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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 128 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 128/ मन्त्र 2
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिगष्टिः स्वरः - मध्यमः

    तं य॑ज्ञ॒साध॒मपि॑ वातयामस्यृ॒तस्य॑ प॒था नम॑सा ह॒विष्म॑ता दे॒वता॑ता ह॒विष्म॑ता। स न॑ ऊ॒र्जामु॒पाभृ॑त्य॒या कृ॒पा न जू॑र्यति। यं मा॑त॒रिश्वा॒ मन॑वे परा॒वतो॑ दे॒वं भाः प॑रा॒वत॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । य॒ज्ञ॒ऽसाध॑म् । अपि॑ । वा॒त॒या॒म॒सि॒ । ऋ॒तस्य॑ । प॒था । नम॑सा । ह॒विष्म॑ता । दे॒वऽता॑ता । ह॒विष्म॑ता । सः । नः॒ । ऊ॒र्जाम् । उ॒प॒ऽआभृ॑ति । अ॒या । कृ॒पा । न । जू॒र्य॒ति॒ । यम् । मा॒त॒रिश्वा॑ । मन॑वे । प॒रा॒ऽवतः॑ । दे॒वम् । भारिति॒ भाः । प॒रा॒ऽवतः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं यज्ञसाधमपि वातयामस्यृतस्य पथा नमसा हविष्मता देवताता हविष्मता। स न ऊर्जामुपाभृत्यया कृपा न जूर्यति। यं मातरिश्वा मनवे परावतो देवं भाः परावत: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम्। यज्ञऽसाधम्। अपि। वातयामसि। ऋतस्य। पथा। नमसा। हविष्मता। देवऽताता। हविष्मता। सः। नः। ऊर्जाम्। उपऽआभृति। अया। कृपा। न। जूर्यति। यम्। मातरिश्वा। मनवे। पराऽवतः। देवम्। भारिति भाः। पराऽवतः ॥ १.१२८.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 128; मन्त्र » 2
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वान् किं करोतीत्याह ।

    अन्वयः

    यथा यं देवं परावतो भारिव मनवे मातरिश्वा परावतो देशाद्दधाति सोऽया कृपा न ऊर्जामुपाभृति न जूर्यति यथा च स देवताता हविष्मता ऋतस्य पथा गच्छति तथा हविष्मता नमसा तं यज्ञसाधमपि वयं वातयामसि ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (तम्) अग्निमिव विद्वांसम् (यज्ञसाधम्) यज्ञं साध्नुवन्तम् (अपि) (वातयामसि) वातइव प्रेरयेम (ऋतस्य) सत्यस्य (पथा) मार्गेण (नमसा) (सत्कारेण) (हविष्मता) बहुदानयुक्तेन (देवताता) देवेनेव (हविष्मता) बहुग्रहणं कुर्वता (सः) (नः) अस्मान् (ऊर्जाम्) पराक्रमवताम् (उपाभृति) उपगतमाभृत्याभूषणं च तत् (अया) अनया। अत्र पृषोदरादिना नलोपः। (कृपा) कल्पनया (न) निषेधे (जूर्यति) रुजति (यम्) (मातरिश्वा) वायुः (मनवे) मनुष्याय (परावतः) दूरदेशात् (देवम्) दातारम् (भाः) सूर्यदीप्तिरिव (परावतः) दूरदेशात् ॥ २ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। विद्वान् मनुष्यो यथा वायुः सर्वान् मूर्त्तिमतः पदार्थान् धृत्वा प्राणिनः सुखयति तथैव विद्याधर्मौ धृत्वा सर्वान्मनुष्यान्सुखयतु ॥ २ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वान् क्या करता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जैसे (यम्) जिस (देवम्) गुण देनेवाले को (परावतः) दूर से जो (भाः) सूर्य की कान्ति उसके समान (मनवे) मनुष्य के लिये (मातरिश्वा) पवन (परावतः) दूर से धारण करता (सः) वह देनेवाला विद्वान् (अया) इस (कृपा) कल्पना से (नः) हम लोगों को (ऊर्जाम्) पराक्रमवाले पदार्थों का (उपाभृति) समीप आया हुआ आभूषण अर्थात् सुन्दरपन जैसे हो वैसे (न) नहीं (जूर्यति) रोगी करता और जैसे वह (देवताता) विद्वान् के समान (हविष्मता) बहुत देनेवाले (ऋतस्य) सत्य के (पथा) मार्ग से चलता है वैसे (हविष्मता) बहुत ग्रहण करनेवाले (नमसा) सत्कार के साथ (तम्) उस अग्नि के समान प्रतापी (यज्ञसाधम्) यज्ञ साधनेवाले विद्वान् को (अपि) निश्चय के साथ हम लोग (वातयामसि) पवन के समान सब कार्यों में प्रेरणा देवें ॥ २ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्वान् मनुष्य जैसे पवन सब मूर्त्तिमान् पदार्थों को धारण करके प्राणियों को सुखी करता, वैसे ही विद्या और धर्म को धारण कर सब मनुष्यों को सुख देवे ॥ २ ॥

