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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 120 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 120/ मन्त्र 6
    ऋषिः - उशिक्पुत्रः कक्षीवान् देवता - अश्विनौ छन्दः - विराडार्ष्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    श्रु॒तं गा॑य॒त्रं तक॑वानस्या॒हं चि॒द्धि रि॒रेभा॑श्विना वाम्। आक्षी शु॑भस्पती॒ दन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श्रु॒तम् । गा॒य॒त्रम् । तक॑वानस्य । अ॒हन् । चि॒त् । हि । रि॒रेभ॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । वा॒म् । आ । अ॒क्षी इति॑ । शु॒भः॒ । प॒ती॒ इति॑ । दन् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    श्रुतं गायत्रं तकवानस्याहं चिद्धि रिरेभाश्विना वाम्। आक्षी शुभस्पती दन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    श्रुतम्। गायत्रम्। तकवानस्य। अहम्। चित्। हि। रिरेभ। अश्विना। वाम्। आ। अक्षी इति। शुभः। पती इति। दन् ॥ १.१२०.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 120; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरध्ययनाध्यापनविधिरुच्यते ।

    अन्वयः

    हे अक्षी इव वर्त्तमानौ शुभस्पती अश्विना वां युवयोः सकाशात्तकवानस्य चिदपि गायत्रं श्रुतमादन्नहं हि रिरेभ ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (श्रुतम्) (गायत्रम्) गायन्तं त्रातृविज्ञानम् (तकवानस्य) प्राप्तविद्यस्य। गत्यर्थात्तकधातोरौणादिक उः पश्चाद् भृगवाणवत्। (अहम्) (चित्) अपि (हि) खलु (रिरेभ) रेभ उपदिशानि। व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (अश्विना) विद्याप्रापकावध्यापकोपदेष्टारौ (वाम्) युवाम् (आ) (अक्षी) रूपप्रकाशके नेत्रे इव (शुभस्पती) धर्मस्य पालकौ (दन्) ददन्। डुदाञ् धातोः शतरि छन्दसि वेति वक्तव्यमिति द्विर्वचनाभावे सार्वधातुकत्वान् ङित्वमार्द्धधातुकत्वादाकारलोपश्च ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यद्यदाप्तेभ्योऽधीयते श्रूयते तत्तदन्येभ्यो नित्यमध्याप्यमुपदेशनीयं च। यथाऽन्येभ्यः स्वयं विद्यां गृह्णीयात्तथैव प्रदद्यात्। नो खलु विद्यादानेन सदृशोऽन्यः कश्चिदपि धर्मोऽधिको विद्यते ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर पढ़ने-पढ़ाने की विधि का उपदेश अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (अक्षी) रूपों के दिखानेहारी आँखों के समान वर्त्तमान (शुभस्पती) धर्म के पालने और (अश्विना) विद्या की प्राप्ति कराने वा उपदेश करनेहारे विद्वानो ! (वाम्) तुम्हारे तीर से (तकवानस्य) विद्या पाये विद्वान् के (चित्) भी (गायत्रम्) उस ज्ञान को जो गानेवाले की रक्षा करता है वा (श्रुतम्) सुने हुए उत्तम व्यवहार को (आ, दन्) ग्रहण करता हुआ (अहम्) मैं (हि) ही (रिरेभ) उपदेश करूँ ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जो-जो उत्तम विद्वानों से पढ़ा वा सुना है, उस-उस को औरों को नित्य पढ़ाया और उपदेश किया करें। मनुष्य जैसे औरों से विद्या पावे वैसे ही देवे क्योंकि विद्यादान के समान कोई और धर्म बड़ा नहीं है ॥ ६ ॥

