ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 135/ मन्त्र 7
अति॑ वायो सस॒तो या॑हि॒ शश्व॑तो॒ यत्र॒ ग्रावा॒ वद॑ति॒ तत्र॑ गच्छतं गृ॒हमिन्द्र॑श्च गच्छतम्। वि सू॒नृता॒ ददृ॑शे॒ रीय॑ते घृ॒तमा पू॒र्णया॑ नि॒युता॑ याथो अध्व॒रमिन्द्र॑श्च याथो अध्व॒रम् ॥
स्वर सहित पद पाठअति॑ । वा॒यो॒ इति॑ । स॒स॒तः । या॒हि॒ । शश्व॑तः । यत्र॑ । ग्रावा॑ । वद॑ति । तत्र॑ । ग॒च्छ॒त॒म् । गृ॒हम् । इन्द्रः॑ । च॒ । ग॒च्छ॒त॒म् । वि । सू॒नृता॑ । ददृ॑शे । रीय॑ते । घृ॒तम् । आ । पू॒र्णया॑ । नि॒ऽयुता॑ । या॒थः॒ । अ॒ध्व॒रम् । इन्द्रः॑ । च॒ । या॒थः॒ । अ॒ध्व॒रम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अति वायो ससतो याहि शश्वतो यत्र ग्रावा वदति तत्र गच्छतं गृहमिन्द्रश्च गच्छतम्। वि सूनृता ददृशे रीयते घृतमा पूर्णया नियुता याथो अध्वरमिन्द्रश्च याथो अध्वरम् ॥
स्वर रहित पद पाठअति। वायो इति। ससतः। याहि। शश्वतः। यत्र। ग्रावा। वदति। तत्र। गच्छतम्। गृहम्। इन्द्रः। च। गच्छतम्। वि। सूनृता। ददृशे। रीयते। घृतम्। आ। पूर्णया। निऽयुता। याथः। अध्वरम्। इन्द्रः। च। याथः। अध्वरम् ॥ १.१३५.७
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 135; मन्त्र » 7
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ।
अन्वयः
हे वायो विद्वँस्त्वं ससतः शश्वतो याहि यत्र ग्रावा वदति तत्र त्वमिन्द्रश्च गच्छतं गृहं गच्छतं यत्र सूनृता विददृशे घृतमारीयते तत्र पूर्णया नियुता यौ त्वमिन्द्रश्चाध्वरं यथास्तौ युवामध्वरं याथः ॥ ७ ॥
पदार्थः
(अति) अतिशये (वायो) वायुवद्बलवन् (ससतः) अविद्यामुल्लङ्घमानान् (याहि) (शश्वतः) सनातनविद्यायुक्तान् (यत्र) (ग्रावा) मेधावी (वदति) उपदिशति (तत्र) (गच्छतम्) प्राप्नुतम् (गृहम्) (इन्द्रः) (च) (गच्छतम्) (वि) (सूनृता) सुशिक्षिता सत्यप्रिया वाक् (ददृशे) दृश्यते (रीयते) श्लिष्यते सम्बध्यते (घृतम्) प्रदीप्तविज्ञानम् (आ) (पूर्णया) (नियुता) अखिलाङ्गयुक्तया वायोर्गतिवद्गत्या (याथः) प्राप्नुथः (अध्वरम्) अहिंसादिलक्षणं धर्मम् (इन्द्रः) ऐश्वर्ययुक्तः (च) (याथः) गच्छथः (अध्वरम्) यज्ञम् ॥ ७ ॥
भावार्थः
मनुष्या यस्मिन्देशे स्थले वाऽऽप्ता विद्वांसः सत्यमुपदिशेयुस्तत्स्थानं गत्वा तदुपदेशं नित्यं शृणुयुः। येन विद्यावाणीं सत्यं विज्ञानं धर्मज्ञानं च प्राप्नुयुः ॥ ७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (वायो) पवन के समान बलवान् विद्वान् ! आप (ससतः) अविद्या को उल्लङ्घन किये और (शश्वतः) सनातन विद्या से युक्त पुरुषों को (याहि) प्राप्त होओ (यत्र) जहाँ (ग्रावा) धीर बुद्धि पुरुष (अति, वदति) अत्यन्त उपदेश करता (तत्र) वहाँ आप (च) और (इन्द्रः) ऐश्वर्ययुक्त मनुष्य (गच्छतम्) जाओ और (गृहम्) घर (गच्छतम्) जाओ जहाँ (सूनृता) उत्तमशिक्षा युक्त सत्यप्रिय वाणी (वि, ददृशे) विशेषता से देखी जाती और (घृतम्) प्रकाशित विज्ञान (आ, रीयते) अच्छे प्रकार सम्बद्ध होता अर्थात् मिलता वहाँ (पूर्णया) पूरी (नियुता) पवन की चाल के समान चाल से जो आप (इन्द्रः, च) और ऐश्वर्य्ययुक्त जन (अध्वरम्) अहिंसादि लक्षण धर्म को (याथः) प्राप्त होते हो, वे तुम दोनों (अध्वरम्) यज्ञ को (याथः) प्राप्त होते हो ॥ ७ ॥
भावार्थ
मनुष्य लोग जिस देश वा स्थान में शास्त्रवेत्ता आप्त विद्वान् सत्य का उपदेश करें, उनके स्थान पर जाके उनके उपदेश को नित्य सुना करें, जिससे विद्यायुक्त वाणी और सत्य विज्ञान और धर्मज्ञान को प्राप्त होवें ॥ ७ ॥
विषय
वायु और इन्द्र का स्थान कहाँ ?