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    विषय

    'यज्ञसाध' प्रभु का उपासन

    पदार्थ

    १. (तं) = उस (यज्ञसाधम्) = हमारे सब यज्ञों को पूर्ण करनेवाले प्रभु को (अपि वातयामसि) = चित्त की शान्ति के लिए सेवित करते हैं [वातः सुखसेवने] । प्रभु की उपासना से चित्त में एक अद्भुत आह्लाद का अनुभव होता है । उपासना हमें शक्तिशाली बनाती है और हम विविध यज्ञों को सम्पन्न कर पाते हैं । २. यह प्रभु का उपासन [क] (ऋतस्य पथा) = ऋत के मार्ग से होता है । प्रत्येक क्रिया को ठीक समय पर करना ही ऋत है । प्रभु का उपासक सूर्य व चन्द्रमा की गति की भाँति प्रत्येक क्रिया को ठीक समय पर करनेवाला होता है, [ख] प्रभु का उपासन (नमसा) = नमन के द्वारा होता है । (जितनी) = जितनी नम्रता, उतना-उतना प्रभु के समीप जितना अभिमान, उतना प्रभु से दूर; प्रभु का उपासन [ग] (हविष्मता) = हविवाले (देवताता) = यज्ञ के द्वारा होता है । (हविष्मता) = प्रशस्त हविवाले पुरुष के द्वारा इन हविष्मान् यज्ञों का विस्तार किया जाता है और इन यज्ञों के द्वारा प्रभु का उपासन होता है - 'यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः' । हवि का भाव 'देकर यज्ञशेष का सेवन' है । प्रभु तो हविरूप ही हैं । वे सब - कुछ दे डालते हैं । हम भी जितना - जितना हवि को अपनाते हैं, उतना - उतना प्रभु का उपासन करनेवाले बनते हैं । ३. (सः) = वे प्रभु (नः) = हमारे लिए (ऊर्जाम्) = बल व प्राणशक्तियों के (उपाभृति) = धारण करने में (अया कृपा) = इस अनुकम्पात्मक कार्य से (न जूर्यति) = कभी जीर्ण नहीं होते, अर्थात् प्रभु हमें सदा बल व प्राणशक्ति प्राप्त कराते ही हैं । ४. प्रभु वे हैं (यम्) = जिस (देवम्) = प्रकाशमय को (परावतः) = सुदूर देश में स्थित (परावतः) = वस्तुतः सदुर देश में स्थित हुए-हुए को (मातरिश्वा) = वायु व प्राण (मनवे) = विचारशील पुरुष के लिए भाः दीप्त करते हैं । प्राणसाधना से चित्तवृत्ति निर्मल होती है और बुद्धि सूक्ष्म होती है । प्रभु दर्शन के लिए ये दोनों ही बातें सहायक होती हैं । प्राणसाधना हमें प्रभु - दर्शन करानेवाली होती है, प्राणसाधना से रहित पुरुष के लिए प्रभु अत्यन्त दूर हैं, वह प्रभु - दर्शन नहीं कर पाता ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु की उपासना 'नियमितता, नम्रता व त्याग' से होती है । उपासित प्रभु हमें बल व प्राणशक्ति प्राप्त कराते हैं । प्राणसाधना हमें प्रभु - दर्शन के योग्य बनाती है ।

