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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 136 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 136/ मन्त्र 7
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - मन्त्रोक्ताः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ऊ॒ती दे॒वानां॑ व॒यमिन्द्र॑वन्तो मंसी॒महि॒ स्वय॑शसो म॒रुद्भि॑:। अ॒ग्निर्मि॒त्रो वरु॑ण॒: शर्म॑ यंस॒न्तद॑श्याम म॒घवा॑नो व॒यं च॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऊ॒ती । दे॒वाना॑म् । व॒यम् । इन्द्र॑ऽवन्तः । मं॒सी॒महि॑ । स्वऽय॑शसः । म॒रुत्ऽभिः॑ । अ॒ग्निः । मि॒त्रः । वरु॑णः । शर्म॑ । यंस॑न् । तत् । अ॒श्या॒म॒ । म॒घऽवा॑नः । व॒यम् । च॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऊती देवानां वयमिन्द्रवन्तो मंसीमहि स्वयशसो मरुद्भि:। अग्निर्मित्रो वरुण: शर्म यंसन्तदश्याम मघवानो वयं च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऊती। देवानाम्। वयम्। इन्द्रऽवन्तः। मंसीमहि। स्वऽयशसः। मरुत्ऽभिः। अग्निः। मित्रः। वरुणः। शर्म। यंसन्। तत्। अश्याम। मघऽवानः। वयम्। च ॥ १.१३६.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 136; मन्त्र » 7
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 26; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वांसोऽत्र जगति किंवद्वर्त्तेरन्नित्याह ।

    अन्वयः

    यथा मरुद्भिः सहाग्निर्मित्रो वरुणः शर्म यंसँस्तथा तदिन्द्रवन्तः स्वयशसो वयं देवानामूती मंसीमहि। अनेन च वयं मघवानो भद्रमश्याम ॥ ७ ॥

    पदार्थः

    (ऊती) रक्षणाद्यया क्रियया। अत्र सुपां सुलुगिति पूर्वसवर्णः। (देवानाम्) सत्यं कामयमानानां विदुषाम् (वयम्) (इन्द्रवन्तः) बह्वैश्वर्ययुक्ताः (मंसीमहि) जानीयाम (स्वयशसः) स्वकीयं यशो येषान्ते (मरुद्भिः) प्राणैरिव वर्त्तमानैः श्रेष्ठेर्जनैः सह (अग्निः) विद्युदादिस्वरूपः (मित्रः) सूर्यः (वरुणः) चन्द्रः (शर्म्म) सुखम् (यंसन्) प्रयच्छन्ति। अत्र वाच्छन्दसीत्युसभावः। लुङ्यडभावश्च। (तत्) (अश्याम) भुञ्जीमहि (मघवानः) परमपूजितैश्वर्ययुक्ताः (वयम्) (च) ॥ ७ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽत्र जगति पृथिव्यादयः पदार्थाः सुखैश्वर्यकारकाः सन्ति तथैव विदुषां शिक्षासङ्गाः सन्त्येतैर्वयं सुखैश्वर्या भूत्वा सततं मोदेमहीति ॥ ७ ॥ ।अत्र वाय्विन्द्रादिपदार्थदृष्टान्तैर्मनुष्येभ्यो विद्याशिक्षावर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिरस्तीति वेद्यम् ॥अस्मिन्नध्याये क्रोधादिनिवारणाऽन्नादिरक्षणादयः परमैश्वर्यप्राप्त्यन्ताश्चार्था उक्ता अत एतदध्यायोक्तार्थानां पूर्वाऽध्यायोक्तार्थैः सह संगतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इत्यृग्वेदे द्वितीयाऽष्टके प्रथमोऽध्यायः षड्विंशो वर्गः प्रथमे मण्डले षट्त्रिंशदुत्तरं शततमं सूक्तं च समाप्तम् ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वान् जन इस संसार में किसके समान वर्त्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जैसे (मरुद्भिः) प्राणों के समान श्रेष्ठ जनों के साथ (अग्निः) बिजुली आदि रूपवाला अग्नि (मित्रः) सूर्य (वरुणः) चन्द्रमा (शर्म) सुख को (यंसन्) देते हैं वैसे (तत्) उस सुख को (इन्द्रवन्तः) बहुत ऐश्वर्ययुक्त (स्वयशसः) जिनके अपना यश विद्यमान वे (वयम्) हम लोग (देवानाम्) सत्य की कामना करनेवाले विद्वानों की (ऊती) रक्षा आदि क्रिया से (मंसीमहि) जानें (च) और इससे (वयम्) हम लोग (मघवानः) परम ऐश्वर्ययुक्त हुए कल्याण को (अश्याम) भोगें ॥ ७ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे इस संसार में पृथिवी आदि पदार्थ सुख और ऐश्वर्य करनेवाले हैं, वैसे ही विद्वानों की सिखावट और उनके सङ्ग हैं, इनसे हम लोग सुख और ऐश्वर्यवाले होकर निरन्तर आनन्दयुक्त हों ॥ ७ ॥ इस सूक्त में वायु और इन्द्र आदि पदार्थों के दृष्टान्तों से मनुष्यों के लिये विद्या और उत्तम शिक्षा का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ एकता है, यह जानना चाहिये ॥इस अध्याय में क्रोध आदि का निवारण, अन्न आदि की रक्षा और परम ऐश्वर्य की प्राप्ति पर्यन्त अर्थ कहे हैं, इससे इस अध्याय में कहे हुए अर्थों की पिछले अध्याय में कहे हुए अर्थों के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥यह ऋग्वेद में दूसरे अष्टक में पहला अध्याय और छब्बीसवाँ वर्ग तथा प्रथम मण्डल में एकसौ छत्तीसवाँ सूक्त पूरा हुआ ॥