पदार्थ
१. हे वायो प्रगतिशील जीव! तू (शश्वतः) = बहुत (ससतः) = सोते हुए पुरुषों को (अति याहि) = लाँघकर आगे निकल जा हे वायो! तू (च) = और (इन्द्रः) = इन्द्र (तत्र गृहम्) = उस घर में (गच्छतम्) = जाओ और उसी घर में (गच्छतम्) = जाओ यत्र जहाँ (ग्रावा) = विद्वान् स्तोता (वदति) = ज्ञानोपदेश व प्रभुस्तवन करता है [विद्वांसो हि ग्रावाणः - श० ३।९।३ । १४] । घर में सोते रहने की अपेक्षा यही उत्तम है कि हम ज्ञान प्राप्ति में प्रवृत्त हों और प्रभुस्तवन करनेवाले बनें। ऐसा करने पर ही हम 'वायु व इन्द्र' बन पाएँगे। यह स्वाध्याय व स्तवन हमें गतिशील व शक्तिशाली बनाए रक्खेगा। २. ऐसा होने पर हमारे घरों में सूनृता प्रिय, सत्य वाणियाँ ही (विददृशे) = विशेषरूप से देखी जाएँगी, (घृतं रीयते) = वहाँ ज्ञानदीप्ति का प्रवाह होगा [घृ दीप्ति] । हे वायो! (च) = और (इन्द्रः) = इन्द्र-तुम दोनों (पूर्णया नियुता) = न्यूनता से रहित इन्द्रियाश्वों से (अध्वरम्) = यज्ञ के प्रति (आयाथः) = जाते हो और निश्चय से (अध्वरं याथः) = यज्ञों के प्रति ही जाते हो, अर्थात् यज्ञशील बने रहने से हम वायु व इन्द्र बन पाते हैं-सदा गतिशील, सदा शक्तिशाली ।
भावार्थ
भावार्थ- हम सोये न रहें, ज्ञानवाणियों का उच्चारण करें व प्रभुस्तवन में प्रवृत्त हों। हमारे घरों में सूनृत वाणियों का ही प्रयोग हो, सबके जीवन में दीप्ति का प्रवाह दिखे।
विषय
सूर्य, वायु, वृष्टि आदि के दृष्टान्त से शासक के प्रजापालन के कार्यों का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( वायो ) वायु के समान बलवान् और प्राणप्रद विद्वन् ! और राजन् ! तू ( ससतः ) सोने वाले आलसी पुरुषों से ( अतियाहि ) आगे बढ़, उनको अपने अधीन कर । और तू ( शश्वतः ) सनातन या चिरकाल से एक ही दशा में रहने वाले पुरुषों से ( अति याहि ) आगे बढ़, उनसे अधिक उन्नति कर । ( यत्र ) जहां ( ग्रावा ) उपदेष्टा, विद्वान् पुरुष ( वदति ) उपदेश करता हो हे ( वायो ) ज्ञान की कामना करनेहारे शिष्य और ( इन्द्रश्च ) हे ऐश्वर्यवन् पुरुष ! तुम दोनों (गच्छतम्) वहां जाओ और ज्ञान प्राप्त करो और पूर्ण विद्या प्राप्त करके तब ( गृहम् गच्छतम् ) अपने गृह जाओ। ( पूर्णया नियुता अध्वरं याथः ) जब वायु और सूर्य दोनों अपने पूर्ण बल से जलादान और विसर्ग रूप यज्ञ को प्राप्त होते हैं तब जिस प्रकार ( घृतम् रीयते ) जल बरसता है और ( सूनृता वि ददृशे ) अन्न विविध प्रकार से उत्पन्न हुआ दिखाई देता है उसी प्रकार हे (वायो) वायु के समान बलवान् पुरुष ! तू और ( इन्द्रः च ) ऐश्वर्यवान् तुम दोनों अपनी ( पूर्णया नियुता ) पूरी शक्ति और नियुक्त सेना से ( अध्वरम् अध्वरम् ) यज्ञ के समान पवित्र प्रजाओं का नाश न होने देने वाले प्रजापालन के प्रत्येक कार्य को (याथः) प्राप्त होते हो तो घृतम् रोयते ) राष्ट्र में जल घी दूध खाद्य पदार्थ और उत्तम तेज और विज्ञान का प्रकाश (रीयते) सर्वत्र सुना जाता और पाया जाता है और (सूनृता) शुभ सत्यमय वाणी और अन्न सम्पत्ति ( वि ददृशे ) विविध प्रकार से दिखाई देती है। [२] इसी प्रकार (वायु) ज्ञान की कामना करनेवाला विद्यार्थी और ज्ञान का उपदेष्टा इन्द्र दोनों (पूर्णया नियुता) अपनी पूरी शक्ति और भक्ति से ( अध्वरं अध्वरं ) अविनाशी, नित्य, परस्पर हिंसा से रहित ज्ञानमय दान-आदान रूप यज्ञ को प्राप्त हों तब ( घृतम् ) ज्ञान और ब्रह्मवर्चस तेज प्राप्त होता ( घृतम् ) यजुर्वेद का ज्ञान श्रवण किया जाता है और ( सूनृता वि ददृशे ) वेद वाणी विविध प्रकार से विनियुक्त देखी जाती है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
