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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 120 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 120/ मन्त्र 4
    ऋषिः - उशिक्पुत्रः कक्षीवान् देवता - अश्विनौ छन्दः - आर्ष्यनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    वि पृ॑च्छामि पा॒क्या॒३॒॑ न दे॒वान्वष॑ट्कृतस्याद्भु॒तस्य॑ दस्रा। पा॒तं च॒ सह्य॑सो यु॒वं च॒ रभ्य॑सो नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । पृ॒च्छा॒मि॒ । पा॒क्या॑ । न । दे॒वान् । वष॑ट्ऽकृतस्य । अ॒द्भु॒तस्य॑ । द॒स्रा॒ । पा॒तम् । च॒ । सह्य॑सः । यु॒वम् । च॒ । रभ्य॑सः । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि पृच्छामि पाक्या३ न देवान्वषट्कृतस्याद्भुतस्य दस्रा। पातं च सह्यसो युवं च रभ्यसो नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि। पृच्छामि। पाक्या। न। देवान्। वषट्ऽकृतस्य। अद्भुतस्य। दस्रा। पातम्। च। सह्यसः। युवम्। च। रभ्यसः। नः ॥ १.१२०.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 120; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे दस्राश्विनावध्यापकोपदेशकावहं युवं युवां सह्यसो रभ्यसः पाक्या देवान्नेव वषट्कृतस्याद्भुतस्य विज्ञानाय प्रश्नान् विपृच्छामि युवां च तान् समाधत्तम्। यतोऽहं भवन्तौ सेवे युवां च नोऽस्मान् पातम् ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (वि) (पृच्छामि) (पाक्या) विद्यायोगाभ्यासेन परिपक्वधियः। अत्राकारादेशः। (न) इव (देवान्) विदुषः (वषट्कृतस्य) क्रियानिष्पादितस्य शिल्पविद्याजन्यस्य (अद्भुतस्य) आश्चर्यगुणयुक्तस्य (दस्रा) दुःखोपक्षयितारौ (पातम्) रक्षतम् (च) (सह्यसः) सहीयसोऽतिशयेन बलवतः। अत्र सह धातोरसुन् ततो मतुप् तत ईयसुनि विन्मतोरिति मतुब् लोपः। टेरिति टिलोपः। छान्दसो वर्णलोपो वेतीकारलोपः। (युवम्) युवाम् (च) (रभ्यसः) अतिशयेन रभस्विनः सततं प्रौढपुरुषार्थान्। पूर्ववदस्यापि सिद्धिः (नः) अस्मान् ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    विद्वांसो नित्यमाबालवृद्धान् प्रति सिद्धान्तविद्या उपदिशेयुर्यतस्तेषां रक्षोन्नती स्याताम्। ते च तान् सेवित्वा सुशीलतया पृष्ट्वा समाधानानि दधीरन्। एवं परस्परमुपकारेण सर्वे सुखिनः स्युः ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (दस्रा) दुःखों के दूर करने, पढ़ाने और उपदेश करनेहारे विद्वानो ! मैं (युवम्) तुम दोनों को (सह्यसः) अतीव विद्याबल से भरे हुए (रभ्यसः) अत्यन्त उत्तम पुरुषार्थयुक्त (पाक्या) विद्या और योग के अभ्यास से जिनकी बुद्धि पक गई उन (देवान्) विद्वानों के (न) समान (वषट्कृतस्य) क्रिया से सिद्ध किये हुए शिल्पविद्या से उत्पन्न होनेवाले (अद्भुतस्य) आश्चर्य्य रूप काम के विज्ञान के लिये प्रश्नों को (वि, पृच्छामि) पूछता हूँ (च) और तुम दोनों उनके उत्तर देओ जिससे मैं तुम्हारी सेवा करता हूँ (च) और तुम (नः) हमारी (पातम्) रक्षा करो ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    विद्वान् जन नित्य बालक आदि वृद्ध पर्य्यन्त मनुष्यों को सिद्धान्त विद्याओं का उपदेश करें, जिससे उनकी रक्षा और उन्नति होवे और वे भी उनकी सेवा कर अच्छे स्वभाव से पूछ कर विद्वानों के दिये हुए समाधानों को धारण करें, ऐसे हिलमिल के एक दूसरे के उपकार से सब सुखी हों ॥ ४ ॥

