ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 141/ मन्त्र 7
वि यदस्था॑द्यज॒तो वात॑चोदितो ह्वा॒रो न वक्वा॑ ज॒रणा॒ अना॑कृतः। तस्य॒ पत्म॑न्द॒क्षुष॑: कृ॒ष्णजं॑हस॒: शुचि॑जन्मनो॒ रज॒ आ व्य॑ध्वनः ॥
स्वर सहित पद पाठवि । यत् । अस्था॑त् । य॒ज॒तः । वात॑ऽचोदितः । ह्वा॒रः । न । वक्वा॑ । ज॒रणाः॑ । अना॑कृतः । तस्य॑ । पत्म॑न् । द॒क्षुषः॑ । कृ॒ष्णऽजं॑हसः । शुचि॑ऽजन्मनः । रजः॑ । आ । विऽअ॑ध्वनः ॥
स्वर रहित मन्त्र
वि यदस्थाद्यजतो वातचोदितो ह्वारो न वक्वा जरणा अनाकृतः। तस्य पत्मन्दक्षुष: कृष्णजंहस: शुचिजन्मनो रज आ व्यध्वनः ॥
स्वर रहित पद पाठवि। यत्। अस्थात्। यजतः। वातऽचोदितः। ह्वारः। न। वक्वा। जरणाः। अनाकृतः। तस्य। पत्मन्। दक्षुषः। कृष्णऽजंहसः। शुचिऽजन्मनः। रजः। आ। विऽअध्वनः ॥ १.१४१.७
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 141; मन्त्र » 7
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
यद्यो यजतो वक्वा अनाकृतो वातचोदितो विद्वान् ह्वारोऽग्निर्न व्यस्थात् तस्य शुचिजन्मनः पत्मन्मार्गे कृष्णजंहसो धक्षुष आ व्यध्वनोऽग्ने रज इव जरणाः प्रशंसा जायन्ते ॥ ७ ॥
पदार्थः
(वि) विशेषेण (यत्) यः (अस्थात्) तिष्ठेत् (यजतः) संगन्ता (वातचोदितः) वायुना प्राणेन वा प्रेरितः (ह्वारः) कुटिलतां कारयन् (न) इव (वक्वा) वक्ता (जरणाः) स्तुतयः (अनाकृतः) न आकृतो न निवारितः (तस्य) (पत्मन्) (दक्षुषः) दहतः (कृष्णजंहसः) कृष्णानि जंहांसि हननानि यस्मिँस्तस्य (शुचिजन्मनः) शुचेः पवित्राज्जन्म यस्य तस्य (रजः) कणः (आ) (व्यध्वनः) विरुद्धोऽध्वा यस्य सः ॥ ७ ॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये धर्ममातिष्ठन्ति ते सूर्य इव प्रसिद्धा जायन्ते तत्कृता कीर्त्तिः सर्वासु दिक्षु विराजते ॥ ७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(यत्) जो (यजतः) सङ्ग करने और (वक्वा) कहनेवाला (अनाकृतः) रुकावट को न प्राप्त हुआ (वातचोदितः) प्राण वा पवन से प्रेरित विद्वान् (ह्वारः) कुटिलता करते हुए अग्नि के (न) समान (व्यस्थात्) विशेषता से स्थिर है (तस्य) उस (शुचिजन्मनः) पवित्र जन्मा विद्वान् के (पत्मन्) चाल-चलन में (कृष्णजंहसः) काले मारने हैं जिसके उस (दक्षुषः) जलाते हुए (आ, व्यध्वनः) अच्छे प्रकार विरुद्ध मार्गवाले अग्नि के (रजः) कण से समान (जरणाः) प्रशंसा स्तुति होती हैं ॥ ७ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो धर्म में अच्छी स्थिरता रखते हैं, वे सूर्य के समान प्रसिद्ध होते हैं और उनकी की हुई कीर्त्ति सब दिशाओं में विराजमान होती है ॥ ७ ॥
विषय
'महाजनो येत गतः स पन्थाः'
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार वे विश्वधा प्रभु जिसे प्राप्त होते हैं वह (यत्) = जब (वि अस्थात्) = विशिष्ट लक्ष्य को लेकर जीवन में स्थित होता है, तब इस विशिष्ट लक्ष्य की पूर्ति के लिए (यजतः) = प्रभु से अपना मेल करनेवाला होता है, (वातचोदितः) = वायु से प्रेरणा प्राप्त करता है। जैसे वायु निरन्तर चल रहा है, इसी प्रकार यह निरन्तर अपने कार्यों में लगनेवाला होता है। इन कार्यों में (ह्वारः न) = यह कुटिल नहीं होता, इसकी क्रियाएँ कुटिलता से रहित होती हैं। कुटिलता से बचे रहने के लिए ही यह (वक्वा) = प्रभु के नामों का उच्चारण करता है। प्रभुस्मरणपूर्वक कार्यों को करता हुआ यह जरणा शक्ति की जीर्णता से (अनाकृतः) = प्रतिबद्ध प्रसर- [गमन] वाला नहीं होता। इसके जीवन में ऐसी स्थिति नहीं आ जाती कि यह जीर्ण शक्तिवाला हो