लिये (जङ्घाम्) सब सुखों की उत्पन्न करनेवाली (वर्त्तिकाम्) विनय, नम्रता आदि गुणों के सहित उत्तम नीति को (प्रत्यधत्तम्) प्रतीति से धारण करो ॥ ८ ॥
भावार्थ
राजपुरुष सब ऐश्वर्ययुक्त परस्पर धनीजनों के कुल में हुए प्रजाजनों को सत्यन्याय से सन्तोष दे उनको ब्रह्मचर्य के नियम से विद्या ग्रहण करने के लिये प्रवृत्त करावें, जिससे किसी का लड़का और लड़की विद्या और उत्तम शिक्षा के विना न रह जाय ॥ ८ ॥
विषय
शयु के लिए धेनु का आप्यायन
पदार्थ
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (युवम्) = आप (शयवे) = अपने हृदय - क्षेत्र में ही शयन [निवास] करनेवाले , अर्थात् आत्मनिरीक्षण की वृत्तिवाले (नाधिताय) = उत्तम कामनाओंवाले [नाधू - आशीः] , (पूर्व्याय) = अपना पालन व पूरण करनेवालों में उत्तम पुरुष के लिए (धेनुम्) = ज्ञान - दुग्ध देनेवाली वेदवाणीरूप गौ को (अपिन्वतम्) = खूब पयस्विनी [ज्ञानदुग्ध देनेवाली] बना देते हो , अर्थात् यह शयु वेदवाणी को खूब समझनेवाला बनता है और वेदज्ञान से अपने को पूर्ण करता है । २. हे प्राणापानो ! आप (वर्तिकाम्) = दैनिक कार्यों के वर्तन को (अंहसः) = लोभरूप पाप से (निः अमुञ्चतम्) = मुक्त करते हो । प्राणसाधना होने पर मनुष्य लोभ से ऊपर उठ जाता है , ऐसा नहीं होता कि लोभ के कारण यह अपने नैत्यिक कार्यक्रम को ही भूल जाए । ३. आप (विश्पलायै) = प्रजा का उत्तमता से पालन करनेवाली के लिए (जङ्घाम्) = जाँघ को (प्रत्यधत्तम्) = प्रतिदिन प्राप्त कराते हो । यह प्रजापालन की वृत्तिवाली गृहिणी [हन् हिंसागत्योः] विघ्नों को दूर करती हुई गतिशील बनी रहती है , अपने कार्यों में थकती नहीं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से हमें ज्ञान प्राप्त होता है । हमारा दैनिक कार्यक्रम लोभवश विपर्यस्त नहीं हो जाता और हम प्रजापालन करते हुए निर्विघ्न गतिवाले होते हैं ।
विषय
विद्वान् प्रमुख नायकों और स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।
भावार्थ
हे ( अश्विना ) विद्वान् स्त्री पुरुषो ! एवं नायक पुरुषो ! आप दोनों (शयवे) अज्ञान निद्रा में सोने वाले और ( नाधिताय ) ऐश्वर्य युक्त अथवा प्रार्थनाशील ( पूर्व्याय ) उत्तम पूर्व पुरुषों से युक्त अथवा पूर्व शुभ संस्कारों से युक्त पुरुष के उद्धारक ( धेनुम् ) वेद वाणी को (अपिन्वतम्) काम धेनु के समान ज्ञानरस देने वाली बना देते हो, उसको उपदेश करते हो । और ( अंहसः ) पापाचार से ( वर्त्तिकाम् ) उद्योग आदि से निर्वाह करनेवाली प्रजा को ( अमुञ्चतम् ) छुड़ाओ । और ( विश्पलायाः ) प्रजाओं के पालन करने की नीति को ( जंघां ) दुष्टों के हनन करने की शक्ति ( अधत्तम् ) प्रदान करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, ११ भुरिक् पंक्तिः । २, ५, ७ त्रिष्टुप् । ३, ६, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ८ विराट् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
राजपुरुषांनी सर्व प्रकारच्या ऐश्वर्याने युक्त असलेल्या धनाढ्य कुलातील प्रजाजनांना सत्य न्यायाने संतुष्ट करून त्यांना ब्रह्मचर्याच्या नियमाने विद्या ग्रहण करण्यास लावावे किंवा प्रवृत्त करावे. ज्यामुळे कुणाचाही मुलगा व मुलगी विद्या व उत्तम शिक्षणाविना राहता कामा नये. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, for the man of hereditary power and prosperity sleeping in ignorance and indifference, bring up the rousing call of divine speech. Rescue and save the poor, victimised people from sin and violence of injustice and give them a strong, protective and promotive social and political policy for development.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O highly learned men and women! You endow with cultured speech a man who is wealthy, who sleeps well on account of exertion in day time and who has been trained You restrain a wise person by elderly experienced persons. from sinful activities and give him knowledge of true policy that confers happiness for the protection of the subjects and is endowed with humility.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(धेनुम् ) सुशिक्षितां वाचम् = Refined speech. (नाधिताय) ऐश्वर्ययुक्ताय = Wealthy. (वर्तिकाम्) विनयादिसहितां नीतिम् = The policy endowed with humility. (जंघाम्) सर्वसुखजनिकाम् । अच् तस्य जंघच (उणादि० ५.३१) इति जनधातोरच् प्रत्ययो जंघादेशश्च । = Confrere of all happiness. (विश्पलाया:) प्रजाया: = Of the subjects.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O officers of the State, It is your duty to please all wealthy people and other subjects with true justice and prompt them to acquire knowledge with the observance of Brahmacharya (continence) so that no son or daughter of any family remains devoid of wisdom and good education.
Translator's Notes
नाधिताय is from नाधृ-याच्यौपतापैश्वर्याशी: षु here the third meaning of has been taken by the Rishi. धेनुरिति वाङ्नाम (निघ० १.११)
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