ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 120/ मन्त्र 5
ऋषिः - उशिक्पुत्रः कक्षीवान्
देवता - अश्विनौ
छन्दः - आर्ष्युष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
प्र या घोषे॒ भृग॑वाणे॒ न शोभे॒ यया॑ वा॒चा यज॑ति पज्रि॒यो वा॑म्। प्रैष॒युर्न वि॒द्वान् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । या । घोषे॑ । भृग॑वाणे । न । शोभे॑ । यया॑ । वा॒चा । यज॑ति । प॒ज्रि॒यः । वा॒म् । प्र । इ॒ष॒ऽयुः । न । वि॒द्वान् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र या घोषे भृगवाणे न शोभे यया वाचा यजति पज्रियो वाम्। प्रैषयुर्न विद्वान् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र। या। घोषे। भृगवाणे। न। शोभे। यया। वाचा। यजति। पज्रियः। वाम्। प्र। इषऽयुः। न। विद्वान् ॥ १.१२०.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 120; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे अश्विनौ पज्रिय इषयुर्विद्वान्न यया वाचा वां प्रयजति तयाऽहं शोभे या विदुषी स्त्री भृगवाणे घोषे यजति न दृश्यते तयाऽहं तां प्रयजेयम् ॥ ५ ॥
पदार्थः
(प्र) (या) विदुषी (घोषे) उत्तमायां वाचि (भृगवाणे) यो भृगुः परिपक्वधीर्विद्वानिवाचरति तस्मिन्। भृगुशब्दादाचारे क्विप् ततो नामधातोर्व्यत्ययेनात्मनेपदे शानच् छन्दस्युभयथेति शानच आर्द्धधातुकत्वाद् गुणः। (न) इव (शोभे) प्रदीप्तो भवेयम् (यया) (वाचा) विद्यासुशिक्षायुक्तया वाण्या (यजति) पूजयति (पज्रियः) यः पज्रान् प्राप्तव्यान् बोधानर्हति सः (वाम्) युवाम् (प्र) (इषयुः) इष्यते सर्वैर्जनैर्विज्ञायते यत्तद्याति प्राप्नोतीति। इष धातोर्घञर्थे कविधानमिति कः। तस्मिन्नुपपदे याधातोरौणादिकः कुः। (न) इव (विद्वान्) ॥ ५ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। हे अध्यापकोपदेशकौ भवन्तावाप्तवत्सर्वस्य कल्याणाय नित्यं प्रवर्त्तेताम्। एवं विदुषी स्त्र्यपि। सर्वे जना विद्याधर्मसुशीलतादियुक्ताः सन्तः सततं शोभेरन्। नैव कोऽपि विद्वानविदुष्या स्त्रिया सह विवाहं कुर्यात् न कापि खलु मूर्खेण सह विदुषी च किन्तु मूर्खो मूर्खया विद्वान् विदुष्या च सह सम्बन्धं कुर्यात् ॥ ५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे समस्त विद्याओं में रमे हुए पढ़ाने और उपदेश करनेहारे विद्वानो ! (पज्रियः) पाने योग्य बोधों को प्राप्त (इषयुः) सब जनों के अभीष्ट सुख को प्राप्त होनेवाला मनुष्य (विद्वान्) विद्यावान् सज्जन के (न) समान (यया) जिस (वाचा) वाणी से (वाम्) तुम्हारा (प्र, यजति) अच्छा सत्कार करता है, उस वाणी से मैं (शोभे) शोभा पाऊँ, (प्र) जो विदुषी स्त्री (भृगवाणे) अच्छे गुणों से पक्की बुद्धिवाले विद्वान् के समान आचरण करनेवाले में (घोषे) उत्तम वाणी के निमित्त सत्कार करती (न) सी दीखती है, उस वाणी से मैं उक्त स्त्री का (प्र) सत्कार करूँ ॥ ५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे पढ़ाने और उपदेश करनेहारे विद्वानो ! आप उत्तम शास्त्र जाननेहारे श्रेष्ठ सज्जन के समान सबके सुख के लिये नित्य प्रवृत्त रहो, ऐसे विदुषी स्त्री भी हो। सब मनुष्य विद्याधर्म और अच्छे शीलयुक्त होते हुए निरन्तर शोभायुक्त हों। कोई विद्वान् मूर्ख स्त्री के साथ विवाह न करे और न कोई पढ़ी स्त्री मूर्ख के साथ विवाह करे, किन्तु मूर्ख मूर्खा से और विद्वान् मनुष्य विदुषी स्त्री से सम्बन्ध करें ॥ ५ ॥
विषय
प्रैषयु विद्वान्