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    विषय

    भोजन - यज्ञ व प्राणों का सोमपान

    पदार्थ

    १. हे प्राणापानो ! (दस्रा) = आप ही सब दोषों का उपक्षय करनेवाले हो । आपसे मैं (विपृच्छामि) = विशेषरूप से यह कहने के लिए कहता हूँ कि (वषट्कृतस्य) = शरीर की वैश्वानर [जाठर] अग्नि में स्वाहाकृत - भोजन के समय आहुतिरूप में डाले गये (अद्भुतस्य) = आश्चर्यकर (सह्यसः) = सब रोगों का अभिभव करनेवाले सोम का (पातम्) = पान करो (च + च) = और (युवम्) = आप (नः) = हमें (रभ्यसः) = शक्तिशाली बनाओ । आपकी साधना से ही सोम का शरीर में रक्षण होगा , उस सोम का जोकि अदभुत वस्तु है , सब रोगों का अभिभव करनेवाला है । इसके रक्षण से ही हम शक्तिशाली बनते हैं । २. मैं इस बात के लिए आपसे उसी प्रकार प्रार्थना करता हूँ (न) = जैसे कि (पाक्या देवान्) = परिपक्व बुद्धिवाले विद्वानों से विद्यार्थी प्रश्न किया करते हैं ; उनसे प्रश्न करके वे अपना ज्ञान बढ़ा पाते हैं । आपसे प्रार्थना करके मैं अपनी शक्ति को बढ़ा पाऊँगा । भोजन को भी हम एक यज्ञ का रूप दें । सात्विक भोजन को ही जाठराग्नि में आहुत करें , उससे उत्पन्न सोम का आपकी साधना के द्वारा पान करने का प्रयत्न करें ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम सात्त्विक भोजन के द्वारा उत्पन्न सोम को प्राणसाधना द्वारा शरीर में ही सुरक्षित करने का प्रयत्न करें ।

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    विषय

    विद्वान् प्रमुख नायकों और स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( दस्रा ) दुःखों के विनाश करने हारे ! आप दोनों (पाक्या) परिपक्व विज्ञान वालों से ही मैं इस ( अद्भुतस्य ) अद्भुत, आश्चर्यकारी ( वषट्कृतस्य ) वषट्कार, यज्ञ-आहुति या आदान प्रतिदान, सृष्टिगत सर्ग और प्रलय के विषय में, अन्य विद्वानों के समान ( विपृच्छामि ) विविध प्रश्न पूछता हूं । ( युवं ) आप दोनों ( सह्यसः ) सहनशील, शत्रु पराजयकारी और ( रभ्यसः ) अति वेगवान्, शीघ्रकारी ( नः ) हम सबकी ( पातं च ) रक्षा भी करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    औशिक्पुत्रः कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः- १, १२ पिपलिकामध्या निचृद्गायत्री । २ भुरिग्गायत्री । १० गायत्री । ११ पिपीलिकामध्या विराड् गायत्री । ३ स्वराट् ककुबुष्णिक् । ५ आर्ष्युष्णिक् । ६ विराडार्ष्युष्णिक् । ८ भुरिगुष्णिक् । ४ आर्ष्यनुष्टुप् । ७ स्वराडार्ष्यनुष्टुप् । ९ भुरिगनुष्टुप् । द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वान लोकांनी सदैव बालकापासून वृद्धापर्यंत माणसांना सिद्धांत विद्यांचा उपदेश करावा. ज्यामुळे त्यांचे रक्षण व उन्नती व्हावी व त्यांनीही त्यांची सेवा करावी. विद्वानांना नम्रतेने विचारून समाधानी व्हावे अशा प्रकारे मिळून मिसळून एक दुसऱ्यावर उपकार करून सुखी व्हावे. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, generous givers, and destroyers of want and ignorance, I ask you questions about the mysterious knowledge of analysis, integration and formulaic structure and formation of things in creation and science, brilliant veterans, dynamic and tolerant as well as enduring as you are, both scholars and teachers. May we offer you homage and reverence, and may you, we pray, guide and protect us.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O teachers and preachers, destroyers of all miseries, I ask you questions like the scholars who are mighty, quick, industrious, of mature wisdom with knowledge and the practice of Yoga, for acquiring the knowledge of wonderful industrial productions. Please answer our questions. As we serve you, you may also protect us.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (पाक्या) विद्यायोगाभ्यासेन परिपक्वधियः अत्राकारादेशः । = Men of mature wisdom on account of knowledge and the practice of Yoga. (वषट्-कृतस्य) क्रियानिष्पादितस्य शिल्पविद्याजन्यस्य | = Of the Industrial production. (रम्यस:) अतिशयेन रभस्विनः सततं प्रौढ़पुरुषार्थान् = Constantly industrious.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Scholars should instruct all persons, the aged as well children about the principles of all sciences so that they get protection and achieve progress. They People) should serve them and ask them questions with humility and get their answers with the solution of their problems. Thus benefiting mutually, all may enjoy happiness.

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