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    विषय

    अग्नि, मित्र व वरुण से दिया गया सुख

    पदार्थ

    १. (देवानाम् ऊती) = दिव्यगुणों के रक्षण के द्वारा (वयम्) = हम, (इन्द्रवन्तः) = उस परमात्मावाले होते हुए, अर्थात् अपने हृदयों में प्रभु को बिठाते हुए (मंसीमहि) = अपने कर्तव्यों का विचार करें। (मरुद्भिः) = प्राणों के द्वारा प्राणायाम की साधना के द्वारा हम (स्वयशसः) = अपने उत्तम कर्मों से यशवाले हों । प्राणसाधना से चित्तवृत्ति विषयों से निवृत्त होकर अन्तर्मुखी होती है और हम उत्तम कर्मोंवाले बन पाते हैं । २. उस समय (अग्निः मित्र: वरुणः) = आगे बढ़ने की वृत्ति, स्नेह व निर्देषता हमें (शर्म यंसन्) = सुख देते हैं। (तत्) = उस अग्नि आदि द्वारा प्रदत्त सुख को (मघवानः) = अपने ऐश्वर्यों का यज्ञों में विनियोग करनेवाले लोग (च) = तथा (वयम्) = कर्मतन्तु का विस्तार करनेवाले हम लोग (अश्याम) = प्राप्त करें।

    भावार्थ

    भावार्थ - दिव्य गुणों का वर्धन करते हुए हम प्रभु को प्राप्त करें। प्रकाश, स्नेह व निर्देषता से हमारा जीवन सुखी बने ।

