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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 130 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 130/ मन्त्र 4
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - इन्द्र: छन्दः - अष्टिः स्वरः - मध्यमः

    दा॒दृ॒हा॒णो वज्र॒मिन्द्रो॒ गभ॑स्त्यो॒: क्षद्मे॑व ति॒ग्ममस॑नाय॒ सं श्य॑दहि॒हत्या॑य॒ सं श्य॑त्। सं॒वि॒व्या॒न ओज॑सा॒ शवो॑भिरिन्द्र म॒ज्मना॑। तष्टे॑व वृ॒क्षं व॒निनो॒ नि वृ॑श्चसि पर॒श्वेव॒ नि वृ॑श्चसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दा॒दृ॒हा॒णः । वज्र॑म् । इन्द्रः॑ । गभ॑स्त्योः । क्षद्म॑ऽइव । ति॒ग्मम् । अस॑नाय । सम् । श्य॒त् । अ॒हि॒ऽहत्या॑य । सम् । श्य॒त् । स॒म्ऽवि॒व्या॒नः । ओज॑सा । शवः॑ऽभिः । इ॒न्द्र॒ । म॒ज्मना॑ । तष्टा॑ऽइव । वृ॒क्षम् । व॒निनः॑ । नि । वृ॒श्च॒सि॒ । प॒र॒श्वाऽइ॑व । नि । वृ॒श्च॒सि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दादृहाणो वज्रमिन्द्रो गभस्त्यो: क्षद्मेव तिग्ममसनाय सं श्यदहिहत्याय सं श्यत्। संविव्यान ओजसा शवोभिरिन्द्र मज्मना। तष्टेव वृक्षं वनिनो नि वृश्चसि परश्वेव नि वृश्चसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दादृहाणः। वज्रम्। इन्द्रः। गभस्त्योः। क्षद्मऽइव। तिग्मम्। असनाय। सम्। श्यत्। अहिऽहत्याय। सम्। श्यत्। सम्ऽविव्यानः। ओजसा। शवःऽभिः। इन्द्र। मज्मना। तष्टाऽइव। वृक्षम्। वनिनः। नि। वृश्चसि। परश्वाऽइव। नि। वृश्चसि ॥ १.१३०.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 130; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    केऽत्र सुशोभन्त इत्याह ।

    अन्वयः

    हे विद्वन् भवान् यथा सूर्योऽहिहत्याय तिग्मं वज्रं संश्यत् तथा गभस्त्योः क्षद्मेवासनाय तिग्मं वज्रं निधाय दादृहाणः इन्द्रस्सन् शत्रून् संश्यत्। हे इन्द्र त्वं वृक्षं मज्मना तष्टेवौजसा शवोभिः सह संविव्यानस्सन् वनिन इव दोषान् निवृश्चसि परश्वेवाविद्यां निवृश्चसि तथा वयमपि कुर्याम ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (दादृहाणः) दोषान् हिंसन्। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदं, तुजादित्वाद्दैर्घ्यं, बहुलं छन्दसीति शपः श्लुः। (वज्रम्) तीव्रं शस्त्रं गृहीत्वा (इन्द्रः) विद्वान् (गभस्त्योः) बाह्वोः। गभस्तीति बाहुना०। निघं० २। ४। (क्षद्मेव) उदकमिव (तिग्मम्) तीव्रम् (असनाय) प्रक्षेपणाय (सम्) सम्यक् (श्यत्) तनूकरोति (अहिहत्याय) मेघहननाय (सम्) (श्यत्) (संविव्यानः) सम्यक् प्राप्नुवन् (ओजसा) पराक्रमेण (शवोभिः) सेनाद्यैर्बलैः (इन्द्र) दुष्टदोषविदारक (मज्मना) बलेन (तष्टेव) यथा छेत्ता (वृक्षम्) (वनिनः) वनानि बहवो रश्मयो विद्यन्ते येषां त इव (नि) (वृश्चसि) छिनत्सि (परश्वेव) यथा (परशुना) (नि) नितराम् (वृश्चसि) छिनत्सि ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः प्रमादालस्यादीन् दोषान् पृथक्कृत्य जगति गुणान्निदधति ते सूर्यरश्मय इवेह संशोभन्ते ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    इस संसार में कौन अच्छी शोभा को प्राप्त होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे विद्वान् ! आप जैसे सूर्य (अहिहत्याय) मेघ के मारने को (तिग्मम्) तीव्र अपने किरणरूपी वज्र को (सं, श्यत्) तीक्ष्ण करता वैसे (गभस्त्योः) अपनी भुजाओं के (क्षद्मेव) जल के समान (असनाय) फेंकने के लिये तीव्र (वज्रम्) शस्त्र को निरन्तर धारण करके (दादृहाणः) दोषों का विनाश करते (इन्द्रः) और विद्वान् होते हुए शत्रुओं को (सं, श्यत्) अति सूक्ष्म करते अर्थात् उनका विनाश करते वा हे (इन्द्र) दुष्टों का दोष नाशनेवाले ! आप (वृक्षम्) वृक्ष को (मज्मना) बल से (तष्टेव) जैसे बढ़ई आदि काटनेहारा वैसे (ओजसा) पराक्रम और (शवोभिः) सेना आदि बलों के साथ (संविव्यानः) अच्छे प्रकार प्राप्त होते हुए (वनिनः) वन वा बहुत किरणें जिनके विद्यमान उनके समान दोषों को (नि, वृश्चसि) निरन्तर काटते वा (परश्वेव) जैसे फरसा से कोई पदार्थ काटता वैसे अविद्या अर्थात् मूर्खपन को अपने ज्ञान से (नि, वृश्चसि) काटते हो, वैसे हम लोग भी करें ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य प्रमाद और आलस्य आदि दोषों को अलग कर संसार में गुणों को निरन्तर धारण करते हैं, वे सूर्य की किरणों के समान यहाँ अच्छी शोभा को प्राप्त होते हैं ॥ ४ ॥

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    विषय

    क्रियाशीलता से वासनाविनाश व शक्ति-प्राप्ति

    पदार्थ

    १. (इन्द्रः) = एक जितेन्द्रिय पुरुष (गभस्त्योः) = अपनी बाहुओं में (वज्रम्) = क्रियाशीलतारूपी वन को (दाहाणः) = दृढ़ता से ग्रहण करता हुआ (क्षद्म इव) = जल की भाँति (तिग्मम्) = तीक्ष्ण वन को (असनाय) = शत्रुओं पर फेंकने के लिए (संश्यत्) = खूब तीक्ष्ण करता है । (अहिहत्याय) = [आहन्तीति अहिः] चारों ओर से विद्ध करनेवाले इस कामरूप शत्रु के हनन के लिए (संश्यत्) = तीक्ष्ण करता है । जल के प्रोक्षण से जैसे पवित्रीकरण होता है, उसी प्रकार इस क्रियाशीलतारूपी वन के प्रक्षेप से भी पवित्रता का सञ्चार होता है । इस क्रियाशीलता से वासनाओं का विनाश होता है । अकर्मण्य पुरुष पर ही वासनाओं का आक्रमण होता है । क्रियाशीलतारूप वज़ को तीक्ष्ण करने का भाव यही है कि कार्यों में अनालस्यपूर्वक प्रवृत्त रहना । इस व्यक्ति को वासनाएँ नहीं सता पाती । वासनाओं से अनाक्रान्त होकर यह (ओजसा) = मानस बल से (शवोभिः) = इन्द्रियों की शक्तियों से तथा (मज्मना) = आत्मा के बल से (संविव्यानः) = अपने को सम्यक्तया युक्त करनेवाला होता है । वस्तुतः वासनाएँ ही शक्तियों को क्षीण करती हैं । वासनाक्षय से शरीर, मन व आत्मा सभी सशक्त बनते हैं । हे इन्द्र प्रभो! आप (वनिनः) = उपासकों की वासनाओं को इस प्रकार (निवृश्चसि) = निश्चय से काट डालते हैं (इव) = जैसे (तष्टा) = बढ़ई (वृक्षम्) = वृक्ष को काट डालता है । (इव) = जैसे वह (परश्वा) = कुल्हाड़े से (निवृश्चसि) = वृक्ष को काट डालता है, इसी प्रकार आप इस उपासक की वासनाओं को काट डालते हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम प्रभु - स्मरणपूर्वक क्रियाशील बने रहते हैं तो वासनाओं का विनाश हो जाता है और हमारे शरीर, मन व आत्मा सभी सबल बनते हैं ।

