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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 120 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 120/ मन्त्र 7
    ऋषिः - उशिक्पुत्रः कक्षीवान् देवता - अश्विनौ छन्दः - स्वराडार्ष्यनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    यु॒वं ह्यास्तं॑ म॒हो रन्यु॒वं वा॒ यन्नि॒रत॑तंसतम्। ता नो॑ वसू सुगो॒पा स्या॑तं पा॒तं नो॒ वृका॑दघा॒योः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒वम् । हि । आस्त॑म् । म॒हः । रन् । यु॒वम् । वा॒ । यत् । निः॒ऽअत॑तंसतम् । ता । नः॒ । व॒सू॒ इति॑ । सु॒ऽगो॒पा । स्या॒त॒म् । पा॒तम् । नः॒ । वृका॑त् । अ॒घ॒ऽयोः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युवं ह्यास्तं महो रन्युवं वा यन्निरततंसतम्। ता नो वसू सुगोपा स्यातं पातं नो वृकादघायोः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युवम्। हि। आस्तम्। महः। रन्। युवम्। वा। यत्। निःऽअततंसतम्। ता। नः। वसू इति। सुऽगोपा। स्यातम्। पातम्। नः। वृकात्। अघऽयोः ॥ १.१२०.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 120; मन्त्र » 7
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे वसू अश्विनौ रन् यौ युवं यदास्तं वा युवं नोऽस्माकं सुगोपा स्यातं तौ महोऽघायोर्वृकान्नोऽस्मान्पातं ता हि युवां निरततंसतं च ॥ ७ ॥

    पदार्थः

    (युवम्) युवाम् (हि) किल (आस्तम्) आसाथाम्। व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (महः) महतः (रन्) ददमानौ। दन्वदस्य सिद्धिः। (युवम्) युवाम् (वा) पक्षान्तरे (यत्) (निरततंसतम्) नितरां विद्यादिभिर्भूषणैरलंकुरुतम् (ता) तौ (नः) अस्मान् (वसू) वासयितारौ (सुगोपा) सुष्ठुरक्षकौ (स्यातम्) (पातम्) पालयतम् (न) अस्माकम् (वृकात्) स्तेनात् (अघायोः) आत्मनोऽन्यायाचरणेनाघमिच्छतः ॥ ७ ॥

    भावार्थः

    यथा सभासेनेशौ चोरादिभयात्प्रजास्त्रायेतां तथैतौ सर्वैः पालनीयौ स्याताम्। सर्वे धर्मेष्वासीनाः सन्तोऽध्यापकोपदेशकशिक्षका अधर्मं विनाशयेयुः ॥ ७ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (वसू) निवास करानेहारे अध्यापक-उपदेशको ! (रन्) औरों को सुख देते हुए जो (युवम्) तुम (यत्) जिस पर (आस्तम्) बैठो (वा) अथवा (युवम्) तुम दोनों (नः) हम लोगों के (सुगोपा) भली-भाँति रक्षा करनेहारे (स्यातम्) होओ, वे (महः) बड़ा (अघायोः) जोकि अपने को अन्याय करने से पाप चाहता (वृकात्) उस चोर डाकू से (नः) हम लोगों को (पातम्) पालो और (ता) वे (हि) ही आप दोनों (निरततंसतम्) विद्या आदि उत्तम भूषणों से परिपूर्ण शोभायमान करो ॥ ७ ॥

    भावार्थ

    जैसे सभा सेनाधीश चोर आदि के भय से प्रजाजनों की रक्षा करें वैसे ये भी सब प्रजाजनों के पालना करने योग्य होवें। सब अध्यापक उपदेशक तथा शिक्षक आदि मनुष्य धर्म में स्थिर हुए अधर्म का विनाश करें ॥ ७ ॥