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    विषय

    समृद्ध होकर उत्तम सुख प्राप्त करने का उपदेश ।

    भावार्थ

    ( वयम् ) हम लोग ( देवानां ऊती ) विद्वान्, स्नेही, और दानशील पुरुषों की रक्षा में और उत्तम गुणों के धारण से ( इन्द्रवन्तः ) ऐश्वर्यवान्, दुष्टनाशक क्षत्रियों से युक्त होकर ( मरुद्भिः ) विद्वान्, प्राणों के समान प्रिय, एवं व्यवहारकुशल वैश्यवर्गों सहित ( स्वयशसः मंसीमहि ) अपने यश और ऐश्वर्य से समृद्ध हुआ जानें । ( अग्निः ) अग्नि के समान तेजस्वी नायक और विद्वान् ज्ञानी, ( मित्रः ) प्राण के समान जीवनप्रद, स्नेहवान् (वरुणः) जल के समान श्रेष्ठ, स्वच्छ दुःखवारक पुरुष हमें ( शर्म ) सुख शान्ति ( यंसन् ) प्रदान करें । और ( वयं च ) हम भी ( मधवानः ) ऐश्वर्यवान् होकर ( तद् अश्याम ) उस सुख सम्पदा का भोग करें । इति षड्विंशो वर्गः । इति द्वितीयाष्टके प्रथमोध्यायः ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-७ परुच्छेप ऋषिः ॥ १-५ मित्रावरुणौ । ६—७ मन्त्रोक्ता देवताः॥ छन्दः—१, ३, ५, ६ स्वराडत्यष्टिः । २ निचृदष्टिः । ४ भुरिगष्टिः । ७ त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. या जगात पृथ्वी इत्यादी पदार्थ सुख व ऐश्वर्य देणारे आहेत तशीच विद्वानांची शिकवण व त्यांची संगती असते. त्यांच्याकडून आम्ही सुख व ऐश्वर्य प्राप्त करून सतत आनंदी राहावे ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Blest with wealth and power, enjoying fame and glory, now our own, with youth vibrant as the winds, we set our heart and mind on the protection of divinities and the best great powers of humanity. We pray may Agni, lord of light and energy, Mitra, the sun, and Varuna, the moon, grant us peace, comfort and joy of a happy home, and we resolve that, having that bounty and munificence of the divinities, we endeavour to do our Karma and achieve the same.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Like whom should learned persons behave is told further in the seventh Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    May Agni ( in the form of electricity etc.) Mitra ( Sun ), Varuna (Moon) give us happiness along with the Maruts (learned wise men who are dear to us like our own Prana). May we being affluent or prosperous by the protection of the enlightened persons who always desire truth, and having good reputation of our own, enjoy happiness and delight, being endowed with knowledge.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (मित्रः) सूर्य: = The sun (वरुण:) चन्द्र: = The moon. (देवानाम् ) सत्यं कामयमानान विदुषाम् = Of the persons desiring truth. ( मरुद्भिः ) प्राणैरिव वर्तमानैः श्रेष्ठैः जनैः सह = With good men who are dear to us like the Pranas.

    Translator's Notes

    अहमित्र: (ताण्ड्य० २५.१०.१०), अहर्वें मित्र: ( ऐ० ४.१०), रात्री वरुण: ( का० सं० २२. ६ कपिष्ठल' संहिता ३४.१), अहर्वें मित्रो रात्रिर्वरुणः (ऐत०४.१०), These Brahmanic passages clearly indicate that the words Mitra and Varuna are used for the sun and the moon which are creators of the day and the night, प्राणोवैमरुतः ( ऐत० ३. १६ ) | देवानाम् has been interpreted here as सत्यं कामयमानानां विदुषाम् having the meaning of कान्ति-कामना or desire among the various meanings of दिवु-क्रीडा विजिगीषा व्यवहार द्युतिस्तुतिमदस्वप्नकान्तिगतिषु । This hymn is connected with the previous hymn as the subject of education and wisdom for mankind has been mentioned by the illustration of Vayu and Indra etc. IN this Chapter (1) there is mention of the removal of anger and other vices and preservation of food, acquisition of wealth and attainment of prosperity etc. and so it is connected with the preceding chapter. Here ends the commentary on the 136th Hymn and 26th Verga of the first Mandala of the Rigveda Samhita. Here ends the first Chapter of the Second Ashtaka of the Rigveda.

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