ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 132/ मन्त्र 3
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराडत्यष्टिः
स्वरः - मध्यमः
तत्तु प्रय॑: प्र॒त्नथा॑ ते शुशुक्व॒नं यस्मि॑न्य॒ज्ञे वार॒मकृ॑ण्वत॒ क्षय॑मृ॒तस्य॒ वार॑सि॒ क्षय॑म्। वि तद्वो॑चे॒रध॑ द्वि॒तान्तः प॑श्यन्ति र॒श्मिभि॑:। स घा॑ विदे॒ अन्विन्द्रो॑ ग॒वेष॑णो बन्धु॒क्षिद्भ्यो॑ ग॒वेष॑णः ॥
स्वर सहित पद पाठतत् । तु । प्रयः॑ । प्र॒त्नऽथा॑ । ते॒ । शु॒शु॒क्व॒नम् । यस्मि॑न् । य॒ज्ञे । वार॑म् । अकृ॑ण्वत । क्षय॑म् । ऋ॒तस्य॑ । वाः । अ॒सि॒ । क्षय॑म् । वि । तत् । वो॒चेः॒ । अध॑ । द्वि॒ता । अ॒न्तरिति॑ । प॒श्य॒न्ति॒ । र॒श्मिऽभिः॑ । सः । घ॒ । वि॒दे॒ । अनु॑ । इन्द्रः॑ । गो॒ऽएष॑णः । ब॒न्धु॒क्षित्ऽभ्यः॑ । गो॒ऽएष॑णः ॥
स्वर रहित मन्त्र
तत्तु प्रय: प्रत्नथा ते शुशुक्वनं यस्मिन्यज्ञे वारमकृण्वत क्षयमृतस्य वारसि क्षयम्। वि तद्वोचेरध द्वितान्तः पश्यन्ति रश्मिभि:। स घा विदे अन्विन्द्रो गवेषणो बन्धुक्षिद्भ्यो गवेषणः ॥
स्वर रहित पद पाठतत्। तु। प्रयः। प्रत्नऽथा। ते। शुशुक्वनम्। यस्मिन्। यज्ञे। वारम्। अकृण्वत। क्षयम्। ऋतस्य। वाः। असि। क्षयम्। वि। तत्। वोचेः। अध। द्विता। अन्तरिति। पश्यन्ति। रश्मिऽभिः। सः। घ। विदे। अनु। इन्द्रः। गोऽएषणः। बन्धुक्षित्ऽभ्यः। गोऽएषणः ॥ १.१३२.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 132; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः किं कृत्वा कीदृशा भवेयुरित्याह ।
अन्वयः
हे विद्वान् गवेषण इन्द्र इव ते तव प्रत्नथा यस्मिन् यज्ञ ऋतस्य शुशुक्वनं क्षयं वारं वाः क्षयमिव ये प्रयोऽकृण्वत तेषां तत्तु त्वं प्राप्तोऽसि। अधाथ द्विता रश्मिभिरन्तर्यत् पश्यन्ति तत्त्वं विवोचेः स बन्धुक्षिद्भ्यो गवेषण इन्द्रोऽहं यदनुविदे घ तदेव त्वं जानीहि ॥ ३ ॥
पदार्थः
(तत्) पूर्वोक्तम् (तु) (प्रयः) प्रीतिकारकं वचः (प्रत्नथा) प्राचीनम् (ते) तव (शुशुक्वनम्) अतिशयेन प्रदीप्तम् (यस्मिन्) (यज्ञे) व्यवहारे (वारम्) वर्त्तुम् (अकृण्वत) कुर्वन्तु (क्षयम्) निवासम् (ऋतस्य) सत्यस्य (वाः) जलमिव (असि) (क्षयम्) प्राप्तव्यम् (वि) (तत्) (वोचेः) ब्रूयाः (अध) अथ (द्विता) द्वयोर्भावः (अन्तः) आभ्यन्तरे (पश्यन्ति) प्रेक्षन्ते (रश्मिभिः) किरणैः (सः) (घ) एव। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (विदे) वेद्मि। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (अनु) (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् (गवेषणः) यो गां वाणीमिच्छति सः (बन्धुक्षिद्भ्यः) बन्धून् निवासयद्भ्यः (गवेषणः) गवां किरणानामिष्टः सूर्य इव ॥ ३ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये सत्यगुणेषु प्रीतिं कुर्वन्ति ते विद्वांसो जायन्ते ये विद्वांसः स्युस्ते सूर्यप्रकाशेन सर्वान् पदार्थान् हस्तामलकवद्द्रष्टुं शक्नुवन्ति ॥ ३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य क्या करके कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे विद्वान् ! (गवेषणः) जो वाणी की इच्छा करता है उस (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् के समान (ते) आपका (प्रत्नथा) प्राचीन (यस्मिन्) जिस (यज्ञे) व्यवहार में (ऋतस्य) सत्य का (शुशुक्वनम्) अतिप्रकाशित (क्षयम्) निवास का (वारम्) स्वीकार करने को (वाः) जल और (क्षयम्) प्राप्त होने योग्य पदार्थ के समान जो (प्रयः) प्रीति करनेवाले वचन को (अकृण्वत) उच्चारण करें उनके (तत्) उस पूर्वोक्त वचन को (तु) तो आप प्राप्त (असि) हैं (अध) इसके अनन्तर (द्विता) दो का होना जैसे हो वैसे (रश्मिभिः) किरणों के साथ (अन्तः) भीतर जिसको (पश्यन्ति) देखते हैं (तत्) उसको तूँ (वि, वोचेः) अच्छे कह और (सः) वह (बन्धुक्षिद्भ्यः) बन्धुओं को निवास कराते हुए पुरुषों के लिये (गवेषणः) किरणों को इष्ट सूर्य के समान ऐश्वर्यवान् मैं (अनु, विदे) अनुकूलता से जानता हूँ (घ) उसीको आप भी जानो ॥ ३ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमलाङ्कार है। जो सत्य गुणों में प्रीति करते हैं, वे विद्वान् होते और जो विद्वान् हों, वे सूर्य के प्रकाश से सब हाथ में आमले के समान पदार्थों को देख सकते हैं ॥ ३ ॥
विषय
सात्त्विक अन्न
पदार्थ
१. प्रभु जीव से कहते हैं कि (ते तत् प्रयः) = तेरे वे अन्न (तु) = तो (प्रत्नथा) = पहले की भांति (शुशुक्वनम्) = [शुच् दीसौ] तुझे अत्यन्त पवित्र व दीत बनानेवाले हों । ब्रह्मचर्याश्रम में आचार्यकल में रहता हुआ तू जैसा सात्त्विक भोजन करता था, उसी प्रकार गृहस्थ में भी तेरा वही सात्विक भोजन बना रहे, (यस्मिन्) = जिस सात्विक भोजन से यज्ञे इस जीवन-यज्ञ में (वारम्) = वरणीय वस्तुओं को (अकृण्वत) = संगृहीत करते हैं । आहार - शुद्धि से [क] अन्तः करण की शुद्धि होती है, [ख] स्मृति की ध्रुवता प्रास होती है, [ग] (वासना) = ग्रन्थियों का विनाश हो जाता है । इस सात्विक अन्न के सेवन से ही (ऋतस्य क्षयम्) = सत्य के निवास को [क्षि - निवासे] (अकृण्वत) = करते हैं । सात्विक अन्न का सेवन हमें [घ] सत्य में स्थिर करता है । इस प्रकार सत्य में स्थित होता हुआ तू (क्षयं वाः असि) = अपने को निवास-स्थान के प्रति ले-जानेवाला होता है । ब्रह्मलोक ही तो हमारा निवासस्थान है । यहाँ तो हम एक जीवन - यात्रा में चल रहे हैं । इस यात्रा को पूर्ण करके हमें अपने वास्तविक घर ब्रह्मलोक में लौटना है । २. (अध) = अब-सात्विक अन्न का सेवन करने पर ही (द्विता) = दो प्रकार से स्थित - (अधः) = उपरिभावेन स्थित-पृथिवी व द्युलोक के अन्तः अन्दर (रश्मिभिः) = ज्ञानरश्मियों से (पश्यन्ति) = प्रभु की महिमा को देखते हैं । (तत्) = उस प्रभु के माहात्म्य को ही तू (विवोचेः) = अन्य साथियों के लिए भी विशेषरूप से प्रतिपादित करनेवाला हो । ३. (सः) = वह (घ) = निश्चय से (इन्द्रः) = ज्ञानैश्वर्यवाला प्रभु (विदे) = इस ज्ञानी के लिए (अनुगवेषणः) = अनुकूलता से इन्द्रियों को प्रेरित करनेवाला होता है, (बन्धुक्षिभ्यः) = सब बन्धुओं के लिए-गति करनेवालों च जीनेवालों के लिए [क्षि - निवासगत्योः] (गवेषणः) = इन्द्रियों को उत्तम प्रेरणा प्राप्त करानेवाला है [गो+एषणा] । प्रभु की प्रेरणा से जीवन उत्तम ही बनता है स्वार्थ से ऊपर उठकर यह परार्थमय हो जाता है ।
भावार्थ
भावार्थ - सात्विक अन्न के सेवन से हम जीवन में उत्तम बातों का ही संग्रह करते हैं सत्य में निवासवाले होते हैं । ऐसों की इन्द्रियों के लिए ही प्रभु सत्प्रेरणा प्राप्त कराते हैं ।
विषय
सूर्यवत् विद्वान् गुरु का शिष्यों के प्रति ज्ञान-दान, अध्यापन और विनय की शिक्षा।
भावार्थ
हे गुरो ! विद्वन् ! सूर्य का जिस प्रकार ( प्रयः ) दूर तक जाने वाला तेज ( शुशुक्वनं ) अति देदीप्यमान और ( प्रत्नथा ) अति पुरातन, सनातन से चला आरहा है उसी प्रकार हे गुरो ! हे प्रभो ! ( ते प्रयः ) तेरा ज्ञानमय वेदमय, वचन ( प्रत्नथा ) अति प्राचीन, सदा से विद्यमान और ( शुशुक्वनम् ) अति प्रकाशमान, अति शुद्ध, कान्ति युक्त, अभिव्यक्त हो । ( यज्ञे ) उपासना और सत्संग के योग्य ( यस्मिन् ) जिस तुझ प्रभु और उपास्य में भक्त और शिष्य जन ( वारम् ) वरण करने योग्य ( क्षयम् अकृण्वत ) अपना आश्रय लाभ करते हैं वह तू स्वयं ( ऋतस्य ) जल के प्राप्त करने वाले सूर्य के समान स्वयं ( ऋतस्य ) सत्य ज्ञान का ( क्षयं ) आश्रय स्थान और ( वाः ) सब दुःखों का वारण करने हारा या ( ऋतस्य वाः ) ऐश्वर्य और ज्ञान का समभाग करने हारा है । हे गुरो ! हे भगवन् ! आप ( तत् ) उस परम ज्ञान का ( वि वोचेः ) विशेष रूप से उपदेश करें । ( अद्य ) और जिस प्रकार जन साधारण ( रश्मिभिः द्विता पश्यन्ति ) सूर्य की रश्मियों से प्रत्येक पदार्थ को पृथक् पृथक् देखते हैं उसी प्रकार हे प्रभो ! गुरो ! विद्वान् जन भी (रश्मिभिः) ज्ञान रश्मियों या प्राणों के निग्रह द्वारा ( अन्तः ) अपने भीतर ध्यान योग से भी (द्विता) इह और पर, अहं और स्व, जीव और ब्रह्म दोनों को पृथक् पृथक् ( पश्यन्ति ) साक्षात् कर लेते हैं, कि ( स घ इन्द्रः ) वही गुरु, और परमात्मा (विदे) ज्ञानवान् पुरुष के लिये ज्ञानोपदेश के लिए (गवेषणः इन्द्र इव ) किरणों को प्रेरणा या प्रक्षेप करने वाले सूर्य के समान ही ( बन्धुक्षिद्भयः ) बन्धु के समान विद्या सम्बन्ध से अधीन रहने वाले शिष्यों के हितार्थ ( अनु ) अनुकूल होकर ( गवेषणः ) ज्ञान वाणियों को प्रदान करने हारा होता है। उपदेष्टा और सन्मार्ग में चलाने हारा प्राण वृत्तियों, इन्द्रियों एवं गौओं को गोपाल के समान रक्षा करने हारा, उनको चाहने वाला, उनका प्रिय हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
परुच्छेप ऋषि: ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः–१, ३, ५, ६ विराडत्यष्टिः । २ भुरिगतिशक्वरी । ४ निचृदष्टिः ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे सत्यावर प्रेम करतात ते विद्वान असतात व जे विद्वान असतात ते सूर्याच्या प्रकाशात हस्तमलकावत (हातातील आवळ्याप्रमाणे) पदार्थांना पाहू शकतात. (ते पदार्थांना सूक्ष्म पद्धतीने पाहू शकतात. ) ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, that Word of yours, that gracious gift, as ever, is brilliant. You are the ocean of Rta, eternal light and law of the truth of existence, the very home from where it flows like a river, like the radiation of sunlight. Pray speak of that same Word, reveal it in the yajna where they have created the choicest altar for your presence. Surely the same light the dedicated yajnics see within by the divine rays within and without. And I too would know of it then and realise. Truly Indra is the giver of knowledge, the Word, the cows and earthly wealth. He is the giver of these for the lovers and friends of our brethren. (The seeker of these too is Indra among humanity.)
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should men be by doing what is told in the third Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
o learned person, thou art like the sun, who art conveyor of the illuminated abode of truth seated in the Yajna in a prominent place and therefore men utter pleasing words to thee. Thou givest peace like the water. As men see everything visible with the help of the rays of the sun, in the same manner, teach us, so that we may see well what is with in and without As I praise a person who is kind to his kith and kin, and know what is to be known, in the same manner, you should also be.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( प्रयः ) प्रीतिकारकं वचः = Pleasing word. (क्षयम् ) निवासम् = Abode. ( शुशुक्वनम् ) अतिशयेन प्रदीप्तम् Bright ( गवेषणः ) १ यः गां वाणीम् इच्छति सः = Who desires to use good speech. २ गवां किरणम् इष्ट: । सूर्य इव = Like the sun.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who love truth and virtues, become learned. It is such learned persons that can see the real nature of all objects, as external articles are seen with the light of the sun.
Translator's Notes
क्षि-निवासगत्योः शोचतिर्ज्वलतिकर्मा ( निघo १.१६ )। गौरितिवाङ्नाम ( निघ० १.११ ) | गौरिति सूर्यरश्मिनाम व्याख्यातं निरुक्ते 'सर्वेऽपि रश्मयो गाव उच्यन्ते' ( निरुक्ते २. २. ६ ) ।
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