ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 120/ मन्त्र 3
ऋषिः - उशिक्पुत्रः कक्षीवान्
देवता - अश्विनौ
छन्दः - स्वराट्ककुबुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
ता वि॒द्वांसा॑ हवामहे वां॒ ता नो॑ वि॒द्वांसा॒ मन्म॑ वोचेतम॒द्य। प्रार्च॒द्दय॑मानो यु॒वाकु॑: ॥
स्वर सहित पद पाठता । वि॒द्वांसा॑ । ह॒वा॒म॒हे॒ । वा॒म् । ता । नः॒ । वि॒द्वांसा॑ । मन्म॑ । वो॒चे॒त॒म् । अ॒द्य । प्र । आ॒र्च॒त् । दय॑मानः । यु॒वाकुः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ता विद्वांसा हवामहे वां ता नो विद्वांसा मन्म वोचेतमद्य। प्रार्चद्दयमानो युवाकु: ॥
स्वर रहित पद पाठता। विद्वांसा। हवामहे। वाम्। ता। नः। विद्वांसा। मन्म। वोचेतम्। अद्य। प्र। आर्चत्। दयमानः। युवाकुः ॥ १.१२०.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 120; मन्त्र » 3
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथाध्यापकोपदेशकौ विद्वांसो किं कुर्य्यातामित्याह ।
अन्वयः
यौ विद्वांसाऽद्य नो मन्म वोचेतं ता विद्वांसा वां वयं हवामहे, यो दयमानो युवाकुर्जनस्ता प्रार्चत्। तं सत्कुर्यातम् ॥ ३ ॥
पदार्थः
(ता) तौ सकलविद्याजन्यप्रश्नानुत्तरैः समाधातारौ (विद्वांसा) पूर्णविद्यायुक्तावाप्तावध्यापकोपदेशकौ। अत्राकारादेशः। (हवामहे) आदद्मः (वाम्) युवाम् (ता) तौ (नः) अस्मभ्यम् (विद्वांसा) सर्वशुभविद्याविज्ञापकौ (मन्म) मन्तव्यं वेदोक्तं ज्ञानम् (वोचेतम्) ब्रूतम् (अद्य) अस्मिन् वर्त्तमानसमये (प्र) (आर्चत्) सत्कुर्यात् (दयमानः) सर्वेषामुपरि दयां कुर्वन् (युवाकुः) यो यावयति मिश्रयति संयोजयति सर्वाभिर्विद्याभिः सह जनान् सः ॥ ३ ॥
भावार्थः
अस्मिन् संसारे यो यस्मै सत्या विद्याः प्रदद्यात् स तं मनोवाक्कायैः सेवेत। यः कपटेन विद्यां गूहेत तं सततं तिरस्कुर्यात्। एवं सर्वे मिलित्वा विदुषां मानमविदुषामपमानं च सततं कुर्युर्यतः सत्कृता विद्वांसो विद्याप्रचारे प्रयतेरन्नसत्कृता अविद्वांसश्च ॥ ३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब अध्यापक और उपदेशक विद्वान् क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जो (विद्वांसा) पूरी विद्या पढ़े उत्तम आप्त अध्यापक तथा उपदेशक विद्वान् (अद्य) इस समय में (नः) हम लोगों के लिये (मन्म) मानने योग्य उत्तम वेदों में कहे हुए ज्ञान का (वोचेतम्) उपदेश करें (ता) उन समस्त विद्या से उत्पन्न हुए प्रश्नों के उत्तर देने और (विद्वांसा) सब उत्तम विद्याओं के जतानेहारे (वाम्) तुम दोनों विद्वानों को हम लोग (हवामहे) स्वीकार करते हैं जो (दयमानः) सबके ऊपर दया करता हुआ (युवाकुः) मनुष्यों को समस्त विद्याओं के साथ संयोग करानेहारा मनुष्य (ता) उन तुम दोनों विद्वानों का (प्र, आर्चत्) सत्कार करे, उसका तुम सत्कार करो ॥ ३ ॥
भावार्थ
इस संसार में जो जिसके लिये सत्य विद्याओं को देवे वह उसको मन, वाणी और शरीर से सेवे और जो कपट से विद्या को छिपावे उसका निरन्तर तिरस्कार करे। ऐसे सब लोग मिल-मिलाके विद्वानों का मान और मूर्खों का अपमान निरन्तर करें, जिससे सत्कार को पाये हुए विद्वान् विद्या के प्रचार करने में अच्छे-अच्छे यत्न करें और अपमान को पाये हुए मूर्ख भी करें ॥ ३ ॥
विषय
दयमानो युवाकुः
पदार्थ
१. (विद्वांसा ता वाम्) = ज्ञानी उन आप अश्विदेवों को (हवामहे) = हम पुकारते हैं । प्राणापान की साधना से मनुष्य की बुद्धि सूक्ष्म होकर उसका ज्ञान बढ़ता है , अतः प्राणापान को ही ‘विद्वांस’ इस रूप में कहा गया है । २. (ता विद्वांसा) = ज्ञानवृद्धि के साधनभूत हे प्राणापानो ! (अद्य) = आज (नः) = हमारे लिए (मन्म) = ज्ञातव्य स्तोत्र को (वोचेतम्) = उच्चारण करनेवाले होओ । प्राणसाधना के द्वारा जहाँ हम ज्ञानी बनें , वहाँ प्रभुस्तवन की वृत्तिवाले हों । ३. प्राणसाधना करनेवाला पुरुष (प्रार्चत्) = प्रभु की प्रकृष्ट अर्चना करता है , (दयमानः) = यह सब प्राणियों का रक्षण करनेवाला बनता है [देङ् रक्षणे] तथा (युवाकुः) = बुराइयों से अपना अमिश्रण करनेवाला तथा अच्छाइयों से अपने को मिलानेवाला होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से ज्ञान व प्रभुस्तवन की प्रवृत्ति बढ़ती है । मनुष्य अर्चनावाला होता हुआ प्राणियों का रक्षक बनता है और अपने को श्रेष्ठ बनाता है ।
