ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 134/ मन्त्र 6
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - वायु:
छन्दः - विराडष्टिः
स्वरः - मध्यमः
त्वं नो॑ वायवेषा॒मपू॑र्व्य॒: सोमा॑नां प्रथ॒मः पी॒तिम॑र्हसि सु॒तानां॑ पी॒तिम॑र्हसि। उ॒तो वि॒हुत्म॑तीनां वि॒शां व॑व॒र्जुषी॑णाम्। विश्वा॒ इत्ते॑ धे॒नवो॑ दुह्र आ॒शिरं॑ घृ॒तं दु॑ह्रत आ॒शिर॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । नः॒ । वा॒यो॒ इति॑ । ए॒षा॒म् । अपू॑र्व्यः । सोमा॑नाम् । प्र॒थ॒मः । पी॒तिम् । अ॒र्ह॒सि॒ । सु॒ताना॑म् । पी॒तिम् । अ॒र्ह॒सि॒ । उ॒तो इति॑ । वि॒हुत्म॑तीनाम् । वि॒शाम् । व॒व॒र्जुषी॑णाम् । विश्वाः॑ । इत् । ते॒ । धे॒नवः॑ । दु॒ह्रे॒ । आ॒ऽशिर॑म् । घृ॒तम् । दु॒ह्र॒ते॒ । आ॒ऽशिर॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं नो वायवेषामपूर्व्य: सोमानां प्रथमः पीतिमर्हसि सुतानां पीतिमर्हसि। उतो विहुत्मतीनां विशां ववर्जुषीणाम्। विश्वा इत्ते धेनवो दुह्र आशिरं घृतं दुह्रत आशिरम् ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। नः। वायो इति। एषाम्। अपूर्व्यः। सोमानाम्। प्रथमः। पीतिम्। अर्हसि। सुतानाम्। पीतिम्। अर्हसि। उतो इति। विहुत्मतीनाम्। विशाम्। ववर्जुषीणाम्। विश्वाः। इत्। ते। धेनवः। दुह्रे। आऽशिरम्। घृतम्। दुह्रते। आऽशिरम् ॥ १.१३४.६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 134; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 23; मन्त्र » 6
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 23; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे वायो परमबलवन् अपूर्व्यस्त्वं नः सुतानां सोमानां पीतिमर्हसि प्रथमस्त्वमेषां पीतिमर्हसि यास्ते विश्वा धेनव इदेवाशिरं घृतं दुह्रत आशिरं दुह्रे तासां ववर्जुषीणां विहुत्मतीनां विशामुतो रक्षणं सततं कुरु ॥ ६ ॥
पदार्थः
(त्वम्) (नः) अस्माकम् (वायो) प्राण इव वर्त्तमान (एषाम्) (अपूर्व्यः) पूर्वैः कृतः पूर्व्यो न पूर्व्योऽपूर्व्यः (सोमानाम्) ऐश्वर्यकारकाणां महौषधिरसानाम् (प्रथमः) आदिमः प्रख्याता वा (पीतिम्) पानम् (अर्हसि) कर्त्तुं योग्योऽसि (सुतानाम्) सुक्रियया निष्पादितानाम् (पीतिम्) पानम् (अर्हसि) (उतो) अपि (विहुत्मतीनाम्) जुह्वति स्वीकुर्वन्ति याभिस्ता विहुतो मतयो यासु तासाम् (विशाम्) प्रजानाम् (ववर्जुषीणाम्) भृशं दोषान्वर्जयन्तीनाम्। अत्र यङ्लुगन्ताद्व्रजेः क्विबन्तं रूपम्। (विश्वाः) सर्वाः (इत्) एव (ते) तव (धेनवः) गावः (दुह्रे) पिपुरति (आशिरम्) भोगम् (घृतम्) प्रदीप्तम् (दुह्रते) प्रपूरयन्ति (आशिरम्) समन्ताद्भोग्यम् ॥ ६ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। राजपुरुषैर्ब्रह्मचर्यस्वौषधसेवनयुक्ताहारविहारैः शरीरात्मबलमुन्नीय धर्मेण प्रजापालने स्थिरैर्भवितव्यम् ॥ ६ ॥अत्र वायुदृष्टान्तेन शूरन्यायेषु प्रजाकर्मवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिरस्तीत्यवगन्तव्यम् ॥