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    विषय

    वृक से रक्षण

    पदार्थ

    १. हे प्राणापानो ! (युवम्) = आप (हि) = निश्चय से (महः) = महनीय धन के अथवा तेजस्विता के (रन्) = [दातारौ - सा०] देनेवाले (आस्तम्) = हैं , (यत्) = जब कि (युवम्) = आप ही (वा) = निश्चय से (निरततं - सतम्) = हमारे जीवनों को सब शुभ गुणों से अलंकृत करते हो । तेजस्विता को तथा यात्रा के लिए आवश्यक धनों को देकर प्राणापान हमारे जीवनों को सद्गुणों से मण्डित करते हैं । २. (ता) = वे आप दोनों प्राण व अपान (नः) = हमारे लिए (वसू) = उत्तम निवास देनेवाले होओ तथा (सुगोपा) = आप हमारी उत्तमता से रक्षा करनेवाले (स्यातम्) = होओ और (नः) = हमें (अघायोः) = हमारे (अघ) = पाप व अशुभ की कामनावाले (वृकात्) = लोभरूप वृक से (पातम्) = सुरक्षित करो । प्राणसाधना से हममें लोभवृत्ति का उन्मूलन हो जाए और लोभमूलक सब पाप विनष्ट हो जाएँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना हमें तेजस्विता प्राप्त कराके सद्गुणों से मण्डित करती है और ये प्राणापान ही हमारी लोभवृत्ति को नष्ट करते हैं ।

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    विषय

    विद्वान् प्रमुख नायकों और स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( वसू ) राष्ट्र को बसाने और घर को बसाने वाले नायको और स्त्री पुरुषो ! विद्वानो ! ( युवं हि ) निश्चय से आप दोनो ( महः रन् ) बड़े भारी पूजनीय ज्ञान और रक्षा और ऐश्वर्य के देने वाले ( आस्तम् ) होवो । ( वा ) और ( यत् युवं ) जो आप दोनों ( निर् अततंसतम् ) हमें सब प्रकार से विद्या आदि शुभगुणों और वस्त्र आभूषणादि से भी अलंकृत करते हो ( ता ) वे आप दोनों ( नः सुगोपा स्यातम् ) हमारे उत्तम रक्षक और उत्तम वेदवाणियों और इन्द्रियों और गवादि पशुओं और भूमियों के पालक रक्षक होवो । और (नः) हमें ( अघायोः ) हमपर पापाचार हत्या आदि अपराध करने वाले ( वृकात् ) भेड़िये के समान छल से आक्रमण करने वाले, दुष्ट पुरुष से ( पातम् ) रक्षा करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    औशिक्पुत्रः कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः- १, १२ पिपलिकामध्या निचृद्गायत्री । २ भुरिग्गायत्री । १० गायत्री । ११ पिपीलिकामध्या विराड् गायत्री । ३ स्वराट् ककुबुष्णिक् । ५ आर्ष्युष्णिक् । ६ विराडार्ष्युष्णिक् । ८ भुरिगुष्णिक् । ४ आर्ष्यनुष्टुप् । ७ स्वराडार्ष्यनुष्टुप् । ९ भुरिगनुष्टुप् । द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे सभा सेनाधीशाने चोर वगैरेच्या भयापासून प्रजेचे रक्षण करावे तसे त्यांनीही प्रजेचे पालन करण्यायोग्य बनावे. सर्व अध्यापक, उपदेशक व शिक्षक इत्यादींनी धर्मात स्थिर होऊन अधर्माचा नाश करावा. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, harbingers of wealth and universal shelter of all, you abide by us and bring the gift of abundance, and you bless with beauty and grace whosoever you choose. We pray, be our saviours and protectors, save us from the sinful hungry wolf.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Ashvins (President of the Assembly and Commander of the army) you who enable us to dwell in peace, who are givers of happiness, while seated in your proper place, be our protectors or preservers. Please protect us from great thieves, robbers and other sinners. Kindly adorn us with the ornaments of knowledge and other virtues.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (रन्) ददमानौ = Givers (of happiness and riches etc.) (निरततंसतम् ) नितरां विद्याविर्भूषणै: अलंकुरुतम् ।। = Adorn constantly with the ornaments of knowledge and other virtues.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the President of the Assembly or the Council of Ministers and the Commander of the Army, protect their subjects from the fear of thieves and other criminals, so they should also be guarded well All teachers, preachers and instructors should try to put an end to all sins, observing Dharma (righteousness) continuously.

    Translator's Notes

    रन is from रा-दाने अ निरततंसतम् is from तसि-अलंकारे चु० वृकात्-स्तेनात् वृक इति स्तेननाम (निघ० ३.२४)

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