ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 141/ मन्त्र 10
त्वम॑ग्ने शशमा॒नाय॑ सुन्व॒ते रत्नं॑ यविष्ठ दे॒वता॑तिमिन्वसि। तं त्वा॒ नु नव्यं॑ सहसो युवन्व॒यं भगं॒ न का॒रे म॑हिरत्न धीमहि ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । अ॒ग्ने॒ । श॒श॒मा॒नाय॑ । सु॒न्व॒ते । रत्न॑म् । य॒वि॒ष्ठ॒ । दे॒वता॑तिम् । इ॒न्व॒सि॒ । त्वम् । त्वा॒ । नु । नव्य॑म् । स॒ह॒सः॒ । यु॒व॒न् । व॒यम् । भग॑म् । न । का॒रे । म॒हि॒ऽर॒त्न॒ । धी॒म॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमग्ने शशमानाय सुन्वते रत्नं यविष्ठ देवतातिमिन्वसि। तं त्वा नु नव्यं सहसो युवन्वयं भगं न कारे महिरत्न धीमहि ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। अग्ने। शशमानाय। सुन्वते। रत्नम्। यविष्ठ। देवतातिम्। इन्वसि। त्वम्। त्वा। नु। नव्यम्। सहसः। युवन्। वयम्। भगम्। न। कारे। महिऽरत्न। धीमहि ॥ १.१४१.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 141; मन्त्र » 10
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे सहसो युवन् यविष्ठ महिरत्नाऽग्ने यस्त्वं शशमानाय सुन्वते रत्नं देवतातिं चेन्वसि तं नव्यं त्वा कारे भगन्नेव वयन्नु धीमहि ॥ १० ॥
पदार्थः
(त्वम्) (अग्ने) अग्निरिव वर्त्तमान विद्वन् (शशमानाय) अधर्ममाप्लुत्य धर्मं प्राप्नुवते (सुन्वते) ऐश्वर्योत्पादकाय (रत्नम्) रमणीयं ज्ञानं साधनं वा (यविष्ठ) अतिशयेन युवम् (देवतातिम्) देवतामेव परमात्मानम् (इन्वसि) ध्यानयोगेन व्याप्नोषि (तम्) (त्वा) त्वाम् (नु) शीघ्रम् (नव्यम्) नवेषु विद्वत्सु भवम् (सहसः) बलस्य (युवन्) यौवनं प्राप्नुवन् (वयम्) (भगम्) (न) इव (कारे) कर्त्तव्ये व्यवहारे (महिरत्न) पूज्यैर्गुणै रमणीय (धीमहि) धरेमहि ॥ १० ॥
भावार्थः
येऽधर्मं विहाय धर्ममनुष्ठाय परमात्मानं प्राप्नुवन्ति तेऽतिरम्यमानन्दमाप्नुवन्ति ॥ १० ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (सहसः) बलसम्बन्धी (युवन्) यौवनभाव को प्राप्त (यविष्ठ) अत्यन्त तरुण (महिरत्न) प्रशंसा करने योग्य गुणों से रमणीय (अग्ने) अग्नि के समान वर्त्तमान विद्वान् ! जो (त्वम्) आप (शशमानाय) अधर्म को उल्लङ्घ के धर्म को प्राप्त हुए (सुन्वते) और ऐश्वर्य को उत्पन्न करनेवाले उत्तम जन के लिये (रत्नम्) रमणीय ज्ञान वा उसके साधन को और (देवतातिम्) परमेश्वर को (इन्वसि) ध्यानयोग से व्याप्त होते हो (तम्) उन (नव्यम्) नवीन विद्वानों में प्रसिद्ध (त्वा) आपको (कारे) कर्त्तव्य व्यवहार में (भगम्) ऐश्वर्य के (न) समान (वयम्) हम लोग (नु) शीघ्र (धीमहि) धारण करें ॥ १० ॥
भावार्थ
जो अधर्म को छोड़ धर्म का अनुष्ठान कर परमात्मा को प्राप्त होते हैं, वे अति रमणीय आनन्द को प्राप्त होते हैं ॥ १० ॥
विषय
रत्न, देवताति, सहस्
पदार्थ
१. हे (अग्ने) = परमात्मन्! (त्वम्) = आप (शशमानाय) = [शंसमान - नि०] शंसन व स्तवन करनेवाले के लिए अथवा [शश प्लुतगतौ] प्लुतगतिवाले के लिए, अर्थात् स्फूर्ति के साथ कार्य करनेवाले के लिए (सुन्वते) = सोमाभिषव करनेवाले के लिए-शरीर में सोमशक्ति का सम्पादन करनेवाले के लिए (रत्नम्) = रमणीय वस्तुओं को (इन्वसि) = व्याप्त करते हो, आप इन्हें रमणीयता प्राप्त कराते हो। यविष्ठ हे युवतम ! बुराइयों को पृथक् करके अच्छाइयों का मेल करनेवाले प्रभो ! आप (देवतातिम्) = दिव्य गुणों के विस्तार को [इन्वसि] व्याप्त करते हो, आप हमें दिव्यगुण प्राप्त कराते हो । २. हे (सहसः युवन्) = भक्तों के साथ सहस् का मिश्रण करनेवाले (महिरत्न) = महनीय रत्नोंवाले प्रभो ! (तं नव्यं त्वा) = उस स्तुति के योग्य आपको (नु) = अब (वयम्) = हम (कारे) = पुरुषार्थ के होने पर (भगं न) = ऐश्वर्य के समान (धीमहि) = ध्यान करते हैं व धारण करते हैं। हम पुरुषार्थ करें और प्रभु का स्मरण करें। प्रभु ही वास्तविक ऐश्वर्य हैं, वे ही सब ऐश्वर्यों के देनेवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ- परिश्रमी के लिए प्रभु रत्न देते हैं, उसे दिव्य गुणों से युक्त करते हैं और शक्ति प्राप्त कराते हैं।