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    विषय

    विद्वान्, आचार्य, गुरु, और राजा का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( यज्ञसाधम् ) जिस प्रकार यज्ञ के साधन करने वाले अग्नि को हम ( अपि वातयामसि ) वायु द्वारा प्रज्वलित करते हैं । और ( ऋतस्य पथा ) यज्ञ या वेदोक्त मार्ग से ( नमसा ) अन्न द्वारा और ( देवताता ) देव, पृथिवी, जल आदि के उपकार या उत्तम शोधनादि के लिये ( हविष्मता ) उत्तम अन्नादि औषधिमय चरु से प्रज्वलित करते हैं और ( सः ) वह यज्ञाग्नि ( नः ) हमारे ( ऊर्जाम् उप आभृति ) नाना प्रकार के अन्नों के ग्रहण करने और सर्वत्र चारों तरफ फैला देने के निमित्त ( अया कृपा ) इस सामर्थ्य से ( न जूर्यति ) कभी क्षीण नहीं होता । प्रत्युत ( देवं ) उस प्रदीप्त अग्नि को ( मनवे ) मनुष्यों के उपकार के लिये ( मातरिश्वा ) वायु ( परावतः ) दूर देश से आकर भी (भाः) प्रकाशित करता है उसी प्रकार हम ( तं ) उस ( यज्ञसाधम् ) अध्यापन वा ज्ञान दान करने वाले विद्वान् मान्य पुरुप को ( ऋतस्य यथा ) सत्य व्यवहार के मार्ग से, ( देवताता ) शुभ गुणों को प्राप्त करने वा विद्या के उत्सुक शिष्य जनों के हितार्थ, ( हविष्मता ) ग्राह्य भेट पुरस्कार सहित ( नमसा ) विनय द्वारा ( अपि वातयामसि ) उत्साहित करें । (यं) जिससे (देवं) विद्यादाता विद्वान् पुरुष को ( परावतः परावतः ) दूर दूर देश से आया, ( मातरिश्वा ) ज्ञानवान् पुरुष के अधीन बढ़ने वाला शिष्य जन ( मनवे ) ज्ञान प्राप्त करने के लिये ( भाः ) प्रकाशित करता है ( सः ) वह ( नः ) हमारे ( ऊर्जाम् उपाभृति ) बल वीर्यों के धारण कर लेने पर ( अया कृपा ) अपने इस सामर्थ्य से ( न जूर्यति ) कभी क्षीण नहीं होता, प्रत्युत उत्तरोत्तर बढ़ता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १—८ परुच्छेप ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- निचृदत्यष्टिः । ३, ४, ६, ८ विराडत्यष्टिः । २ भुरिगष्टिः । ५, ७ निचृदष्टिः । अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा वायू सर्व मूर्तिमान पदार्थ धारण करून प्राण्यांना सुखी करतो तसे विद्वान माणसांनी विद्या व धर्म धारण करून सर्व माणसांना सुख द्यावे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    That Agni, divine treasure of the wealth of life and giver of success in yajnic endeavours, we, bearing holy offerings in divine service, kindle and fan to light and blaze, and serve along the path of Truth and natural Law with offers of food and reverence. And that lord of light and energy never tires of this divine grace, never fades out of this divine light and splendour, since this divine blaze and splendour, the wind and solar energy carries for humanity from a far distance, from the farthest imaginable distance.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What does a learned man do is told further in the second Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As the fire which is the means of preforming Yajna is kindled with the help of the distant wind, in the same way, we impel or propitiate a learned person who is shining like the fire, is the performer of the Yajnas (non-violent noble acts ) is generous giver, is follower of the Path of Truth for the development of divine virtues, with reverential salutations followed by donations and gifts, who gladly accepts, what is given to him with love. He is always engaged in doing good to men.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( कृपा ) कल्पनया = By his strength. ( मनवे ) मनुष्याय = For the thoughtful person. ( देवम् ) दातारम् = Giver of happiness.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of a learned man to be the source of happiness to all, as the air is to all living beings by upholding all embodied articles. The learned man should give joy to all by bearing abundantly Vidya (wisdom and knowledge) along with Dharma or righteousness.

    Translator's Notes

    कृपा is from कृपू-सामर्थ्यो । मनवे is from मन-ज्ञाने ये विद्वान्सस्ते मनवः ।। (शतपथ० ८.६.३.११) It is therefore wrong on the part of Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and others to take Manu as the name of a particular king instead of taking it for a learned person as Rishi Dayananda has done on the basis of the root meaning and the passage from Shatpath Brahmana 8. 6. 3. 11 that has been quoted above.

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