ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 130/ मन्त्र 2
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - स्वराडष्टिः
स्वरः - मध्यमः
पिबा॒ सोम॑मिन्द्र सुवा॒नमद्रि॑भि॒: कोशे॑न सि॒क्तम॑व॒तं न वंस॑गस्तातृषा॒णो न वंस॑गः। मदा॑य हर्य॒ताय॑ ते तु॒विष्ट॑माय॒ धाय॑से। आ त्वा॑ यच्छन्तु ह॒रितो॒ न सूर्य॒महा॒ विश्वे॑व॒ सूर्य॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठपिब॑ । सोम॑म् । इ॒न्द्र॒ । सु॒वा॒नम् । अद्रि॑ऽभिः । कोशे॑न । सि॒क्तम् । अ॒व॒तम् । न । वंस॑गः । त॒तृ॒षा॒णः । न । वंस॑गः । मदा॑य । ह॒र्य॒ताय॑ । ते॒ । तु॒विःऽत॑माय॒ । धाय॑से । आ । त्वा॒ । य॒च्छ॒न्तु॒ । ह॒रितः॑ । न । सूर्य॑म् । अहा॑ । विश्वा॑ऽइव । सूर्य॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
पिबा सोममिन्द्र सुवानमद्रिभि: कोशेन सिक्तमवतं न वंसगस्तातृषाणो न वंसगः। मदाय हर्यताय ते तुविष्टमाय धायसे। आ त्वा यच्छन्तु हरितो न सूर्यमहा विश्वेव सूर्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठपिब। सोमम्। इन्द्र। सुवानम्। अद्रिऽभिः। कोशेन। सिक्तम्। अवतम्। न। वंसगः। ततृषाणः। न। वंसगः। मदाय। हर्यताय। ते। तुविःऽतमाय। धायसे। आ। त्वा। यच्छन्तु। हरितः। न। सूर्यम्। अहा। विश्वाऽइव। सूर्यम् ॥ १.१३०.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 130; मन्त्र » 2
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे इन्द्र वंसगो न वंसगस्त्वमद्रिभिः सुवानं कोशेनाऽवतं सिक्तं नेव सोमं पिब। तुविष्टमाय धायसे मदाय हर्य्यताय ते तुभ्यमयं सोम आप्नोतु सूर्यमहा विश्वेव सूर्यं हरिता न त्वा य आयच्छन्तु ते सुखमाप्नुवन्तु ॥ २ ॥
पदार्थः
(पिब) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (सोमम्) दिव्यौषधिरसम् (इन्द्र) सभेश (सुवानम्) सोतुमर्हम् (अद्रिभिः) शिलाखण्डादिभिः (कोशेन) मेघेन (सिक्तम्) संयुक्तम् (अवतम्) वृद्धम् (न) इव (वंसगः) संभक्ता (तातृषाणः) अतिशयेन पिपासितः (न) इव (वंसगः) वृषभः (मदाय) आनन्दाय (हर्यताय) कामिताय (ते) तुभ्यम् (तुविष्टमाय) अतिशयेन तुविर्बहुस्तस्मै। तुविरिति बहुना०। निघं० ३। १। (धायसे) धर्त्रे (आ) (त्वा) (यच्छन्तु) निगृह्णन्तु (हरितः) (न) इव (सूर्यम्) (अहा) अहानि (विश्वेव) विश्वानीव (सूर्यम्) ॥ २ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। ये साधनोपसाधनैरायुर्वेदरीत्या महौषधिरसान् निर्माय सेवन्ते तेऽरोगा भूत्वा प्रयतितुं शक्नुवन्ति ॥ २ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (इन्द्र) सभापति ! (तातृषाणः) अतीव पियासे (वंसगः) बैल के (न) समान बलिष्ठ (वंसगः) अच्छे विभाग करनेवाले आप (अद्रिभिः) शिलाखण्डों से (सुवानम्) निकालने के योग्य (कोशेन) मेघ से (अवतम्) बढ़े (सिक्तम्) और संयुक्त किये हुए के (न) समान (सोमम्) सुन्दर ओषधियों के रस को (पिब) अच्छे प्रकार पिओ (तुविष्टमाय) अतीव बहुत प्रकार (धायसे) धारणा करनेवाले (मदाय) आनन्द के लिये (हर्य्यताय) और कामना किये हुए (ते) आपके लिये यह दिव्य ओषधियों का रस प्राप्त होवे अर्थात् चाहे हुए (सूर्यम्) सूर्य को (अहा) (विश्वेव) सब दिन जैसे वा (सूर्यम्) सूर्यमण्डल को (हरितः) दिशा-विदिशा (न) जैसे वैसे (त्वा) आपको जो लोग (आ, यच्छन्तु) अच्छे प्रकार निरन्तर ग्रहण करें, वे सुख को प्राप्त होवें ॥ २ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो बड़े साधन और छोटे साधनों और आयुर्वेद अर्थात् वैद्यकविद्या की रीति से बड़ी-बड़ी ओषधियों के रसों को बनाकर उसका सेवन करते, वे आरोग्यवान् होकर प्रयत्न कर सकते हैं ॥ २ ॥
विषय
'सोमधारण' से सब कोशों का पूरण
