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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 120 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 120/ मन्त्र 9
    ऋषिः - उशिक्पुत्रः कक्षीवान् देवता - अश्विनौ छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    दु॒ही॒यन्मि॒त्रधि॑तये यु॒वाकु॑ रा॒ये च॑ नो मिमी॒तं वाज॑वत्यै। इ॒षे च॑ नो मिमीतं धेनु॒मत्यै॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दु॒ही॒यन् । मि॒त्रऽधि॑तये । यु॒वाकु॑ । रा॒ये । च॒ । नः॒ । मि॒मी॒तम् । वाज॑ऽवत्यै । इ॒षे । च॒ । नः॒ । मि॒मी॒त॒म् । धेनु॒ऽमत्यै॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दुहीयन्मित्रधितये युवाकु राये च नो मिमीतं वाजवत्यै। इषे च नो मिमीतं धेनुमत्यै ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दुहीयन्। मित्रऽधितये। युवाकु। राये। च। नः। मिमीतम्। वाजऽवत्यै। इषे। च। नः। मिमीतम्। धेनुऽमत्यै ॥ १.१२०.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 120; मन्त्र » 9
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे अश्विनौ सभासेनाधीशौ युवां या गावो दुहीयँस्ता नोऽस्माकं मित्रधितये युवाकु राये च जीवनाय मिमीतम्। वाजवत्यै धेनुमत्या इषे च नोऽस्मान् मिमीतं प्रेरयतम् ॥ ९ ॥

    पदार्थः

    (दुहीयन्) या दुग्धादिभिः प्रपिपुरति। दुह धातोरौणादिक इः किच्च तस्मात् क्यजन्ताल्लेड्बहुवचनम्। (मित्रधितये) मित्राणां धितिर्धारणं यस्मात् तस्मै (युवाकु) सुखेन मिश्रिताय दुःखैः पृथग्भूताय वा। सुपां सुलुगिति विभक्तिलुक्। (राये) धनाय (च) (नः) अस्माकम् (मिमीतम्) मन्येथाम् (वाजवत्यै) वाजः प्रशस्तं ज्ञानं विद्यते यस्यां तस्यै (इषे) इच्छायै (च) (नः) अस्मान् (मिमीतम्) (धेनुमत्यै) गोः संबन्धिन्यै ॥ ९ ॥

    भावार्थः

    ये गवादयः पशवो मित्रपालनज्ञानधननिमित्ता भवेयुस्तान् मनुष्याः सततं रक्षेयुः, सर्वान् पुरुषार्थाय प्रवर्त्तयेयुः, यतः सुखसंयोगो दुःखवियोजनं च स्यात् ॥ ९ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे सब विद्याओं में व्याप्त सभासेनाधीशो ! तुम दोनों जो गौयें (दुहीयन्) दूध आदि से पूर्ण करती हैं उनको (नः) हमारे (मित्रधितये) जिससे मित्रों की धारणा हो तथा (युवाकु) सुख से मेल वा दुःख से अलग होना हो उस (राये) धन के (च) और जीवने के लिये (मिमीतम्) मानो तथा (वाजवत्यै) जिसमें प्रशंसित ज्ञान वा (धेनुमत्यै) गौ का संबन्ध विद्यमान है उसके (च) और (इषे) इच्छा के लिये (नः) हमको (मिमीतम्) प्रेरणा देओ अर्थात् पहुँचाओ ॥ ९ ॥

    भावार्थ

    जो गौ आदि पशु मित्रों की पालना, ज्ञान और धन के कारण हों उनको मनुष्य निरन्तर राखें और सबको पुरुषार्थ के लिये प्रवृत्त करें जिससे सुख का मेल और दुःख से अलग रहें ॥ ९ ॥