परुच्छेप ऋषिः॥ वायुर्देवता॥ छन्दः– १, ३ निचृदत्यष्टिः। २, ४ विराडत्यष्टिः । ५, ९ भुरिगष्टिः । ६, ८ निचृदष्टिः । ७ अष्टिः ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या देशी व ज्या स्थानी शास्त्रवेत्ते, आप्त, विद्वान सत्याचा उपदेश करतात तेथे माणसांनी जावे व त्यांचा उपदेश नित्य ऐकावा, ज्यामुळे विद्यायुक्त वाणी, सत्यविज्ञान व धर्मज्ञान प्राप्त होईल. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Vayu, power of speed and knowledge, pass by the idle and the sleeping. Both of you, Indra and Vayu, go to the lovers of permanent values and knowledge, there to the house where the voice of soma chant is heard, where truth and universal law of the universe is celebrated in yajna, and where ghrta flows into the yajna fire. Go to the yajna both of you, to the house of yajna by the chariot drawn by a team of horses in full and perfect form.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men do is further told in the seventh Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O mighty learned person like the wind, go to those persons who are rising above the slumber of ignorance and have acquired eternal wisdom. Go you both-a wealthy and mighty person who are like the sun and the wind to that house where a very wiseman or a genius delivers sermons. Go quickly to that non-violent sacrifice where pleasant and true speech is uttered and shining or bright knowledge is diffused, so that you may attain the knowledge of true Dharma consisting of अहिंसा ( non-violence ) kindness, purity and other virtues.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(ग्रावा) मेधावी A genius or very wise man. (घृतम् ) प्रदीप्तविज्ञानम् = Bright knowledge. (अध्वरम् ) अहिंसादिलक्षणं धर्मम् = To Dharma consisting of non-violence, kindness, truth, purity and other virtues.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of men to go to that place where absolutely truthful learned persons preach truth and they should attentively listen to their sermons, so that they may attain noble speech, true wisdom and the knowledge of Dharma.
Translator's Notes
विद्वांसो हि ग्रावाण: ( शत० ३.९.३.१४ ) । घृतम् is from घृ-क्षरणदीप्त्यो: hence the meaning of bright knowledge besides the well-known meaning of Ghee or clarified butter. Therefore the word is generally used for Yajna as explained by Yaskacharya ध्यरति हिंसाकर्मा तत्प्रतिषेधः निरुक्ते २. ७ ) Here Rishi Dayananda Sarasvati has taken it in the wider sense of Dharma itself consisting of non-violence, kindness, truth, purity and other virtues. अहिंसा परमोधर्मस्तथाऽहिंसा परं तपः । ( महाभारते ) तत्राहिंसा सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामनभिद्रोहः । उत्तरे च यमनियमास्तन्मूलास्तत् सिद्धिपरतयैव तत्प्रतिपादनाय प्रतिपाद्यन्ते ॥ योगदर्शनस्य २.३० भाष्ये महर्षि वेदव्यासवचनम् || Such passages certainly corroborate Rishi Dayananda Sarasvati's interpretation of अघ्वर quoted above.
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