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    विषय

    ज्ञानचक्षुओं का उद्घाटन

    पदार्थ

    १. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! आप (तकवानस्य) = [तक - to rush upon] कामादि शत्रुओं पर आक्रमण करनेवाले के (गायत्रम्) = गायत्रसाम के द्वारा निष्पाद्य स्तोम को - स्तुति को (श्रुतम्) = सुनते हो । कामादि शत्रुओं को जीतने की कामनावाला पुरुष प्राणापान के महत्त्व को समझता हुआ उनका आराधन करता है । प्राणापान को वह गायत्र गायन करनेवाले का रक्षक समझता है , गायत्री छन्द के मन्त्रों द्वारा ही वह इनका स्तवन करता है । (अहं चित् हि) = मैं भी निश्चय से (वाम्) = आपका (रिरेभ) = स्तवन करता हूँ । प्राणापान का स्तवन यही है कि हम प्राणायाम के द्वारा उनकी उपयोगिता को क्रियात्मक रूप में देखनेवाले बनें । २. हे (शुभस्पती) = सब शुभों का रक्षण करनेवाले प्राणापानो ! मैं आपसे (अक्षी) = आँखों को (आदन्) = [आददानाः] ग्रहण करनेवाला होता हूँ । आपकी साधना से मेरे ज्ञानचक्षुः खुल जाते हैं और मैं शुभ कर्मों में ही प्रवृत्त होता हूँ । प्राणसाधना से पूर्व हम इस प्रलोभनपूर्ण संसार में अन्धे - से बन गये थे - उलटे मार्ग पर ही चल पड़े थे । इस साधना के परिणामस्वरूप हमारी आँखें खुल गई और हम सुमार्ग पर चलते हुए शुभों को प्राप्त करनेवाले बनें ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना हमारे ज्ञानचक्षुओं को खोलनेवाली होती है और हमारे जीवन में शुभों का रक्षण करती है ।

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    विषय

    विद्वान् प्रमुख नायकों और स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( शुभस्पती ) शोभाकारी और तेजस्वी, उत्तम ज्ञान के पालक, जल के पालक मेघ के समान ज्ञानवर्षक, प्रमुख विद्वान् स्त्री पुरुषो! ( तकवानस्य ) ज्ञानवान्, विद्यावान् पुरुष का ( श्रुतम् ) श्रवण करने योग्य ( गायत्रम् ) गायन करने वाले की नित्य अज्ञानपूर्वक कुपथ में पड़ जाने से रक्षा करने हारे, ( आक्षी ) आँखों के समान मार्ग दिखाने वाले ( अहंचित् हि ) मैं भी ( वाम् ) आप दोनों के ज्ञान को ( आदन् ) प्राप्त करूं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    औशिक्पुत्रः कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः- १, १२ पिपलिकामध्या निचृद्गायत्री । २ भुरिग्गायत्री । १० गायत्री । ११ पिपीलिकामध्या विराड् गायत्री । ३ स्वराट् ककुबुष्णिक् । ५ आर्ष्युष्णिक् । ६ विराडार्ष्युष्णिक् । ८ भुरिगुष्णिक् । ४ आर्ष्यनुष्टुप् । ७ स्वराडार्ष्यनुष्टुप् । ९ भुरिगनुष्टुप् । द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी विद्वानांकडून जे जे उत्तम शिकलेले व ऐकलेले आहे ते ते इतरांना सदैव शिकवावे व उपदेश करावा. माणूस जसा इतरांकडून विद्या प्राप्त करतो. तशी इतरांनाही द्यावी. कारण विद्यादानासारखा कोणताही मोठा धर्म नाही. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, eyes divine and harbingers of supernal bliss, I have heard your song of omniscience and redemption and, truly by your kindness and grace, I sing in ecstasy.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The method of learning and teaching is now told in the sixth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O teachers and preachers who are like the eyes of men, showing them true path (of Dharma) and enabling them to attain knowledge, protectors of good works, I glorify you. accepting from you the knowledge of a learned person that protects a singer of God's glory.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (गायत्रम्) गायन्तं जातृ विज्ञानम = The knowledge that protects a singer. (तकवानस्य) प्राप्तविद्यम्य गत्यर्थात् तकधातोः औणादिक: उ: प्रत्ययः = Of a learned person तक गतौ अत्र गतेस्त्रिष्वर्थेषु ज्ञानार्थग्रहणम् । - (रिरेभ) रेभा उपदिशानि । व्यत्ययेन परस्मैपदम् । ( रेभु - शब्दे भ्वा० आ० ) (अश्विनी) विद्याप्रापको अध्यापकोदेशकौ = Teachers and preachers who enable one to acquire knowledge. अश्विनाविति पदनाम (निघ० ५.६) पद-गतौ गतेस्त्रयोऽर्था-ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च अत्र तृतीयार्थग्रहणम् |

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    What ever is heard and learnt by men from absolutely truthful scholars, should be taught and told to others. A man should impart knowledge to others as he receives it. There is no greater Dharma (duty) than imparting knowledge to others.

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