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    विषय

    शक्तियुक्त धन

    पदार्थ

    १. हे प्राणापानो ! (युवाकु) = [युवाकवा - सा०] अपने से बुराइयों को दूर करनेवाले तथा अच्छाइयों से अपना सम्पर्क करनेवाले साधक लोग (मित्रधितये) = [प्रमीति से त्राण] रोग व मृत्यु तथा पापों से त्राण को धारण के लिए - मृत्यु व पापों से अपने बचाव के लिए (दुहीयन्) = आपको दूहते हैं - आपसे सब आवश्यक धनों को प्राप्त करते हैं । २. आप (नः) = हमें (वाजवत्यै) = शक्तिशाली (राये) = सम्पत्ति के लिए (मिमीतम्) = [कुरुतम्] कीजिए । (च + च) = तथा (धेनुमत्यै) = गौओंवाले (इषे) = अन्न के लिए (मिमीतम्) = कीजिए । आपकी साधना से हम उस धन को प्राप्त करें जो शक्ति से युक्त है तथा हमें अन्न व दुग्ध की कमी न हो । इस प्रकार यह प्राणसाधना हमारे जीवन को भौतिक दृष्टिकोण से भी बड़ा सुन्दर बनानेवाली हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना जहाँ हमें काम - क्रोध के आक्रमण से बचाती है वहाँ सम्पत्ति व शक्ति देती हुई अभ्युदय को भी प्राप्त कराती है ।

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    विषय

    विद्वान् प्रमुख नायकों और स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे विद्वान् स्त्री पुरुषो ! एवं नायको ! अध्यक्ष जनो ! ( युवाकु) दुःखों को दूर करने और सुखों के प्राप्त करने के लिये और ( मित्रधितये ) स्नेही, मित्र जनों के पालन करने के लिये ये सब गौएं, भूमियें और माताएं ( दुहीयन् ) अपना दूध, अन्न और स्नेह प्रदान करती हैं । आप दोनों भी हमें ( नः ) हमारे ( राये ) ऐश्वर्य की वृद्धि और ( वाजवत्यै ) अन्नादि देने वाली भूमि को प्राप्त और सदुपयोग करने के लिये ( मिमीतम् ) विशेष ज्ञान का उपदेश करें । और ( नः ) हमें ( धेनुमत्यै इषे च ) गौओं से पूर्ण अन्न समृद्धि प्राप्त करने के लिये ( नः मिमीतम् ) सदा प्रेरणा और प्रोत्साहन देते रहो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    औशिक्पुत्रः कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः- १, १२ पिपलिकामध्या निचृद्गायत्री । २ भुरिग्गायत्री । १० गायत्री । ११ पिपीलिकामध्या विराड् गायत्री । ३ स्वराट् ककुबुष्णिक् । ५ आर्ष्युष्णिक् । ६ विराडार्ष्युष्णिक् । ८ भुरिगुष्णिक् । ४ आर्ष्यनुष्टुप् । ७ स्वराडार्ष्यनुष्टुप् । ९ भुरिगनुष्टुप् । द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    गाय इत्यादी पशूमित्रांचे पोषण, ज्ञान व धनाचे निमित्त असून त्यांचे माणसाने सतत रक्षण केले पाहिजे व सर्वांना पुरुषार्थात प्रवृत्त केले पाहिजे. ज्यामुळे सुखाचा मेळ व दुःखांपासून वेगळे राहता येईल. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, let people dedicated to you take advantage of your generosity for the growth and prosperity of friends. Inspire us and let us grow to plenty of wealth with horses, speed and progress and have lot of food and energy with plenty of cows.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Ashvins (President of the Assembly and Commander of the Army) the cows that yield much milk may be for nourishing our friends and may enable us to acquire such wealth that may make us happy and keep away from misery. Please lead us to the fulfilment of desires that are associated with the acquirement of knowledge and the welfare of the cattle.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (वाजवत्यै) वाजः प्रशस्तज्ञानं विद्येते यस्यां तस्यै = Possessing good knowledge. (इषे) इच्छायै = For desire. (युवाकु) सुखेन मिश्रिताय दुःखैः पृथग्भूताय वा सुपां सुलुक इति विभक्तिलुक्-राये इत्यस्यविशेषणम् For the wealth that leads to happiness and keeps away all misery.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The cows and other animal that nourish friends and increase the power of intellect to grasp knowledge should always be protected by all men. They should also persuade all to be industrious, so that they may enjoy happiness and be away from all misery.

    Translator's Notes

    वाज is derived from वज गतौ गतेस्त्रिष्वर्येष्वत्र ज्ञानार्थग्रहणम् युवाकु is derived from यु मिश्रणामिश्रणयो: hence the two meanings given above. इषे is derived from इष-इच्छायाम् ।

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