ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 130/ मन्त्र 10
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स नो॒ नव्ये॑भिर्वृषकर्मन्नु॒क्थैः पुरां॑ दर्तः पा॒युभि॑: पाहि श॒ग्मैः। दि॒वो॒दा॒सेभि॑रिन्द्र॒ स्तवा॑नो वावृधी॒था अहो॑भिरिव॒ द्यौः ॥
स्वर सहित पद पाठसः । नः॒ । नव्ये॑भिः । वृ॒ष॒ऽक॒र्म॒न् । उ॒क्थैः । पुरा॑म् । द॒र्त॒रिति॑ दर्तः । पा॒युऽभिः॑ । पा॒हि॒ । श॒ग्मैः । दि॒वः॒ऽदा॒सेभिः॑ । इ॒न्द्र॒ । स्तवा॑नः । व॒वृ॒धी॒थाः । अहो॑भिःऽइव । द्यौः ॥
स्वर रहित मन्त्र
स नो नव्येभिर्वृषकर्मन्नुक्थैः पुरां दर्तः पायुभि: पाहि शग्मैः। दिवोदासेभिरिन्द्र स्तवानो वावृधीथा अहोभिरिव द्यौः ॥
स्वर रहित पद पाठसः। नः। नव्येभिः। वृषऽकर्मन्। उक्थैः। पुराम्। दर्तरिति दर्तः। पायुऽभिः। पाहि। शग्मैः। दिवःऽदासेभिः। इन्द्र। स्तवानः। ववृधीथाः। अहोभिःऽइव। द्यौः ॥ १.१३०.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 130; मन्त्र » 10
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजप्रजाजनैः परस्परं कथं वर्त्तितव्यमित्याह ।
अन्वयः
हे वृषकर्मन् पुरां दत्तरिन्द्र यो दिवोदासेभिः स्तवानः स त्वं नव्येभिरुक्थैश्शग्मैः पायुभिर्द्यौरहोभिरिव नः पाहि वावृधीथाः ॥ १० ॥
पदार्थः
(सः) (नः) अस्मान् (नव्येभिः) नवीनैः (वृषकर्मन्) वृषस्य मेघस्य कर्माणीव कर्माणि यस्य तत्सम्बुद्धौ (उक्थैः) प्रशंसनीयैः (पुराम्) शत्रुनगराणाम् (दर्त्तः) विदारक (पायुभिः) रक्षणैः (पाहि) रक्ष (शग्मैः) सुखैः। शग्ममिति सुखना०। निघं० ३। ६। (दिवोदासेभिः) प्रकाशस्य दातृभिः (इन्द्र) सर्वरक्षक सभेश (स्तवानः) स्तूयमानः। अत्र कर्मणि शानच्। (वावृधीथाः) वर्धेथाः। अत्र वाच्छन्दसीति शपः श्लुः, तुजादीनामित्यभ्यासस्य दैर्घ्यम्, वाच्छन्दसीत्युपधागुणो न। (अहोभिरिव) यथा दिवसैः (द्यौः) सूर्य्यः ॥ १० ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। राजपुरुषैः सूर्यवत् विद्यासुशिक्षाधर्मोपदेशैः प्रजा उत्साहनीयाः प्रशंसनीयाश्चैवं प्रजाजनैः राजजनाश्चेति ॥ १० ॥अत्र राजप्रजाकर्मवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥इति त्रिंशदुत्तरं शततमं सूक्तमेकोनविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजा और प्रजाजनों को परस्पर कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(वृषकर्मन्) जिनके वर्षनेवाले मेघ के कामों के समान काम वह (पुराम्) शत्रुनगरों को (दर्त्तः) दरने-विदारने-विनाशने (इन्द्र) और सबकी रक्षा करनेवाले हे सेनापति ! (दिवोदासेभिः) जो प्रकाश देनेवाली (स्तवानः) स्तुति प्रशंसा को प्राप्त हुए हैं (सः) वह आप (नव्येभिः) नवीन (उक्थैः) प्रशंसा करने योग्य (शग्मैः) सुखों और (पायुभिः) रक्षाओं से (द्यौः) जैसे सूर्य (अहोभिरिव) दिनों से वैसे (नः) हम लोगों की (पाहि) रक्षा करें और (वावृधीथाः) वृद्धि को प्राप्त होवें ॥ १० ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। राजपुरुषों को सूर्य के समान विद्या, उत्तम शिक्षा और धर्म के उपदेश से प्रजाजनों को उत्साह देना और उनकी प्रशंसा करनी चाहिये और वैसे ही प्रजाजनों को राजजन वर्त्तने चाहिये ॥ १० ॥इस सूक्त में राजा और प्रजाजन के काम का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ एकता है, यह जाननी चाहिये ॥ यह एकसौ १३० तीसवाँ सूक्त और १९ उन्नीसवाँ वर्ग पूरा हुआ ॥
विषय
उक्थ, पायुः, शग्म
पदार्थ
१. हे (वृषकर्मन्) = शक्तिशाली कौवाले अथवा सुखवर्षक कर्मोंवाले! (पुरां दर्तः) = आसुर नगरियों के विध्वंसक, आसुरी भावनाओं के विनाशक प्रभो! (सः) = वे आप (नः) = हमें (नव्येभिः उक्थैः) = अत्यन्त स्तुत्य स्तोत्रों से, (पायुभिः) = रक्षणों से तथा (शग्मैः) = ऐहिक व आमुष्मिक सुखों से (पाहि) = सुरक्षित कीजिए । आप हमें स्तवनसाधनभूत मन्त्रों को प्राप्त कराइए, रोगादि से रक्षणों को प्राप्त कराइए तथा इहलोक व परलोक - सम्बन्धी सुखों को प्राप्त कराइए । २. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (दिवोदासेभिः) = ज्ञान के द्वारा वासनाओं का क्षय करनेवाले पुरुषों से (स्तवानः) = स्तूयमान होते हुए आप (इव) = इस प्रकार (वावृधीथाः) = वृद्धि को प्रास कीजिए जैसे कि (
भावार्थ
अहोभिः द्यौः) = दिनों से द्युलोक वृद्धि को प्राप्त होता है । रात्रि के अन्धकार में द्युलोक का विस्तार समास हो जाता है, दिन निकलता है और द्युलोक फैल जाता है । इसी प्रकार हम आपका ज्ञानपूर्वक स्तवन करें और आप हमारे हृदयाकाश में फैल जाएँ, हम आपका ही प्रकाश चारों ओर देखें ।
विषय