पदार्थ
१. (या) = जो वेदवाणी (घोषे) = प्रभु के स्तोत्रों का घोषणा करनेवाले में (प्रयजति) = संगत होती है , (भृगवाणे) = जो वाणी अपना परिपाक करनेवाले में उसी प्रकार संगत होती है (न) = जैसे कि (शोभे) = उत्तम गुणों से अपने को शोभित करनेवाले में और (यया वाचा) = जिस वाणी से (पज्रियः) = शक्तिशाली पुरुष (वाम्) = आपका (यजति) = पूजन करता है , वही वाणी मुझमें (प्र) = [भवतु सा०] प्रभाव व शक्ति को उत्पन्न करनेवाली हो । वेदवाणी का सम्पर्क उन्हीं को प्राप्त होता है जो [क] प्रभु के नाम का उच्चारण करते हुए प्रभुभक्त बनते हैं , [ख] जो अपने को तपस्या वा ज्ञानाग्नि में तपाते हैं , [ग] सद्गुणों से अपने को शोभित करते हैं तथा [घ] जो शक्ति का सम्पादन करते हैं । २. प्राणसाधना के द्वारा अपने जीवन को इस प्रकार का बनाकर हम इस वाणी को अपने साथ संगत करें और (प्रैषयुः विद्वान् न) = उस विद्वान् - ज्ञानी पुरुष के समान बनें जोकि प्रकृष्ट प्रेरणाओं को औरों के लिए प्राप्त कराता है । हम स्वयं ‘घोष , भृगवाण , शोभ व पज्रिय’ बनकर वेदवाणी को अपने साथ संगत करें और उसकी प्रेरणा को सब तक पहुँचाने के लिए यत्नशील हों ।
भावार्थ
भावार्थ - हम साधना के द्वारा ज्ञानी बनकर औरों के लिए ज्ञान देनेवाले बनें ।
विषय
विद्वान् प्रमुख नायकों और स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।
भावार्थ
(यः) जो वाणी ( भृगवाणे घोषे वा ) भृगु अर्थात् इन्द्रियों के धारण और दमन करने वाले सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी पुरुष के तुल्य आचरण करने वाले, सर्व पापनाशक ( घोषे ) वेद जो अति उत्तम प्रभुवाक्य रूप से विद्यमान सर्वोपरि मान्य है उससे मैं भी (प्रशोभे) सुशोभित होऊं । और ( यया वाचा ) जिस वाणी से हे विद्वान् पुरुषो ! ( पज्रियः ) उत्तम ज्ञानों और प्राप्तव्य परमपद के प्राप्त करने में कुशल ( इषयुः न विद्वान् ) वाण चलाने में सिद्धहस्त, लक्ष्यवेध में चतुर पुरुष के समान अपने उद्देश्य तक पहुंचने वाला ( विद्वान् ) विद्वान् ( वाम् यजति ) आप दोनों का सत्संग करता है उससे भी मैं ( प्र शोभे ) खूब सुशोभित होऊं । इति द्वाविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
औशिक्पुत्रः कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः- १, १२ पिपलिकामध्या निचृद्गायत्री । २ भुरिग्गायत्री । १० गायत्री । ११ पिपीलिकामध्या विराड् गायत्री । ३ स्वराट् ककुबुष्णिक् । ५ आर्ष्युष्णिक् । ६ विराडार्ष्युष्णिक् । ८ भुरिगुष्णिक् । ४ आर्ष्यनुष्टुप् । ७ स्वराडार्ष्यनुष्टुप् । ९ भुरिगनुष्टुप् । द्वादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे अध्यापक व उपदेशक विद्वानांनो तुम्ही उत्तम शास्त्र जाणणाऱ्या श्रेष्ठाप्रमाणे सर्वांच्या सुखासाठी सदैव प्रवृत्त व्हा. तसेच विदुषी स्त्रीनेही वागावे. सर्व माणसांनी विद्याधर्म व चांगले शील बनवून निरंतर शोभून दिसावे. कुणी विद्वानाने मूर्ख स्त्रीबरोबर विवाह करू नये. कुणी शिकलेल्या स्त्रीने मूर्खाबरोबर विवाह करू नये; परंतु मूर्खाने मूर्ख स्त्रीशी व विद्वानाने विदुषीबरोबर विवाह करावा. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, harbingers of light and knowledge, that voice which rings like the resounding proclamation of the brilliant visionary, by which the scholar does homage and reverence to you, the same voice and word, we pray, may the teacher speak to us like a scholar in search of food, energy and light for all of us.