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (सवानं सोमम्) = इस उत्पन्न किये हुए सोम को-वीर्यशक्ति को (पिब) = अपने शरीर में ही पीने का, व्याप्त करने का प्रयत्न कर । यह सोम (अद्रिभिः) = उपासकों से (कोशेन) = अन्नमयादि कोशों के हेतु से (सिक्तम्) = शरीर में सिक्त किया जाता है । सोम को शरीर में सिक्त करने का सर्वोत्तम साधन प्रभु-उपासन है । सिक्त हुआ यह सोम सब कोशों को ऐश्वर्य सम्पन्न करता है - अन्नमयकोश को तेज से, प्राणमय को वीर्य [प्राणशक्ति] से, मन को ओज व बल से, विज्ञानमयकोश को मन्यु - ज्ञान से तथा आनन्दमयकोश को यह सहस् से पूर्ण करता है । इस कारण इस सोम के पान की ओर एक भक्त की प्रवृत्ति उसी प्रकार तीव्रता से होती है (न) = जैसे कि (तातुषाणः) = प्यास से अत्यन्त पीड़ित (वंसगः) = वननीय गतिवाला वृषभ (अवतम्) = एक जलकुण्ड की ओर जाता है । उपासक भी सोमपान के लिए (वंसगः न) = अत्यन्त पिपासित वननीय गतिवाले वृषभ की भाँति होता है । २. शरीर में ही व्याप्त किया हुआ यह सोम (मदाय) = हर्ष के लिए होता है, जीवन में उल्लास का कारण बनता है । (हर्यताय) = [हर्य गतिकान्त्योः] जीवन में उत्क्रान्ति के लिए और कान्ति को उत्पन्न करने के लिए होता है । (ते तुविष्टमाय) = हे जीव! यह सोम तेरे अत्यन्त महत्त्व व वृद्धि के लिए होता है और धायसे तेरे धारण के लिए होता है । ३. इन सब दृष्टिकोणों से प्रजाएँ हे सोम! (त्वा) = तुझे (आयच्छन्तु) = सब प्रकार से अपने में संयत करें (न) = उसी प्रकार अपने में बद्ध करें जैसे कि (हरितः) = दिशाएँ (सूर्यम्) = सूर्य को अपने में बद्ध करती हैं । (अहा विश्वा इव) = जैसे दिशाएँ सब दिनों, अर्थात् प्रतिदिन (सूर्यम्) = सूर्य को अपने में बद्ध करती हैं, उसी प्रकार ये प्रभुभक्त सोम को प्रतिदिन अपने में बद्ध करते हैं । वस्तुतः उन्नतिमात्र का मूल इस सोम के बन्धन में है । उपासक सोम के द्वारा सब कोशों की सम्पत्ति को अपने में धारण करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु - स्मरण से हम सोमधारण के योग्य बनें । सोमधारण से हम अन्नमयादि सब कोशों को अपने - अपने ऐश्वर्य से पूर्ण करें ।
विषय
अभिषिक्त राजा विद्वान्, और सभापति सेनापति के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! सभापते ! ( अद्रिभिः सुवानम् ) शिलाखण्डों से कूट पीस निकाले गये ( सोमम् ) शान्तिदायक औषधिरस को ( तातृषाणः वंसगः न ) जिस प्रकार पिपासित पुरुष पान करता है और जिस प्रकार (अद्रिभिः सुवानम्) मेघों वा पर्वतों द्वारा उत्पन्न किये (सोमम्) शान्तिदायक जल को ( तातृषाणः न वंसगः ) प्यासे के तुल्य सूर्य अपनी किरणों से पान करता है और जिस प्रकार ( कोशेन सिक्तम् ) अन्तरिक्षगत मेघ द्वारा सीचे गये बरसाये गये, जल से पूर्ण ( अवतम् ) जलाशय को ( तातृषाणः न वंसगः ) प्यासा बैल आकर जल पान करता है उसी प्रकार हे ( इन्द्र ) राजन् ! विद्वन् ! तू भी ( अद्रिभिः सुतम् ) मेघों के समान ज्ञान जलों के बरसाने और पर्वतों के तुल्य शीतल ज्ञान स्रोत बहाने वाले विद्वानों से ( सुवानं ) उपदेश किये गये ( सोमम् ) उत्तम मार्ग में प्रेरणा करने वाले ज्ञानोपदेश को (पिब) अमृत के समान पानकर उसे हृदय में धारण कर । उसी प्रकार हे राजन् । तू ( अद्रिभिः ) शत्रुओं द्वारा न विदीर्ण होने वाले और युद्धों में भी भय न खाने वाले और जलों को सूर्य रश्मियों के समान अपने सामर्थ्यो से शत्रु दल में से भी ऐश्वर्यो को बलात् हर लेने वाले वीर पुरुषों द्वारा प्राप्त ( सोमम् ) ऐश्वर्य या राष्ट्र को तू (पिब) पुष्टिकारक अन्न आदि औषधिरस के समान पानकर, उसका पालन और उपभोग कर । इसी प्रकार (कोशेन सिक्तम् अवतं) हे राजन् ! तू कोश अर्थात् अपने खजानों द्वारा सेंचकर बढ़ाये गये, रक्षित हुए राष्ट्र ऐश्वर्य को भी ( वंसगः तातृषाण इव ) प्यासे वृषभ के समान स्वयं राज्य की कामना से युक्त होकर भोग कर और यह समस्त ऐश्वर्य ( हर्यताय ) कामनाशील इच्छुक ( तुविस्तमाय ) अति अधिक बहुत सी प्रजा के स्वामी (धायसे) राष्ट्र के धारण करने वाले ( ते ) तेरे ही ( मदाय ) हर्ष और तृप्ति करने के लिये है । अथवा—यह सब ऐश्वर्य ( ते मदाय ) तेरे हर्ष और तृप्ति करने के लिये है, (ते हर्यताय) तेरी कामना इच्छा की पूर्ति के लिये और ( ते तुविस्तमाय ) तेरे लिये नाना प्रकार के ऐश्वर्य सुखों और प्रजाओं की वृद्धि के लिये और ( धायसे ) तेरे प्रजा पालन, धारण पोषण के लिये तुझे प्राप्त हो । ( अहा विश्वा इव सूर्यम् ) सूर्य को जिस प्रकार समस्त दिन आश्रय करते हैं और जिस प्रकार ( हरितः न सूर्यम् ) सयस्त दिशाएं और प्रकाश की किरणें सूर्य को धारण करती हैं और उसी के आश्रय रहती हैं उसी प्रकार ( विश्वा हरितः ) समस्त दिशावासी प्रजाजन और ( विश्वा अहा ) समस्त अपराहत और आगे बढ़ने वाले सैन्य गण ( त्वा आयच्छन्तु ) तुझे धारण करें ।
टिप्पणी
‘तातृषाणः’—असन्तुष्टा द्विजा नष्टाः सन्तुष्टाश्च महीभुजः॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१–१० परुच्छेप ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता । छन्दः– १, ५ भुरिगष्टिः । २, ३, ६, ९ स्वराडष्टिः । ४, ८, अष्टिः । ७ निचृदत्यष्टिः । १० विराट् त्रिष्टुप् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे साधन व उपसाधन याद्वारे आयुर्वेद अर्थात वैद्यकशास्त्राच्या रीतीने महाऔषधींचा रस तयार करून त्याचे ग्रहण करतात ते निरोगी बनून प्रयत्नशील बनतात. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Just as a thirsty bull drinks the water of a pool augmented by the showers of a cloud, so you Indra, friend and fond of company, drink this soma prepared from herbs crushed with grinders and seasoned by the shower of the clouds for your delight, lord versatile and vibrant, sustainer of life, worthy of love and homage, and just as the rays of light and all the days bring up the sun for the world, so may they bring you to our vedi of yajna.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (President of the assembly of the Council of of Ministers), drink the Soma juice that has been expressed by the stones and augmented with the water caused by the clouds, as a thirsty ox or a thirsty man bastens to a well. Drink this Soma Juice for thy exhilaration, for thy invigoration, for thy exceedingly great augmentation, let thy horses bring thee hither as the rays of the sun, bring him (through heaven) day by day.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( इन्द्र ) सभेश = President of the Assembly or the Council of Ministers. ( कोशेन ) मेघेन = By the cloud. कोश इतिमेघनाम (निध० १.१० ) Tr. ( तुविष्टमाय ) अतिशयेन तुविर्बहुम्तस्मै तुविरिति बहुनाम (निघ० ३.१ ) = Exceedingly great
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons who take the juice of great drugs and herbs produced and prepared properly in accordance with the methods given in the Ayurveda, being healthy and free from all diseases, are able to endeavor well in all directions.
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