इति चतुस्त्रिंशदुत्तरं शततमं सूक्तं त्रयोविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (वायो) प्राण के समान वर्त्तमान परम बलवान् (अपूर्व्यः) जो अगलों ने नहीं प्रसिद्ध किये वे अपूर्व गुणी (त्वम्) आप (नः) हमारे (सुतानाम्) उत्तम क्रिया से निकाले हुए (सोमानाम्) ऐश्वर्य्य करनेवाले बड़ी-बड़ी ओषधियों के रसों के (पीतिम्) पीने को (अर्हसि) योग्य हो और (प्रथमः) प्रथम विख्यात आप (एषाम्) इन उक्त पदार्थों के रसों के (पीतिमर्हसि) पीने को योग्य हो जो (ते) आपकी (विश्वाः) समस्त (धेनवः) गौएँ (इत्) ही (आशिरम्) भोगने के (घृतम्) कान्तियुक्त घृत को (दुहते) पूरा करती और (आशिरम्) अच्छे प्रकार भोजन करने योग्य दुग्ध आदि पदार्थ को (दुहे) पूरा करती उनकी और (ववर्जुषीणाम्) निरन्तर दोषों को त्याग करती हुई (विहुत्मतीनाम्) जिनमें विशेषता से होम करनेवाला विचारशील मनुष्य विद्यमान उन (विशाम्) प्रजाओं की (उतो) निश्चय से पालना कीजिये ॥ ६ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। राजपुरुषों को चाहिये कि ब्रह्मचर्य्य और उत्तम औषध के सेवन और योग्य आहार-विहारों से शरीर और आत्मा के बल की उन्नति कर धर्म से प्रजा की पालना करने में स्थिर हों ॥ ६ ॥।इस सूक्त में पवन के दृष्टान्त से शूरवीरों के न्यायविषयकों में प्रजा कर्म के वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥यह एकसौ चौंतीसवाँ सूक्त और तेईसवाँ वर्ग पूरा हुआ ॥
विषय
अपूर्व्यः, प्रथमः
पदार्थ
१. हे (वायो) = गतिशील जीव! सदा अपने कर्तव्य कर्मों में लगे हुए जीव ! (त्वम्) = तू (न:) = हमारे (एषाम्) = इन (सोमानाम्) = सोमकणों के (पीतिम् अर्हसि) = पान के योग्य है, (सुतानाम्) = उत्पन्न किये गये इन सोमकणों को (पीतिम् अर्हसि) = शरीर में ही धारण करने के योग्य है। तुझे इन्हें नष्ट नहीं होने देना, शरीर में ही व्याप्त [ Imbibe] करने का प्रयत्न करना । इससे तू (अपूर्व्य:) = सबसे पूर्वस्थान में होनेवाला होगा- उन्नति पथ पर सबसे आगे होगा और (प्रथमः) = अपनी शक्तियों का विस्तार करनेवाला होगा। (उत उ) = और इस प्रकार ही (विहुत्मतीनाम्) = विशिष्ट आहुति व त्यागवाली (ववर्जुषीणाम्) = पापों का वर्जन करनेवाली (विशाम्) = प्रजाओं में तू (अपूर्व्य:) = सबसे आगे होगा। २. इस सोम का रक्षण करने पर (ते) = तेरे लिए (इत्) = निश्चय से (विश्वा धेनवः) = वेदवाणीरूपी सब गौएँ (आशिरम्) = वासनाओं को शीर्ण करनेवाले ज्ञानदुग्ध को [शृ हिंसायाम्] (दुह्रे) = दोहती हैं। (आशिरम्) = वासनाओं को पूर्णरूप से क्षीण करनेवाली (घृतम्) = ज्ञानदीप्ति को (दुह्रते) = प्रपूरण करती हैं। वस्तुतः सोमकण ज्ञानाग्नि का ईंधन बनते हैं, ज्ञानदीसि चमक उठती है और उसमें सब वासनाएँ भस्म हो जाती हैं।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण से मनुष्य त्यागवृत्तिवाला, पापों को अपने से दूर करनेवाला व वासनाओं को भस्म करनेवाला बनता है।
विषय
राजा का सर्वोपर पालन और ऐश्वर्य-भोग का अधिकार ।
भावार्थ