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    विषय

    अभिषिक्त राजा विद्वान्, और सभापति सेनापति के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( इन्द्रः तिग्मम् वज्रम् ) जिस प्रकार सूर्य अन्धकार को दूर करने वाला तीक्ष्ण प्रकाश अन्धकार को नाश करने और ( अतिहत्याय ) मेघ को छिन्न भिन्न करने लिये चारों ओर फेंकता है और जिस प्रकार ( इन्द्रः तिग्मम् वज्रम् क्षद्मम् इव ) मेघ तीक्ष्ण प्रहारकारी वज्र या विद्युत् को और तीक्ष्ण प्रहारकारी हिमकण को बरसाता है उसी प्रकार (इन्द्रः) शत्रुनाशक वीर सेनापति और राजा (दाद्दहाणः) अपनी वृद्धि करता हुआ, शत्रुओं का नाश करता हुआ ( गभस्त्योः ) बाहुओं में ( तिग्मम् ) तीक्ष्ण, और बहुत दूर तक जाने वाले ( वज्रम् ) शस्त्रादि हथियार और शस्त्र बल को ( असनाय ) शत्रु पर चलाने के लिये और ( अहिहत्याय ) अभिमुख बढ़े चले आते हुए शत्रु को मारने के लिये ( सं श्यत् ) खूब तीक्ष्ण करे और सैन्य को ( संश्यत् ) खूब उत्तेजित करे । हे ( इन्द्र ) शत्रुओं के नाश करने हारे, परसेनाओं के विदारक ! (तष्टा इव वनिनः) काटने वाला जिस प्रकार वन में उत्पन्न बड़े वृक्षों को काट गिराता है अथवा ( तष्टा इव वनिनः परश्वा ) सूर्य या वायु जिस प्रकार उदक वाले मेघों को तीव्रवेग से छिन्न भिन्न करता है। उसी प्रकार तू ( ओजसा ) बल, पराक्रम, तेज से, ( शवसा ) शक्तिमान् सैन्य बल से, और ( मज्मना ) दृढ़ सामर्थ्य से (सं-विव्यानः) युक्त होकर ( परश्वा इव ) परशु या कुल्हाड़े से ( वृक्षं न ) वृक्ष के समान ( वनिनः ) सेना समूह से युक्त शत्रुओं को ( पर-श्वा ) दूर स्थित शत्रुओं तक वेग से जाने वाले शस्त्रास्त्र द्वारा ( नि वृश्चसि ) सर्वथा काट डाल ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–१० परुच्छेप ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता । छन्दः– १, ५ भुरिगष्टिः । २, ३, ६, ९ स्वराडष्टिः । ४, ८, अष्टिः । ७ निचृदत्यष्टिः । १० विराट् त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी माणसे प्रमाद व आळस इत्यादी दोष दूर करून या जगामध्ये गुण धारण करतात ती सूर्य रश्मीप्रमाणे सुशोभित होतात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, firmly holding the thunder-bolt in hand, like a forceful jet of water or like a flood of penetrating rays of light to shoot, breaks the cloud and releases the waters of life. Similarly, one with your lustre and valour, like a wood cutter and carver, you fell the strongholds of evil like the trees of a forest, yes, uproot the wicked, striking the blows as with the axe.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Who are the persons who shine well. is told in the fourth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person, as the sun sharpens the thunderbolt (of rays) for the destruction of the clouds, in the same way, thou destroyest thy enemies by grasping sharp thunderbolt or strong weapons in thy hands to hurl at thy foes like the water, destroying others' defects. O Indra (destroyer of the evils of the wicked persons) thou who art fully endowed strength, with energy and the might of the army, cutest our enemies into pieces, as a wood-cutter the trees of the forest. Thou O learned person, as the sun sharpens the thunderbolt (of rays) for the destruction of the clouds, in the same way, thou destroyest thy enemies by grasping sharp thunderbolt or strong weapons in thy hands to hurl at thy foes like the water, destroying others' defects. O Indra (destroyer of the evils of the wicked persons) thou who art fully endowed strength, with energy and the might of the army, cuttest our enemies into pieces, as a wood-cutter the trees of the forest. Thou destroyest evils and ignorance as with a hatchet. evils and ignorance as with a hatchet.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (दादृहाण:) दोषान् हिंसन् = Destroying evils or removing defects. (गभस्यो) बाह्रोः = In the arm. (क्षदम्) उदकम् = Water. (ग्रहिहत्याय) मेघहननाय = For the destruction of the cloud. (इन्द्र) दुष्टदोषविदारक = The destroyer of the evils of the wicked.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons who destroy indolence, laziness and other evils and establish virtues in the world, shine like the rays of the sun.

    Translator's Notes

    गभस्तीति (बाहुनाम निघ० २.४) क्षघ्नेति उदकनाम (निघ० १.१२ ) अहिरिति मेघनाम (निघ० १.१० ) इन्द्रः (निरुक्ते.) ईन् दारयिता

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