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Ashvins-teachers and preachers, may I shine with that refined speech with which a man desirous of acquiring good knowledge and wisdom honors you like a scholar. I respect a learned lady who honors deserving virtuous persons, with the noble speech used by men of mature wisdom.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
घोषउत्तमायां वाचि = In good speech. (भृगवाणे) यो भृगुः परिपक्वविद्वान् इव आचरति तस्मिन् | भृगुशब्दादाचारे क्विप् ततो नामधातोर्व्यत्ययेनात्मनेपदे शानच् छन्दस्युभयथेति शानच् आर्धधातुकत्वाद् गुणः = Behaving or acting like a man of mature wisdom. (पज्त्रियः) यः पत्रान् प्राप्तव्यान् अर्हति सः = He who deserves to acquire good knowledge. (इषयु :) इष्यते सर्वे: जनः विज्ञायते यत् तद् याति प्राप्नोति इति ।। = He who acquires the desirable wisdom.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O teachers and preachers, you should always be engaged in bringing about the welfare of all, like absolutely truthful persons. A learned lady should also do likewise. Let all men shine constantly being endowed with knowledge, Dharma (righteousness) and good temperament and character. No scholar should marry an un-educated woman and no highly educated woman hold marry an un-educated man. But men and women of like nature and education should marry one another.
Translator's Notes
It is absurd and ridiculous on the part of Sayanacharya and his followers to interpret the word घोषे as घोषाख्याय पुन सुहस्स्याख्ये ऋषौ = In the son of Ghosha by name Subastya, while as the Vedic Lexicon Nighantu clearly tells us in 1.1 घोष इति वाङ्नाम (निघ० १.११). Griffith's note is “Ghosha-Sayana says that Suhastya, the son of Ghosha is intended. About Pajniyah also he remarks-- One of the descendants of the Angirasas here according to Sayana, the Rishi Kakshivan. Then Griffith adds a note which is remarkable showing how often the Western scholars have given merely conjectural meanings of the Vedic words, not under standing them. ‘‘In this Hyman, as in the preceding, there are several very obscure passages which can only conjecturally be translated and explained. (Griffith’s translation of the Hymn; of the Rigveda Vol. 1 P.164). The word पज्रिय: has been explained by Rishi Dayananda ॥ in Rig. 1. 116.7 as पद धातोः औणादिको रक वर्णव्यत्ययेन दस्य जः, ततो भावार्थे घः || (ऋ० १.११६.७ ) पद-नतौ गतेस्त्र योऽर्था:-ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च अत्र ज्ञानार्थग्रहणं कृतं महर्षिणा । Though there is no mention of Kakshivan or any other particular sage in the Mantra, Sayanacharya has taken it to mean (without any authority). पज्त्रा: - अंगिरस तेषां कुलोत्पन्न: कक्षीवान् = It is therefore to be rejected.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal