ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 132/ मन्त्र 5
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराडत्यष्टिः
स्वरः - मध्यमः
सं यज्जना॒न्क्रतु॑भि॒: शूर॑ ई॒क्षय॒द्धने॑ हि॒ते त॑रुषन्त श्रव॒स्यव॒: प्र य॑क्षन्त श्रव॒स्यव॑:। तस्मा॒ आयु॑: प्र॒जाव॒दिद्बाधे॑ अर्च॒न्त्योज॑सा। इन्द्र॑ ओ॒क्यं॑ दिधिषन्त धी॒तयो॑ दे॒वाँ अच्छा॒ न धी॒तय॑: ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । यत् । जना॑न् । क्रतु॑ऽभिः । शूरः॑ । ई॒क्षय॑त् । धने॑ । हि॒ते । त॒रु॒ष॒न्त॒ । श्र॒व॒स्यवः॑ । प्र । य॒क्ष॒न्त॒ । श्र॒व॒स्यवः॑ । तस्मै॑ । आयुः॑ । प्र॒जाऽव॑त् । इत् । बाधे॑ । अ॒र्च॒न्ति॒ । ओज॑सा । इन्द्र॑ । ओ॒क्य॑म् । दि॒धि॒ष॒न्त॒ । धी॒तयः॑ । दे॒वान् । अच्छ॑ । न । धी॒तयः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सं यज्जनान्क्रतुभि: शूर ईक्षयद्धने हिते तरुषन्त श्रवस्यव: प्र यक्षन्त श्रवस्यव:। तस्मा आयु: प्रजावदिद्बाधे अर्चन्त्योजसा। इन्द्र ओक्यं दिधिषन्त धीतयो देवाँ अच्छा न धीतय: ॥
स्वर रहित पद पाठसम्। यत्। जनान्। क्रतुऽभिः। शूरः। ईक्षयत्। धने। हिते। तरुषन्त। श्रवस्यवः। प्र। यक्षन्त। श्रवस्यवः। तस्मै। आयुः। प्रजाऽवत्। इत्। बाधे। अर्चन्ति। ओजसा। इन्द्र। ओक्यम्। दिधिषन्त। धीतयः। देवान्। अच्छ। न। धीतयः ॥ १.१३२.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 132; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः किं कर्त्तुं शक्नुवन्तीत्याह।
अन्वयः
हे विद्वांसः श्रवस्यव इव वर्त्तमानाः श्रवस्यवो यूयं क्रतुभिर्यज्जनान् हिते धने तरुषन्त प्रयक्षन्त च। यः शूरः समीक्षयत् तस्मै प्रजावदायुर्भवतु। हे विपश्चितो ये यूयं धीतयो न धीतयः सन्त इन्द्रे परमैश्वर्य्ययुक्त ओक्यं संपाद्य देवानाच्छादिधिषन्त बाध ओजसाऽर्चन्तीव बाध इद्रक्षत ॥ ५ ॥
पदार्थः
(सम्) सम्यक् (यत्) यान् (जनान्) धार्मिकान् (क्रतुभिः) प्रज्ञाभिः कर्मभिर्वा (शूरः) निर्भयः (ईक्षयत्) दर्शयेत् (धने) (हिते) सुखकारके (तरुषन्त) ये दुःखानि तरन्ति तद्वदाचरत (श्रवस्यवः) आत्मनः श्रवः श्रवणमिच्छवः (प्र) (यक्षन्त) रोषत हिंस्त (श्रवस्यवः) आत्मनः श्रवणमिच्छव इव वर्त्तमानाः (तस्मै) (आयुः) जीवनम् (प्रजावत्) बह्व्यः प्रजा विद्यन्ते यस्मिंस्तत् (इत्) एव (बाधे) (अर्चन्ति) सत्कुर्वन्ति (ओजसा) पराक्रमेण (इन्द्रे) परमेश्वर्ययुक्ते (ओक्यम्) ओकेषु गृहेषु साधु (दिधिषन्त) उपदिशन्ति। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (धीतयः) धरन्तः (देवान्) विदुषः (अच्छ) उत्तमरीत्या (न) इव (धीतयः) धरन्तः ॥ ५ ॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये विद्वत्सङ्गसेवाभ्यां विद्याः प्राप्य पुरुषार्थेन परमैश्वर्यमुन्नयन्ति ते सर्वान् प्राज्ञान्सुखिनः संपादयितुं शक्नुवन्ति ॥ ५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य क्या करके क्या कर सकते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे विद्वानो ! (श्रवस्यवः) अपने को सुनने में चाहना करनेवालों के समान वर्त्तमान (श्रवस्यवः) अपने सुनने की इच्छा करनेवाले तुम जैसे (क्रतुभिः) बुद्धि वा कर्मों से (यत्) जिन (जनान्) धार्मिक जनों को (हिते) सुख करनेहारे (धने) धन के निमित्त (तरुषन्त) पार करो उद्धार करो और (प्रयक्षन्त) दुष्टों को दण्ड देओ और जो (शूरः) निर्भय शूरवीर पुरुष (समीक्षयत्) ज्ञान करावे व्यवहार को दर्शावे (तस्मै) उसके लिये (प्रजावत्) जिसमें बहुत सन्तान विद्यमान वह (आयुः) आयुर्दा हो। हे उत्तम विचारशील पुरुषो ! तुम (धीतयः) धारण करते हुओं के (न) समान (धीतयः) धारणा करनेवाले होते हुए परमऐश्वर्य्ययुक्त परमेश्वर में (ओक्यम्) घरों में श्रेष्ठ व्यवहार उसको सिद्ध कर (देवान्) विद्वानों को (अच्छ) अच्छा (दिधिषन्त) उपदेश करते समझाते हो वे आप (बाधे) दुष्ट व्यवहारों को बाधा के लिये (ओजसा) पराक्रम से (अर्चन्ति) सत्कार करते हुओं के समान कष्ट में (इत्) ही रक्षा करो ॥ ५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो विद्वानों के सङ्ग और सेवा में विद्याओं को पाकर पुरुषार्थ से परम ऐश्वर्य्य की उन्नति करते हैं, वे सब ज्ञानवान् पुरुषों को सुखयुक्त कर सकते हैं ॥ ५ ॥
विषय
प्रभु में निवास
पदार्थ
१. (शूरः) = शत्रुओं का हिंसन करनेवाला वह प्रभु (यत्) = जब (जनान्) = लोगों को (क्रतुभिः) = यज्ञों के हेतु से (समीक्षयत्) = सम्यक् ज्ञानवाला बनाता है तब (धने हिते) = उन यज्ञों के द्वारा ऐश्वयों के स्थापित होने पर (श्रवस्यवः) = ज्ञान की कामनावाले ये पुरुष (तरुषन्त) = वासनाओं का संहार करते हैं । इन वासनाओं के संहार के लिए ही (श्रवस्यवः) = ये ज्ञान की कामनावाले पुरुष (प्रयक्षन्त) = प्रभु का खूब ही पूजन करते हैं । प्रभुपूजन से वासना विनष्ट हो जाती है, वासना-विनाश से ज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता है । इस ज्ञान के प्रकाश में मनुष्य यज्ञात्मक कर्मों को अपनाता है और परिणामतः हितकर धनों को प्राप्त होता है । २. (तस्मै) = उस यज्ञात्मक कर्मों को करनेवाले के लिए (इत्) = ही (बाधे) = वासनारूप शत्रुओं का बाधन होने पर (प्रजावत् आयुः) = उत्तम सन्तानोंवाला जीवन प्राप्त होता है । इस सबका विचार करके श्रवस्यवः ज्ञान की कामनावाले लोग (ओजसा) = ओज की प्राप्ति के लिए (अर्चन्ति) = प्रभु का पूजन करते हैं । ३. (धीतयः) = ध्यानशील पुरुष (इन्द्रे) = उस परमात्मा में ही (ओक्यम्) = निवास-स्थान को (दिधिषन्त) = धारण करते हैं (न) = और [न इति चार्थे] परिणामतः (धीतयः) = ध्यानशील पुरुष (देवान् अच्छा) = देवों की ओर चलनेवाले होते हैं, ये दिव्य गुणों को प्राप्त करते हैं । प्रभु में निवास करना ही दिव्यगुणों की प्राप्ति का सर्वोत्तम मार्ग है । दिव्यगणों की प्राप्ति के साथ इस प्रभुपूजन से ओजस्विता प्राप्त होती है । ओजस्विता से वासनारूप शत्रुओं का विनाश होकर उत्तम सन्तानों से युक्त दीर्घायुष्य प्राप्त होता है ।
भावार्थ
संकि [ख] ज्ञान के द्वारा अहंकार को नष्ट करें, [ग] प्राणायाम के अभ्यासी बनें ।
विषय
पक्षान्तर में शुर पुरुषों, नायकों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( शूरः ) शूरवीर पुरुष के समान अति शीघ्रता से सहज में ही ज्ञानैश्वर्य के देने वाला आचार्य ( यत् ) जो ( क्रतुभिः ) ज्ञानों द्वारा ( जनान् ) मनुष्यों को ( सम् ईक्षयत् ) अच्छी प्रकार मार्ग दिखाता है ( तस्मै ) उसे ( प्रजावत् आयुः इत् ) प्रजा, सन्तति से युक्त दीर्घ जीवन प्राप्त हो । ( श्रवस्यवः ) यश और उत्तम वेदमय गुरु-उपदेश को श्रवण करने की इच्छा करने वाले जिज्ञासु लोग धन के बल पर संकटों से धनाढ्य के समान ( हिते धने ) परम हितकारी धन के समान सुगोप्य आत्मा के बल पर ही ( तरुषन्त ) दुःखों से तर जाते हैं । और वे ( श्रवस्यवः ) यश की कामना करते हुए ( प्रयक्षन्त च ) उत्तम रीति से अन्यों को भी ज्ञान प्रदान करते हैं। वे लोग (वाधे) अपने विरोधियों के दमन करने या बाधा उपस्थित हो जाने पर ( ओजसा ) उसके बल पराक्रम के कारण ही उसकी ( अर्चन्ति ) पूजा, आदर करते हैं । ( धीतयः देवान् अच्छ न ) जिस प्रकार दान लेने वाले पुरुष दान देने वालों के सन्मुख रहते, उसी प्रकार ( धीतयः ) अध्ययन करने वाले शिष्य जन ( इन्द्रे ) अविद्यानाशक गुरु के अधीन रह कर ( ओक्यं ) प्रवचन योग्य गुरूपदेश को ( अच्छ ) सम्मुख बैठ कर ( दिधिषन्त ) धारण करें। शूरवीर के पक्ष में—( श्रवस्यन्तः तरुषन्त ) धनार्थी लोग दूसरे की हिंसा कर सकते हैं । और ( श्रवस्यवः प्रयक्षन्त च ) अन्न और धनेच्छु लोग खूब शत्रुओं को मारते हैं। तब ( यत् जनात् क्रतुभिः समीक्षयत् प्रजावत् आयुः ) जो पुरुष राज्य के प्रजाजनों को अपने कर्मों और ज्ञानों से विवेक दर्शाता है उसको प्रजा युक्त दीर्घ जीवन प्राप्त हो वह अपने पुत्र पौत्रादि सहित दीर्घायु हो । ( वा ये ओजसा अर्चन्ति ) संकट आ पड़ने पर उसे दूर करने के लिए पराक्रम के कारण ही उसका वे आदर करते हैं, धारण करने वाले भृत्य होकर ( इन्द्रे ओक्यं दिधिषन्त ) उस ऐश्वर्यवान् सेनापति के अधीन ही अपने आश्रय, देश गृह या पद को धारण पोषण करने योग्य जन जिस प्रकार अपने दाताओं का आदर करते हैं उसी प्रकार वे ( धीतयः देवान् अच्छा दिधिषन्त ) वेतन भृत होकर वे दानशील राजाओं को पुष्ट करें। अथवा—धारण पोषणकारी होकर वे विद्वानों की भी रक्षा करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
परुच्छेप ऋषि: ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः–१, ३, ५, ६ विराडत्यष्टिः । २ भुरिगतिशक्वरी । ४ निचृदष्टिः ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जे विद्वानांच्या संगतीत व सेवेत राहून विद्या प्राप्त करतात व पुरुषार्थाने परम ऐश्वर्य वाढवितात ते सर्व ज्ञानी लोकांना सुखी करतात. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
When Indra, brave and fearless lord of power and glory, by virtue of his wisdom and noble actions, closely surveys the forces of the people at the call of battle, the people, keen for honour, in love with fame, overcome all opposition, worship him and serve him with all their valour and lustre in the hour of crisis. They augment his life and morale as the hero of a mighty nation. Firm of mind and full of confidence, they repose complete faith in him as in the divinities and find their haven and home in him.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What can men do is told in the fifth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons, acting like those men who desire knowledge and reputation, you take people away from misery by giving them good knowledge (advice) and by teaching them how to act to achieve the wealth that leads to happiness, also punishing the evil-doers. The hero who thus shows the right path, may get long life with good progeny. O wise men ! you should act like men who bear good virtues and wisdom, having abode in the Lord (always thinking of Him) and teaching enlightened persons and for the removal of the wicked, worship God with all their might.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( तरुषन्त ) ये दुःखानि तरन्ति तद्वत् आचरत = Act like those persons who take men away from miseries. तृ प्लवन सन्तरणयोः ) = Tr. ( यक्षन्त ) रोषत हिंस्त = Punish or slay. ( दिधिषन्त ) उपदिशन्ति अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons who augment their prosperity by industriously acquiring the knowledge of various sciences from the association of learned persons and their service, are able to make all intelligent and happy.
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