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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 128 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 128/ मन्त्र 7
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - अग्निः छन्दः - निचृदष्टिः स्वरः - मध्यमः

    स मानु॑षे वृ॒जने॒ शंत॑मो हि॒तो॒३॒॑ऽग्निर्य॒ज्ञेषु॒ जेन्यो॒ न वि॒श्पति॑: प्रि॒यो य॒ज्ञेषु॑ वि॒श्पति॑:। स ह॒व्या मानु॑षाणामि॒ळा कृ॒तानि॑ पत्यते। स न॑स्त्रासते॒ वरु॑णस्य धू॒र्तेर्म॒हो दे॒वस्य॑ धू॒र्तेः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । मानु॑षे । वृ॒जने॑ । शम्ऽत॑मः । हि॒तः । अ॒ग्निः । य॒ज्ञेषु॑ । जेन्यः॑ । न । वि॒श्पतिः॑ । प्रि॒यः । य॒ज्ञेषु॑ । वि॒श्पति॑ह् । सः । ह॒व्या । मानु॑षाणाम् । इ॒ळा । कृ॒तानि॑ । प॒त्य॒ते॒ । सः । नः॒ । त्रा॒स॒ते॒ । वरु॑णस्य । धू॒र्तेः । म॒हः । दे॒वस्य॑ । धू॒र्तेः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स मानुषे वृजने शंतमो हितो३ऽग्निर्यज्ञेषु जेन्यो न विश्पति: प्रियो यज्ञेषु विश्पति:। स हव्या मानुषाणामिळा कृतानि पत्यते। स नस्त्रासते वरुणस्य धूर्तेर्महो देवस्य धूर्तेः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। मानुषे। वृजने। शम्ऽतमः। हितः। अग्निः। यज्ञेषु। जेन्यः। न। विश्पतिः। प्रियः। यज्ञेषु। विश्पतिः। सः। हव्या। मानुषाणाम्। इळा। कृतानि। पत्यते। सः। नः। त्रासते। वरुणस्य। धूर्तेः। महः। देवस्य। धूर्तेः ॥ १.१२८.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 128; मन्त्र » 7
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते किं कुर्य्युरित्याह।

    अन्वयः

    यः प्रियो विश्पतिर्नोऽस्मान् धूर्त्तेस्त्रासते स धूर्त्तेर्महो देवस्य वरुणस्य सकाशात् यज्ञेषु मानुषाणामिळा कृतानि हव्या स्थिरीकरोति स सर्वैः पत्यते यो यज्ञेष्वग्निरिव जेन्यो न विश्पतिर्मानुषे वृजने हितश्शन्तमो भवति स सर्वैः सत्कर्त्तव्यो भवति ॥ ७ ॥

    पदार्थः

    (सः) विद्वान् (मानुषे) मानुषाणामस्मिन् (वृजने) व्रजन्ति यस्मिन्मार्गे तस्मिन् पृषोदरादिनास्य सिद्धिः। (शंतमः) अतिशयेन सुखकारी (हितः) हितसंपादकः (अग्निः) पावक इव (यज्ञेषु) अग्निहोत्रादिषु (ज्येन्यः) जेतुं शीलः (न) इव (विश्पतिः) विशां पालको राजा (प्रियः) प्रीणाति सः (यज्ञेषु) सङ्गन्तव्येषु व्यवहारेषु (विश्पतिः) विशां प्रजानां पालयिता (सः) (हव्या) हव्यान्यादातुमर्हाणि (मानुषाणाम्) (इळा) सुसंस्कृतानि वचनानि (कृतानि) निष्पन्नानि (पत्यते) प्राप्यते (सः) (नः) अस्मान् (त्रासते) उद्वेजयति (वरुणस्य) श्रेष्ठस्य (धूर्त्तेः) हिंसकस्य सकाशात् (महः) महतः (देवस्य) विद्याप्रदस्य (धूर्त्तेः) अविद्याहिंसकस्य ॥ ७ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। ये धर्ममार्गे जनानुपदेशेन प्रवर्त्तयन्ति न्यायेशो राजेव प्रजापालका दस्य्वादिभयनिवारकाः विदुषां मित्राणि जनाः सन्ति त एवान्धपरम्परानिरोधका भवितुमर्हन्ति ॥ ७ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जो (प्रियः) तृप्ति करनेवाला है वह (विश्पतिः) प्रजाओं का पालक राजा (नः) हम लोगों को (धूर्त्तेः) हिंसक से (त्रासते) वेमन कराता और (सः) वह (धूर्त्तेः) अविद्या को नाशने और (महः) बड़े (देवस्य) विद्या देनेवाले (वरुणस्य) उत्तम विद्वान् के पास से जो (यज्ञेषु) सङ्ग करने योग्य व्यवहारों में (मानुषाणाम्) मनुष्यों के (इळा) अच्छे संस्कारों से युक्त (कृतानि) सिद्ध किये शुद्ध वचन (हव्या) जो कि ग्रहण करने योग्य हों उनको स्थिर करता तथा (सः) वह सबको (पत्यते) प्राप्त होता वा (यज्ञेषु) अग्निहोत्र आदि यज्ञों में (अग्निः) अग्नि के समान वा (जेन्यः) विजयशील के (न) समान (विश्पतिः) प्रजाजनों का पालनेवाला (मानुषे) मनुष्यों के (वृजने) उस मार्ग में कि जिसमें गमन करते (हितः) हित सिद्ध करनेवाला (शंतमः) अतीव सुखकारी होता (सः) वह विद्वान् सबको सत्कार करने योग्य होता है ॥ ७ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो धर्म मार्ग में मनुष्यों को उपदेश से प्रवृत्त कराते, न्यायाधीश राजा के समान प्रजाजनों को पालने, डाँकू आदि दुष्ट प्राणियों से जो डर उसको निवृत्त करानेवाले विद्वानों के मित्रजन हैं, वे ही अन्धपरम्परा अर्थात् कुमार्ग के रोकनेवाले होने को योग्य होते हैं ॥ ७ ॥