विषय
विद्वान् प्रमुख नायकों और स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।
भावार्थ
हम ( ता ) उन दोनों ( विद्वांसा ) विद्वान् पुरुषों को (हवामहे) आदरपूर्वक स्वीकार करें और ( ता ) वे आप दोनों ही ( अद्य ) आज, अब, नित्य (नः) हमें ( मन्म ) मनन करने योग्य ज्ञान का ( वोचेतम् ) उपदेश करें । ( युवाकुः ) तुम दोनों का सच्चा प्रिय पुरुष या सबको विद्योपदेश से मिलाने हारा, उपदेष्टा पुरुष ( दयमानः ) सब पर दयालु होकर ( प्र अर्चत् ) तुम दोनों का सत्कार करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
औशिक्पुत्रः कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः- १, १२ पिपलिकामध्या निचृद्गायत्री । २ भुरिग्गायत्री । १० गायत्री । ११ पिपीलिकामध्या विराड् गायत्री । ३ स्वराट् ककुबुष्णिक् । ५ आर्ष्युष्णिक् । ६ विराडार्ष्युष्णिक् । ८ भुरिगुष्णिक् । ४ आर्ष्यनुष्टुप् । ७ स्वराडार्ष्यनुष्टुप् । ९ भुरिगनुष्टुप् । द्वादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या संसारात जो ज्याच्यासाठी सत्यविद्या देतो त्याने ते मन, वाणी व शरीराने सेवन करावे. जो कपटाने विद्या लपवितो त्याचा निरंतर तिरस्कार करावा. सर्व लोकांनी मिळून विद्वानांना मान द्यावा व मूर्खांचा अपमान करावा. सत्कार झालेल्या विद्वानांनी विद्येचा प्रचार करण्याचा प्रयत्न करावा. तसाच अविद्वानांनी करावा. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The same, Ashvins, harbingers of light and knowledge, we invoke. Both, we pray, universal teachers and benefactors, reveal to us the knowledge wanted and loved at heart today here and now. Invoking, yearning to join you and the knowledge earnestly desired, praying for sympathy and grace, may this humanity look up to you for guidance on the way forward.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should learned teachers and preachers do is taught in the third mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
We accept you as teachers and preachers who are great scholars able to solve our problems or answer all our questions satisfactorily. Please tell us about the Vedic Wisdom to-day. You should also honor the person who is kind to all beings and who endowing with good knowledge honors you.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(मन्म) मन्तव्यं वेदोक्तं ज्ञानम् = The Vedic Wisdom that is to be reflected upon. (मन-ज्ञाने दिवा०) Tr. (युवाकु:) यः याबयति मिश्रयति संयोजयति सर्वाभिः विद्याभिः सह जनान् = Who makes men endowed with the knowledge of all Sciences. (यु मिश्रणा मिश्रणयोः) = Here the first meaning of fis taken.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
A man should serve a good teacher or preceptor with body, mind and speech. The man who conceals knowledge deceitfully, should be dishonored. So all should honor great scholars and disrespect the ignorant, so that respected scholars be always engaged in spreading knowledge and dishonored ignorant persons may also be compelled to acquire knowledge.
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