विषय
वीर नायक और आत्मा का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) अग्रणी नायक ! विद्वन् ! तु ( शशमानाय ) स्तुतिशील ( सुन्वते ) सवन या अभिषेक करने वाले प्रजाजन को देने के लिये ( देवतातिम् रत्नम् ) देव सदृश, दानशील, उत्तम पुरुषों के हितकारी, रमण करने योग्य उत्तम पद को ( इन्वसि ) प्राप्त कर । हे ( यविष्ठ युवन् ) बलवन् ! युवक ! उत्साहवन् ! हे ( महिरत्न ) भूमि रत्न के स्वामिन् ! बड़े रत्नों के स्वामी एवं पूज्य रम्य गुणों से युक्त ! तुझको ( कारे ) सब उत्तम कार्यों में ( भगं न ) ऐश्वर्य के समान सेवनीय एवं ( सहसः ) बल के कारण ( नव्यं ) स्तुति योग्य हम ( त्वां नु धीमहि ) तुझ को ही जानें और धारण कर मुख्य पद पर कार्य में नियुक्त करें । ( २ ) आत्मा के पक्ष में—वह आत्मा ( शशमानाय ) शम साधना करने वाले या स्तुतिकर्ता उपासक को रम्य, देव, तेजोमय या सुखरूप से प्राप्त होता है उसी स्तुत्य का हम ध्यान करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १, २, ३, ६, ११ जगती । ४, ७,९, १० निचृज्जगती । ५ स्वराट् त्रिष्टुप् । ८ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ भुरिक् पङ्क्तिः। १३ स्वराट् पङ्क्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे अधर्म सोडून धर्माचे अनुष्ठान करून परमेश्वराला प्राप्त करतात ते अतिशय रमणीय आनंद प्राप्त करतात. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, ever young beyond age, for the creative man of active piety and worship, you bring the universal wealth of Divinity in meditation. Lord of power and youth, wealth and value of the universe, eternal and ever new, such as you are, in every act of our life we worship you as the lord and master of the power and glory of the universe.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Following of DHARMA leads to to extreme delight.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
A young powerful learned leader is always charming on account of his adorable virtues, who encompasses charming knowledge and the means of it. He deploys those means for the welfare of a righteous person. He is free from evils, producer of good wealth and attains God with his deep meditation. Our glories to such a person who discharges his all duties, like a powerful prince.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who refrain from all evils and observe the rules of righteousness, attain the Supreme Being, and enjoy Divine Bliss.
Foot Notes
(शशमानाय) अधर्भमाप्लुत्य दर्भ प्राप्नुवते - For the welfare of a righteous person refraining from all evils. ( देवतातिम्) देवताम् एवं परमात्मानम् — To God. (रत्नम् ) रमणीयं ज्ञानं साधनं वा - Charming knowledge or its means. (इन्वेसि) ध्यानयोगे व्याप्नोषि = Encompasses, or attains with deep meditation.
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