अभिषिक्त राजा विद्वान्, और सभापति सेनापति के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( वृषकर्मन् ) धाराएं वर्षाने वाले मेघ के समान शत्रुओं पर शस्त्रों और प्रजाओं पर ऐश्वर्य सुखों की वर्षा करने वाले ! राजन् ! हे ( पुरां दर्तः ) शत्रुओं के पुरों, गढ़ों नगर के प्रकोटों को तोड़ने हारे ! ( सः ) वह तू ( नव्येभिः ) नये से नये, उत्तम से उत्तम, आविष्कृत ( उक्थैः ) अति प्रसंशनीय एवं गुरुओं द्वारा उपदेश करने योग्य (शग्मैः) सुख साधनों और ( पायुभिः ) रक्षा करने के उपायों से ( नः पाहि ) हम प्रजाजनों की रक्षा कर । ( अहोभिः द्यौः इव ) जिस प्रकार दिनों अर्थात् अपने प्रकाशों से सूर्य वृद्धि को प्राप्त होता है उसी प्रकार हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! तू भी ( दिवः दासेभिः ) ज्ञान प्रकाश और मनुष्यों की अभिलाषा योग्य समस्त व्यवहार योग्य, दिव्य पदार्थों के देने वाले विज्ञानवान् गुरू जनों से ( स्तवानः ) उपदेश किया जाकर, शिक्षित होकर ( वावृधीथाः ) निरन्तर वृद्धि को प्राप्त हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१–१० परुच्छेप ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता । छन्दः– १, ५ भुरिगष्टिः । २, ३, ६, ९ स्वराडष्टिः । ४, ८, अष्टिः । ७ निचृदत्यष्टिः । १० विराट् त्रिष्टुप् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. राजपुरुषांनी सूर्याप्रमाणे विद्या, उत्तम शिक्षण व धर्माच्या उपदेशाने प्रजेला उत्साहित करावे व त्यांची प्रशंसा करावी. तसेच प्रजेनेही राजाबरोबर वागावे. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of light, might and power, ruler of the world, hero of generous and universal action, breaker of enemy strongholds, protect and promote us with the latest pious, admirable and blissful modes, means and actions of defence and development. Sung and celebrated by poets of enlightenment, you too rise and advance as the sun ascends high and higher day by day in heaven.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should the rulers and their subjects deal with one another is told in the tenth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O destroyer of the cities of thy foes, showerer of happiness like the cloud, O Indra (President of the Assembly) being glorified by the givers of light of knowledge, protect, us by the admirable new acts, that create happiness like the bright sun by creating the days and grow ever more.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(वृषकर्मन्) वृषस्य मेघस्य कर्माणि इव कर्माणि यस्य तत्सम्बुद्धौ । = He whose acts are showerers of happiness like the cloud. (शम्मै:) सुखैः शग्मम् इति सुखनाम (निघ० ३.६ ) (दिवोदासै:) प्रकाशस्य दातृभिः = By the givers of the light of knowledge.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Upamalankara or simile used in the Mantra. It is the duty of the officers of the State to encourage and advance the people also by the sermons of wisdom, good education and Dharma. The people also should reciprocate like wise.
Translator's Notes
While Rishi Dayananda Saraswati explains दिवोदासैः as प्रकाशस्य दातृभिः or givers of the light of knowledge derived from दिवु-क्रीडाविजिगीषा दयुति गतिषु and दासृदाने Sayanacharya explains it as दिवोदासगोत्रोत्पन्नैः = by the descendants of Divodasa or यद्वा पूजार्थंबहुवचनम् by Divodasa himself. The honorific plural has been used. Both these explanations are wrong being opposed to the fundamental principle of the Vedic terminology as pointed out before. They are opposed to Shri Sayanacharya's own principle enunciated in the introduction to his commentary of the Rigveda. This self-contradiction on the part of a great scholar_like Sayanacharya is really amazing and makes him un-reliable as a commentator of the Vedas. This hymn is connected with the previous hymn, as there is the mention of the duties of the kings and their subjects. Here ends the 130th hymn of the first Mandala of the Rigveda Samhita.
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