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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 142 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 142/ मन्त्र 3
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    शुचि॑: पाव॒को अद्भु॑तो॒ मध्वा॑ य॒ज्ञं मि॑मिक्षति। नरा॒शंस॒स्त्रिरा दि॒वो दे॒वो दे॒वेषु॑ य॒ज्ञिय॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शुचिः॑ । पा॒व॒कः । अद्भु॑तः । मध्वा॑ । य॒ज्ञम् । मि॒मि॒क्ष॒ति॒ । नरा॒संसः॑ । त्रिः । आ । दि॒वः । दे॒वः । दे॒वेषु॑ । य॒ज्ञियः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शुचि: पावको अद्भुतो मध्वा यज्ञं मिमिक्षति। नराशंसस्त्रिरा दिवो देवो देवेषु यज्ञिय: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शुचिः। पावकः। अद्भुतः। मध्वा। यज्ञम्। मिमिक्षति। नराशंसः। त्रिः। आ। दिवः। देवः। देवेषु। यज्ञियः ॥ १.१४२.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 142; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    यः पावकइवाद्भुतः शुचिर्यज्ञियो नराशंसो देवो देवेषु दिवो मध्वा यज्ञं त्रिरामिमिक्षति स सुखमाप्नोति ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (शुचिः) पवित्रः (पावकः) पवित्रकारकोऽग्निरिव (अद्भुतः) आश्चर्यगुणकर्मस्वभावः (मध्वा) मधुना सह (यज्ञम्) (मिमिक्षति) मेढ़ुं सिञ्चितुमलङ्कर्त्तुमिच्छति (नराशंसः) नरैः प्रशंसितः (त्रिः) त्रिवारम् (आ) समन्तात् (दिवः) कामनातः (देवः) कामयमानः (देवेषु) विद्वत्सु (यज्ञियः) यज्ञं कर्त्तुमर्हः ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    ये मनुष्याः कौमारयौवनवृद्धावस्थासु विद्याप्रचाराख्यं व्यवहारं कुर्युस्ते कायिकवाचिकमानसिकसुखानि प्राप्नुयुः ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जो (पावकः) पवित्र करनेवाले अग्नि के समान (अद्भुतः) आश्चर्य गुण, कर्म, स्वभाववाला (शुचिः) पवित्र (यज्ञियः) यज्ञ करने योग्य (नराशंस) नरों से प्रशंसा को प्राप्त और (देवः) कामना करता हुआ जन (देवेषु) विद्वानों में (दिवः) कामना से (मध्वा) मधुर शर्करा वा सहत से (यज्ञम्) यज्ञ को (त्रिः) तीन बार (आ, मिमिक्षति) अच्छे प्रकार सींचने वा पूरे करने की इच्छा करता है, वह सुख पाता है ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य बालकाई, ज्वानी और बुढ़ापे में विद्याप्रचाररूपी व्यवहार को करें, वे कायिक, वाचिक और मानसिक सुखों को प्राप्त होवें ॥ ३ ॥

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    विषय

    पवित्रता व माधुर्य

    पदार्थ

    १. प्रभु (शुचि:) = पूर्ण पवित्र हैं, (पावक:) = हमें पवित्र करनेवाले हैं, (अद्भुतः) = वे अद्भुत हैं, प्रभु के समान न कोई हुआ, न है और न कोई होगा। ये प्रभु (यज्ञम्) = हमारे जीवनयज्ञ को (मध्वा) = माधुर्य से (मिमिक्षति) = सिक्त करते हैं। वे प्रभु हमारे जीवन को राग-द्वेष से पृथक् करके पवित्र बना देते हैं और इस प्रकार हमारा जीवन माधुर्य से पूर्ण होता है। २. (नराशंसः) = सब मनुष्यों से शंसनीय, (दिवः) = इस संसाररूप क्रीड़ा को करनेवाले [दिव् क्रीडायाम्], (देव:) = प्रकाशमय [दिव् द्युतौ], (देवेषु यज्ञियः) = देवों में उपासना के योग्य, अथवा सब देवों में संगतिकरण करनेवाला वह प्रभु (त्रिः) = तीन बार (आ) = समन्तात [मिमिक्षति] हमारे जीवनों को माधर्य से सिक्त करता है। तीन बार का अभिप्राय यह है कि जीवनयज्ञ के प्रातः, माध्यन्दिन और सायन्तन सवन में वे प्रभु हमारे लिए माधुर्य का सेचन करते हैं। जीवन का प्रातः सवन 'बाल्यकाल' है, माध्यन्दिन सवन 'यौवन' है और सायन्तन सवन 'वार्धक्य' है। इन तीनों सवनों में माधुर्य का सेचन होकर हमारा सारा जीवन ही मधुर बन जाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु का शंसन करते हैं, प्रभु हमारे जीवन को पवित्र करके मधुर बना देते हैं।

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    विषय

    तनूनपात् का रहस्य ।

    भावार्थ

    ( नराशंसः ) नायक पुरुषों से स्तुति करने योग्य, प्रशंसनीय श्रेष्ठ पुरुष ( शुचिः ) शुद्ध आचारवान्, धर्मात्मा, ( पावकः ) अग्नि के समान अन्यों को शुद्ध पवित्राचार बनाने हारा, (अद्भुतः) आश्चर्यजनक, ( देव ) दानशील, विजिगीषु ( देवेषु ) अन्य दानशील, और विजय के इच्छुक कामनावान् पुरुषों के बीच में ( यज्ञियः ) स्वयं सब से श्रेष्ठ दानशील एवं स्तुति और सत्कार और प्रजापालक पद के योग्य पुरुष ( यज्ञं ) सुसंगत राज्य को ( मध्वा ) मधुर अन्न, मधुर वचन और मधुर विचारों तथा उत्तम जल से ( त्रिः ) तीनों प्रकार से ( आ मिमिक्षति ) सेचन करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ देवता—१, २, ३, ४ अग्निः । ५ बर्हिः । ६ देव्यो द्वारः । ७ उषासानक्ता । ८ दैव्यौ होतारौ । ६ सरस्वतीडाभारत्यः । १० त्वष्टा । ११ वनस्पतिः । १२ स्वाहाकृतिः । १३ इन्द्रश्च ॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ८,९ निचृदनुष्टुप् । ४ स्वराडनुष्टुप् । ३, ७, १०, ११, १२ अनुष्टुप् । १३ भुरिगुष्णिक् ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे बालपण, तारुण्य व वृद्धावस्थेमध्ये विद्याप्रचाररूपी व्यवहार करतात ते कायिक, वाचिक व मानसिक सुख प्राप्त करतात. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, pure and purifier, wonderful of nature, character and action, is keen to sprinkle yajna thrice with honey-sweets of fragrance from the light of heaven. Adorable is he among men, brilliant and generous among the nobilities of humanity, worthy of company and honour at yajnas.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Importance of acquiring knowledge in all the years of life is underlined.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    A learned person is pure himself and is capable of purifying others like the fire. He is marvelous, adorable, and is praised by persons and is keen for the welfare of others. With his noble desire, such a person emulsifies the Yajna in his childhood, young and old ages, as well, of his own accord. He thus enjoys happiness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The men engaged in imparting knowledge of the noble work of yajna in their child and among adolescents young and old ages are blessed with physical. vocal and mental happiness.

    Foot Notes

    (दिवः) कामनातः – From desire. (देव:) कामयमान: = Desiring.

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