जाए और जीर्णता के कारण इसका कार्यों में प्रवृत्त होना रुक जाए। (तस्य) = उसी के पत्मन् मार्ग में (रजः) = लोक (आ) = [अस्थात्] समन्तात् स्थित होता है - सब उसी का अनुसरण करते हैं, उससे चले हुए मार्ग पर ही सब चलते हैं, उसके मार्ग पर ही सब चलते हैं जो कि (दक्षुषः) = वासनाओं का दहन करनेवाला है, (कृष्णजंहसः) = कालिमा को, विद्वेषादि मलिनताओं को हिंसित करता है, (शुचिजन्मनः) = पवित्रता को जन्म देने तथा विकसित करनेवाला है तथा (वि-अध्वनः) = विशिष्ट मार्ग पर ही चलनेवाला है। इसके मार्ग पर चलते हुए सभी कल्याण प्राप्त करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभुभक्त प्रभु का स्मरण करता हुआ कर्म में लगा रहता है। अन्य लोग इसी का अनुकरण करते हैं।
विषय
अविनाशी आत्मा का जन्म लेने का रहस्य ।
भावार्थ
जीव की उत्पत्ति का वर्णन करते हैं—( यत् ) जब वह ( यजतः ) बाहर आने या प्रसव कर देने योग्य हो जाता है तब वह ( वातजूतः ) सुखकारी प्रबल प्राण वेग से प्रेरित होकर ( ह्वारः ) कुटिल मार्ग से आता हुआ ही ( अनाकृतः ) अति पीड़ित होकर ( वक्वा न ) वक्ता पुरुष जिस प्रकार स्तुतियों को धारण करता है उसी प्रकार वह भी ( जरणाः ) जेरों को ( वि अस्थात् ) छोड़कर पृथक् हो जाता है । और तब ( वि अध्वनः ) विपरीत मार्ग से आने वाले ( दक्षुषः ) माता को पीड़ा और संताप देने वाले (कृष्णजंहसः) खिंचाव तनाव के मार्ग में स्थित, ( शुचिजन्मनः ) शुद्ध जन्म वाले ( तस्य ) उस जीवात्मा के (पत्मन्) मार्ग में (रजः आ अस्थात् ) रुधिर या राजस भाव भी आता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १, २, ३, ६, ११ जगती । ४, ७,९, १० निचृज्जगती । ५ स्वराट् त्रिष्टुप् । ८ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ भुरिक् पङ्क्तिः। १३ स्वराट् पङ्क्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जे धर्मात चांगले स्थिर असतात ते सूर्याप्रमाणे प्रसिद्ध होतात व त्यांची कीर्ती सर्व दिशांमध्ये पसरते. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
When Agni, light and fire of life, conducting the yajna of existence, inspired and impelled by winds, blazing eloquent like a poet singing in praise of his patron undisturbed, rises to a state of stability and omnipresence, then the path of this blazing power going over areas of darkness, pure and immaculate by birth shining everywhere across the wide ways of space is worthy of praise and following by all humanity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Significance of learning for the attainment of DHARMA is underlined.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
A respectable learned speaker is decisively frank and firm. Impelled by the Prana he stands like the fire engulfing the rotten. He is admired everywhere and moves even in darkness. He has pure birth and follows various chosen paths.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who observe Dharma (righteousness), become illustrious like the sun.
Foot Notes
(अनाकृतः) न आकृतः न निवारितः — Not restrained by any one. (कृष्णजहस:) कृष्णानि जहासि-सामानि नयस्मिन् = Whose killings are black i.e. which makes objects look black by burning them.
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