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    विषय

    हव्य, इडा व कृत

    पदार्थ

    १. (सः) = वे प्रभु (मानुषे वजने) = मानवहितकारी तथा पाप को छोड़नेवाले व्यक्ति में (शन्तमः) = अत्यन्त शान्ति देनेवाले हैं । ये (अग्निः) = अग्रणी प्रभु (यज्ञेषु हितः) = यज्ञों में हितकर होते हैं, अर्थात् यज्ञों के द्वारा कल्याण करते हैं । (जेन्यः न) = विजयशील की भाँति विश्पतिः सब प्रजाओं के पालक हैं । ये (विश्पतिः) = प्रजाओं के पालक (यज्ञेषु प्रियः) = यज्ञों के होने पर हमारा प्रीणन करनेवाले हैं । (सः) = वे प्रभु ही (मानुषाणाम्) = मनुष्यमात्र का हित करनेवाले लोगों के हव्या हव्य पदार्थों का, (इडा) = वेदवाणी का, (कृतानि) = उत्तम कर्मों का (पत्यते) = रक्षण करते हैं । प्रभुकृपा से ही इनकी [क] हव्य पदार्थों के खाने की वृत्ति, [ख] वेदाध्ययन की प्रवृत्ति तथा [ग] उत्तम कर्मों की कृति बनी रहती है । ३. (सः) = वे प्रभु ही (नः) = हमें (वरुणस्य धूर्तेः) = द्वेषनिवारण के हिंसन से तथा (महो देवस्य धूर्तेः) = उस महान् देव के हिंसन से (त्रासते) = बचाते हैं, अर्थात् प्रभुकृपा से ही हमारी द्वेषनिवारण की वृत्ति तथा प्रभुपूजन की वृत्ति बनी रहती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभुकृपा होने पर मनुष्य [क] हव्य पदार्थों का सेवन करता है, [ख] वेदवाणी का अध्ययन करता है, [ग] शुभ कर्मों में प्रवृत्त होता है, [घ] द्वेष से दूर रहता है और [ङ] प्रभु की उपासना को कभी नहीं छोड़ता । इस यज्ञशील व्यक्ति के लिए प्रभु उसी प्रकार रक्षक होते हैं, जैसे एक विजयशील राजा । वस्तुतः प्रभु ही हमारे लिए सब शत्रुओं का पराजय करके हमारा रक्षण करते हैं ।