हे ( वायो ) ज्ञानवान् एवं बलवान् राजन् ! ( अपूर्व्यः ) पूर्व पुरुषों द्वारा किये कर्मों से भी विलक्षण कर्म करनेहारा, अथवा जिसके पूर्व कोई अन्य न हो ऐसे अद्वितीय पद के योग्य होकर तू ( एषाम् सोमानाम् ) इन समस्त ऐश्वर्यों और पदाधिकारों का ओषधि रसों के समान ( पीतिम् अर्हसि ) पान अर्थात् उपभोग करने में समर्थ है । तू ही ( सुतानां ) अभिषिक्त राजपदाधिकारियों में से ( प्रथमः ) सब से प्रथम, उत्तम रहकर ( पीतिम् अर्हसि ) ऐश्वर्य भोग करने का अधिकारी है। तू ( विहुत्मतीनां ) विविध ग्राह्य पदार्थों से सम्पन्न, सुसमृद्ध, और (ववर्जुषीणाम् ) सब दोषों से रहित ( प्रजानां ) प्रजाओं का भी ( पीतिम् अर्हसि ) पालन और उपभोग करने में समर्थ है । ( धेनवः ) गौएं जिस प्रकार ( आशिरम् घृतम् दुह्रते ) सेवन करने योग्य घी आदि पदार्थ प्रदान करती हैं उसी प्रकार ( विश्वाः इत् ) समस्त प्रजाएं ( ते ) तेरे ही उपभोग के लिये ( आशिरम् ) सेवन करने योग्य और आश्रय करने योग्य समस्त ऐश्वर्य को (दुह्रे) प्रदान करें। इति त्रयोविशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१–६ परुच्छेप ऋषिः ॥ वायुर्देवता ॥ छन्दः– १, ३ निचृदत्यष्टिः । २, ४ विराडत्यष्टिः । ५ अष्टिः । ६ विराडष्टिः ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. राजपुरुषांनी, ब्रह्मचर्य, उत्तम औषध व योग्य आहार-विहाराने शरीर व आत्म्याने बल वाढवून धर्माने प्रजेच्या पालनात स्थिर व्हावे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Vayu, first, unprecedented and eternal lord, you alone deserve to drink of these soma essences distilled by us, you alone deserve to receive the offer of our acts of worship. You alone are the object of worship by purified intelligences and dedicated souls of the people. All dynamics of the world, lights of the suns, earths of the universe, divinities of nature and geniuses of humanity offer the milk of worship, they offer the ghrta of milky soma in the divine fire for you, only for you.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person powerful like the wind and dear to us like the prana, thou being the best among wise persons and most wonderful and distinguished art entitled to drink first of the Soma (Juice of Soma and other nourishing plants) prepared by us. Thy cows yield milk, they yield Ghee or clarified butter. It is thy duty to protect all people who are of pure intellect and who give up all evils and defects.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( विहुत्मतीनाम् जुह्वति स्वीकुर्वन्ति याभिस्ता विहुतो मतयो यासु तासाम् = Possessing good intellects (ववर्जुषीणाम् ) भृशं दोषान् वर्जयन्तीनाम् । अत्र यङ् लुगन्ताद् वजेः विवनोरूपम् ।
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of the officers and servants of the State, to develop their physical and spiritual power by the observance of Brahmacharya, good medicines and proper nourishing food taken regularly and engage themselves in the protection of their subjects righteously.
Translator's Notes
This hymn is connected with the previous hymn as there is mention of the duties towards the people by the illustration of the airs or winds. Here ends the commentary on the 134th Hymn and 23rd Verga of the first Mandala of the Rigveda Sanhita.
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