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    विषय

    विद्वान् पुरोहित, गुरु और यज्ञाग्नि सेनापति का वर्णन ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( अग्निः ) प्रकाशमान् अग्नि ( मानुषे वृजने शंतमः ) मनुष्यों के चलने योग्य मार्ग में अन्धकार के समय अति शान्तिदायक, कल्याणकारी और ( हितः ) हितकारी रूप से प्रदीपवत् स्थिर किया जाता है उसी प्रकार ( स अग्निः ) वह विद्वान् पुरुष, मुख्य नायक और राजा भी ( मानुषे वृजने ) मनुष्यों वा प्रजाओं के मार्ग में या दूर करने योग्य पाप व्यवहार को दूर करने के निमित्त ( शंतमः ) अति शान्तिदायक, अनिष्टनिवारक और ( हितः ) हितकारी रूप में स्थापित किया जाय । अग्नि जिस प्रकार ( यज्ञेषु जेन्यः ) यज्ञों में सबसे उत्तम है उसी प्रकार वह विद्वान् और नायक पुरुष भी ( यज्ञेषु ) एक दूसरे से मिल कर करने योग्य कार्यों तथा संग्रामों में भी ( जेन्यः ) विजय शील, सबसे उत्कृष्ट पद के योग्य हो । वह ( यज्ञेषु ) सब उत्तम कर्मों में ( विश्पतिः ) प्रजाओं का पालक, ( प्रियः ) सबका प्रिय ( विश्पतिः ) राजा के समान आदरणीय हो । ( सः ) वह अग्नि जिस प्रकार यज्ञों में ( मानुषाणाम् ) मनुष्यों के ( कृतानि हव्या ) संस्कृत, अर्थात् कूट, पीस और परिपाक द्वारा सिद्ध किये हुए ओषधि अन्नों को और ( इळा ) मुख से उच्चारण की गई वेद वाणी को प्राप्त होता है उसी प्रकार वह प्रधान पुरुष भी ( मानुषाणाम् ) अधीन प्रजाजनों के ( कृतानि ) अच्छी प्रकार बनाये गये ( हव्यानि ) ग्रहण करने वा दान देने योग्य पदार्थों और ऐश्वर्यो और ( इळा ) स्तुति वचनों को अथवा, ( इळा कृतानि हव्या ) यज्ञ वेदि में सम्पादित चरुओं के समान ( इळा कृतानि हव्या ) भूमि में उत्पन्न किये गये अन्नों और ऐश्वर्यों का ( पत्यते ) स्वामी हो । जिस प्रकार अग्नि ( वरुणस्य धूर्तेः त्रासते ) रात्रि के नाशकारी अन्धकार से रक्षा करता है उसी प्रकार ( सः ) वह नायक विद्वान् पुरुष ( वरुणस्य धूर्त्तेः ) शत्रुओं के नाशकारी, सर्व श्रेष्ठ, एवं सब दुःखों के नाश करने वाले सेनापति आदि के घातक बल से और ( महः देवस्य धूर्त्तेः ) बड़े भारी विजिगीषु पुरुष के हिंसाकारी सैन्य बल से भी ( नः त्रासते ) हमारी रक्षा करने में समर्थ हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १—८ परुच्छेप ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- निचृदत्यष्टिः । ३, ४, ६, ८ विराडत्यष्टिः । २ भुरिगष्टिः । ५, ७ निचृदष्टिः । अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे माणसांना उपदेशाद्वारे धर्ममार्गात प्रवृत्त करतात. न्यायाधीश राजाप्रमाणे प्रजेचे पालन करून डाकू इत्यादी दुष्ट प्राण्यांपासून भयाची निवृत्ती करवितात ते विद्वानांचे मित्र असतात. तेच अंधपरंपरा अर्थात कुमार्ग रोखण्यास समर्थ असतात. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    That Agni, in the saving paths of human life, is most blissful, giver of fulfilment, and in yajnas he is like a victorious ruler and guardian of the people, yes, dear in yajnic projects and a saviour and protector of the world. He creates for humanity the materials for yajnic consumption and brings us the holiest words and actions of bliss. He guards us against the violence of nature and saves us from the ravages of misfortune.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should learned men do is taught further in the Seventh Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    A learned leader who like a dear and victorious protector of the people or King, preserves us from a violent person and preserves us by association of a scholar who is destroyer of ignorance and giver of knowledge, all acceptable and refined words of men in all Yajnas or unifying good dealings. He is approached like the fire in the Yajnas by all, as he is a benefactor and the best giver of peace and joy in the path to be trodden upon by men. He must be respected by all people.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (वृजने व्रजन्ति यस्मिन् मार्गे तस्मिन् पृषोदरादिनास्य सिद्धिः) = On the path by which men go. (इष्टा) सुसंस्कृतानि वचनानि = Refined words. (धूर्ते:) १ हिसकस्य = Of a violent person २ अविद्याहिंसकस्य = Of a destroyer of ignorance.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is only such learned persons as urge upon all men to tread upon the path of righteousness, are protectors of the people and removers of fear of robbers and thieves etc. like a just King, are friends of the scholars, that can remove all superstition.

    Translator's Notes

    इष्टेति वाङ्नाम (निघ० १.११ ) The word धूर्ति: is derived from घ्वृ About which it is clearly stated by Yaskacharya in Nirukta ध्वरति हिंसाकर्मा (निरुक्ते १.८) It is on the basis of the Nighantu 2. 19. ध्वरति बधकर्मा (निघ० २.१९ )

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